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आनन्द की परिभाषा….

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आनन्द कोई रुपये पैसे आदि में नहीं है । किसी के गाड़ी , मकान , गहने आदि है तो भी उसकी आँखों में नींद नहीं है । इसके विपरीत दिन भर मजदूरी करके रात को खाट पर सोते है तो चैन की नींद लेते है । मन की लोभी तृष्णा का कोई अंत नहीं होता हैं । जैसे-जैसे सोचा हुआ हाशिल होता है वैसे-वैसे और आगे से आगे नयी चाहत बढ़ने लगती है।जिसका जीवन में कभी भी अंत ही नहीं होता हैं ।

जीवन की इस और – और की आपा-धापी में जीवन के स्वर्णिम दिन कब बीत जाते हैं उसका हम्हें सही से भान भी नहीं रहता हैं । आगे जीवन में कभी सपने अधूरे रह गये तो किसी के मुँह से यही निकलता है कि कास अमुक काम मैं अमुक समय कर लेता।उनके लिये बस बचता है तो किसी के कास तो किसी के जीवन में अगर।तृष्णा तो विश्व विजेता सिकंदर की कभी पूरी नहीं हुयी और जब विदा हुआ तो ख़ाली हाथ।

हमारी आशाएँ और आकांक्षाएँ हम्हें आगे बढ़ने के लिये प्रेरित करती है।पर हर इंसान मन में यह सोच कर चले कि मैंने अपने मन में आकांक्षाएँ और आशाएँ तो बहुत की।अगर उसका परिणाम हमारे अनुकूल हुआ तो बहुत अच्छी बात है और परिणाम आशाएँ के विपरीत रहा तो कोई बात नहीं।जो मेरे भाग्य में था उसी में संतोष है।मन में यह भी सोचें की जो मुझे प्राप्त हुआ उतना तो बहुत लोगों को भी नसीब में भी नहीं हैं ।

इसलिये जीवन में आशाएँ और आकांक्षाएँ ज़रूर रखो पर पूरी नहीं होने पर जो प्राप्त हुआ उसमें संतोष करना सीखो। इसको हम ऐसे भी कह सकते हैं की कर्म जैसा हो वो ज़रूर करो और जो कुछ प्राप्त हुआ उसमें संतोष करना सीखो।जीवन की इस भागम-भाग में आख़िरी साँस कौन सी होगी वो कोई नहीं जानता।जिसने जीवन में संतोष करना सीख लिया उसका जीवन आनंदमय बन गया। सार रूप में आनन्द की यही परिभाषा है की आनन्द पदार्थों में नहीं हैं बल्कि आनन्द है हमारे मन की स्थिति में।
प्रदीप छाजेड़
(बोरावड़, राजस्थान)

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