आध्यात्मिक विषय..
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आज की दो बात…
पहले तोलो फिर बोलो की यह सूक्ति व्यक्ति को चिंतन पूर्वक बोलने की दिशा में प्रेरित करती है। चिंतन पूर्वक बोलने वाले व्यक्ति की मितभाषिता, मधुर भाषिता, सत्यभाषिता व समीक्ष्यभाषिता स्वत: सध जाती है । बोलने की कला के इन चार सूत्रों पर ध्यान केंद्रित करने वाले व्यक्ति का बोलना कलापूर्ण हो सकता है, जो एक आदर्श व्यक्ति की पहचान हो सकती है। प्रियवाक्य प्रदानेन ,सर्वे तुष्यन्ति मानवा:। तस्मात् तदेव वक्तव्यं, वचने का दरिद्रता। मीठा बोलना जो एक वशीकरण मंत्र है।
इसका उपयोग कोयल को कौए से अलग करता है। जैसा खाए अन्न ,वैसा होए मन जिससे पवित्र होगी हमारी विचारधारा । कुशल व्यवहार का मिलेगा धन । इससे कषायों की उग्रता पर नियंत्रण होने लगता है ।जिससे हमारी विचारधारा सही मोड़ लेने मे कारगर हो सकती हैं। फिर हमारे उत्तम विचार हमारा हमारा कुशल व्यवहार हमारी पहचान बन सकता है। हमारी विचारधारा- हमारा व्यवहार गंगोत्री धाम के पावन दर्शन । जिसके द्वारा ही गंगा नदी कराती अमृत पान। धन्य है वह उदगम स्थान। नदी की तरह बहता जीवन। विचारधारा है जिसका उदगम स्थान। जिससे निर्मित मानव का आचरण। हमारी विचारधारा- हमारा व्यवहार। सकारात्मक और आनन्दमयी विचारधारा। जीवन व्यवहार की बगिया को रखती सुगन्धित पुष्पों से हरा-भरा।
यह सत्य है की वास्तविक जिंदगी में मुद्रा बहुत जरूरी है ।रोजी-रोटी, शिक्षा स्वास्थ्य, न्याय , आवागमन , सामाजिक कार्य ,पर्यटन ,आवास आदि में मुद्रा का ही बोलबाला है फिर भी मानव समाज को समृद्ध करने के बजाय अंतहीन समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है क्योंकि उनकी लालसाएं बढ़ रही है । जिसका समाधान केवल यही है कि मानव छोटे-छोटे व्रतों का पालन करें।मनुष्य के जीवन में मुद्रा की उपयोगिता एक हद तक है ,पर वह हद को न लांघें, अनासक्त भाव रखें तो शांति व सुखदायक जीवन जी सकता है। जीने का अंदाज सीख लो, परिग्रह की ज़िद छोड़ दो । ज़रूरतें सीमित कर, संतुष्टि से जीवन को सँवार लो । भूत-भविष्य की अधिक चिंता छोड़ वर्तमान में जी लो । ख़्वाइशें की होती नहीं सीमा सीमित उनको तुम करलो । भर जाएगा ख़ुशियों से जीवन का दामन,समता से जीना सीख लो |
सर्वश्रेष्ठ तीर्थ….
दुनिया में धर्म के बहुत तीर्थ है लेकिन इन सबसे अच्छा भी एक तीर्थ है वह है हमारा हृदय । हम जीतने अधिक निर्मल पावन
होंगे उतने ही अधिक अपने आप के पास होंगे । जीवन मे आत्मोत्थान का बरसता रहे हमारे सावन जिसने राग-द्वेष कामादिक आदि जीते सब जग जान लिया । सब जीवों को मोक्ष – मार्ग का निस्पृह हो उपदेश दिया ।बुद्ध, वीर जिन, हरि, हर ब्रह्मा या उसको स्वाधीन कहो । भक्ति-भाव से प्रेरित हो यह चित्त उसी में लीन रहो। और भक्ति में रमते रहे और बनकर सार्थक स्वर्ण कसौटी पर खरे उतरे । मीरा की तरह जिसका ज़हर भी अमृत हो गया था। जान ले हम आत्मा में शक्ती हैं । मीरा सी भक्ति हैं। हमें भीतर में रहना हैं । बाहर से कहना हैं। जीवन समंदर हैं । जीना भी अंदर हैं। तन धोया मन मलिन रहा
मन की मलिनता हेतु कषायों की सफ़ाई बेहद ज़रूरी है ।उन पर ध्यान के नियंत्रण का अंकुश और एकाग्रता के संकल्पों की झाड़ पोंछ हमेशा होनी चाहिए।ताकी मन चंगा तो कटौती में गंगा।
विरासत में अपने जीवन में हो स्वच्छता भरे विचारों की शृंखला जो हम ऐसे रखे की जिसके लिए मन में भाव हो सिर्फ़ अर्पण और समर्पण का। यह हमारे मन का असंतोष ही तो है हम को लोहा मिलता है किन्तु हम सोने के पीछे भागने लगते हैं। पारस की खोज करते हैं ताकि लोहे को सोना बना सकें। और असंतोष रूपी लोभ से ग्रसित होकर पारस रूपी संतोष को भूल जाते हैं ।जिसके लिए हमें कहीं जाना नहीं पड़ता बल्कि वह तो हमारे पास ही रहता है। बस आवश्यकता है तो उसे पहचानने की।मानसिक, वाचिक,कायिक आदि हिंसा का अतिक्रमण हुआ हो । जान या अनजान में किसीका भी दिल दुखाने में हुआ हो व्यतिक्रमण आदि तो सामने वाले से हम क्षमायाचना कर ले । क्योंकि भूल होती पीठ की तरह जो दूसरों की तो दिख जाती हमें लेकिन नहीं होता स्व निरीक्षण ।हम समता भाव का कर विकास करे आत्म परीक्षण ।जो हुई गलतियां अब तक उसे आगे से न हो ऐसे दे हृदय से स्वयं को प्रशिक्षण । जितना निर्मल,निश्छल और निष्पाप आदि हमारा हृदय होगा हम होंगे उतने ही पास सर्वश्रेष्ठ तीर्थ के वह हमारे शून्य होंगे संताप ।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ ,राजस्थान )