आत्म शुद्धि साधन धर्म है…
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आत्म शुद्धि साधन धर्म हैं अर्थात जिस भी साधन से आत्मा की शुद्धि होती है वह धर्म हैं । मंदिर, मस्जिद व उपाश्रय में जाना ही नहीं होती है किसी धार्मिक की पहचान ।इसलिए जरूरी है हम सदाकरते रहें नैतिक आचरण व सदभावना का व्यहारिक अनुष्ठान ।बिना धर्म को जीए धर्म का रूप रहता है अपूर्ण व अधूरा अतः हमें करना होगा साधना व संयम से इसे परिपूर्ण व पूरा ।बहुत बड़ी विडंबना है कि आज हम सबमें से इक्का-दुक्का मुश्किल से ऐसे होंगे जो अपने को सच्चे अर्थों में धार्मिक कह सकें ।
धार्मिक मानने और होने में दिन-रात जितना अंतर है । मोटा खाना,मोटा पहनना यानी एकदम सादगी का जीवन जीना नैतिकता है । आज दूसरों की देखादेखी पहनने ओढ़ने ,जीभ के स्वाद के चलते एक नैतिकता से हम अपना जीवन निर्वाह उस अनुसार नहीं कर पाते। उच्च शिक्षा संस्थानों में पढ़ाना आदि सभी आवश्यकताएं सिर्फ नैतिकता के सहारे नहीं होती और आज सब देखादेखी बहुत हद तक ऐसा हो रहा है। एक एक शादियों के खर्चे शायद ही नैतिकता के आधार पर नहीं पूरे होते। सद्भावना हमारे जीवन का बहुत अनमोल गहना है ।
वो हम सब अपने कषायों को उपशान्त रखते हुए अपना सकते हैं,जागरूकता बरतकर। हम कोशिश करें कि कुछ अंशों में धार्मिक जीवन व्यवहार में जी पाएं। नो हिणे नो अइरीत्ते । है यह आगम वाणी। सफलता पर न फुलें। न अहंकार के भाव लाएं । हम असफलता पर हीन भाव से ग्रसित न बन जाएं। समत्त्व भाव को विकसायें । सफलता तब ही सफल कहलाती जब वह विनम्रता बढ़ाती। कुछ हासिल किया और अहंकार न आये तो बहुत बड़ा आश्चर्य कहलाये। अगली बार वह फिसलता चला जाये। दिया भाग्य ने साथ तो शायद एकाध बार और सफलता पा जाए।
पर निरंतरता नहीं रह पाए। अहंकार है ढंका हुआ कुंआ , पता न चलता ,कब लुढ़क जाएं। विनम्र सरल व्यक्ति ही दिन प्रति दिन सफलता पाए। आगे बढ़ता जाए। अपना लक्ष्य हासिल कर पाए। धर्म का एक प्रमुख एवं महत्वपूर्ण अर्थ आचार है आचार अर्थात सदाचार । श्रेष्ठ गुण जैसे सत्य, अहिंसा, बह्मचर्य, दान, दया, धैर्य, क्षमा, इंद्रियों और मन का संयम, क्रोध न करना, चोरी न करना आदि अनेक गुण हैं । जिनका पालन करना धर्म कहा गया है । मनुष्य जिसे अपने आचरण में लाता है वह धर्म कहा जाता है ।
अतः धर्म के नियमों का पालन करते हुए व्यक्ति मानव जीवन की पूर्ण गरिमा को देवत्व को पा लेता है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष ये जीवन की राह के उद्देश्य हैं ।जब ये सशक्त आधार क़ायम होता है तो लक्ष्य निर्माण में अतुल गहराई और यतार्थता के आकार को समझकर आगे बढ़ाता हैं और इस तरह स्वयंमेव ही हमारे जीवन में सफलता का वरण हो जाता हैं । सत्यम्-शिवम्-सुंदरम् के साथ जीवन की सही राह स्थापित हो जाती है। भगवान को देखो और उनको समझो। उनके द्वारा बताये गये साध्य और साधन को अपनाकर चलो।
यदि ऐसा नहीं करते हो तो स्वयं इस प्रसन्न का उत्तर मिल जाता है। कर्मों से समस्या किसने खड़ी की? जब भगवान का नहीं कहना माना।हिंसा में ही धर्म माना।अपने स्वार्थ के वशीभूत असली आनंद को नहीं जाना। तो खुद अपने पैरों पर कुल्हाडी मारी। फिर पूछ रहे हो चोट किसने मारी? धर्म करके भावना की निर्मलता के अनुसार निष्पत्ति,सिद्धी की प्राप्ति होती हैं। शुभ धर्म की भावना के बिना दान,अर्हतों की अर्चना,तप स्वाध्याय आदि सब निष्फल। प्रार्थना हो या ध्यान बस भाव प्रधान हो जो मोक्ष के साथ योग करा दे ।
जैसा मरुदेवी माता के साथ हुआ। प्रार्थना-ध्यान-एकाग्रता-ज्ञानयोग सब भक्ति की पराकाष्ठा हैं समर्पण का योग हैं। इस धारा मे बहनेवाला भक्त भगवान बन जाता हैं ।और कलुषता घटती जाती हैं । दूध में शक्कर की तरह परमात्मा से एकमेक होने के लिए गुड में मिठास की तरह भक्ति को हमें आत्मसात करने के लिए कहा हैं की भावे भावना भाविये भावे दीज़े दान ।भावे जिनवर पूजिए भावे केवल ज्ञान।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़, राजस्थान)