वृद्ध पिता की फरमाईश….
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उम्र आने के बाद हर मानव यह चिन्तन करता है की मैं मेरी जिन्दगी अब आगे की सही से निकाल लूँ जितने दिन मुझे अब जीना है । आकांक्षाएं व इच्छाएं कम होने से अशांति का पथ छूट जाता है ।आध्यात्म की ओर जो मन मोड़ लेता है तो सारा भ्रम टूट जाता है । जीवन को जब मिल जाती है आत्म संतोष व शांति की धारा तब हर पल क्षण नजदीक आता जाता है ।
यही है अपनी मंजिल का अंतिम किनारा । व्यर्थ की बातों को भूल जाओ और आत्म शांति के पथ को अपनाओ ।आदमी अपनी इच्छा के अनुरूप सब कुछ पाना चाहता है ।पर जितना अपने मन में वह चाहता है उतना पा कहां पाता है ।जो अपनी चाह व इच्छाओं पर अंकुश लगाता है वही इस दुनियां में प्रसन्न बनकर जी पाता है । घर एक चूल्हे दो जलने लगे ।
व्यवहारआपसी बदलने लगे। एक थाली में खाया कल तक बैर भाव आज क्यों पलने लगे। अच्छी सोच अच्छे विचार नहीं मिलते। मिलजुल रहने वाले परिवार ज्यादा नहीं मिलते। सुख और संपन्नता में साथ होते है सभी पर वक्त हो बुरा तो मित्र दो चार नहीं मिलते। हमारे बुजुर्गों ने हमें जन्म दिया है। अपने हिसाब से परवरिश कर हमको बड़ा किया है। पढा-लिखा कर हमें जीवन में एक दर्जा दिया है।
आज वे वृद्ध हो गए हैं यह तो कुदरत का नियम है। पर हम न भूलें वे घर में अति सम्माननीय हैं। हमारा परम कर्तव्य है की उन्हें पूर्ण आदर देना व समझना आदि । अत: हम हमारी ज़िन्दगी में कितने ही व्यस्त हों परन्तु उनके लिए उचित समय न निकाल पाना अक्षम्य है। उनके साथ हर रोज कुछ समय बिताना, उनके संस्मरण सुनना आदि व साथ में अति मुख्य है आदर सहित उन्हें साथ बैठ कर खाना खाना।
इन सबसे उनकी आत्मा को जो सुकून मिलेगा वह अवर्णनीय है। साथ में उनके अंतर से जो अनकही आशीष जो हमें मिलेगी वह अमूल्य है।ऐसा मानना है की जिस घर में बुजुर्गों का सम्मान होता है वह घर सदैव संस्कारों से धनवान होता है । क्योंकि संस्कार ही तो हैं सुख-शान्ति का सही से सच्चा आधार। यही तो होती है वृद्ध पिता की फरमाईश।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ , राजस्थान )