प्रकृति के विपरीत नहीं हो सकती सुख की रीत
1 min readPRESENTED BY PRADEEP CHHAJER
( BORAVAR,RAJSTHAN)
मनुष्य का जीवन प्रकृति के अनुरूप ही सही से चलता हैं । क्योंकि जन्म , बचपन , युवा , बुढ़ापा , मौत आदि के इस घटनाक्रम के प्रवाह को जो सहजता से स्वीकार कर लेता है,
वह दु:खी कम होता है। इसके विपरीत संसार में पग-पग पर
दुःखी होने की राह है ही । जीवन सुख-दुःख का चक्र है यही जीवन का सत्य है । अनुकूल समय में हमें इस पर विचार करने की आवश्यकता नहीं होती हैं ।
जब कभी हमारे समक्ष विपरीत परिस्थितियाँ आती हैं तो हम कर्तव्य विमूढ़ हो जाते हैं ।ऐसे में स्वजन और मित्रगण संबल बनते हैं । समाधान खोजने में सहायता करते हैं तो राहत मिलती है । दुःख के प्रमुख कारण बाहरी परिस्थितियाँ,आसपास के व्यक्तियों का व्यवहार, महत्वाकांक्षाएँ एवं कामनाएँ आदि हैं । जीवन में आई प्रतिकूल परिस्थितियों एवं समस्याओं के लिए कोई दूसरा व्यक्ति या भाग्य दोषी नहीं है । उसके लिए हम स्वयं ही जिम्मेदार हैं ।
हमारे कर्मों और व्यवहार की वजह से ही परिस्थितियाँ निर्मित होती हैं । हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि सामने वाले व्यक्ति का व्यवहार हमारे व्यवहार को प्रभावित न करें अतः हम अपने स्वभाव के अनुकूल क्रिया करें । हम जीवन से कभी पलायन न करें, जीवन को परिवर्तन दें, क्योंकि पलायन में मनुष्य के दामन पर बुजदिली का धब्बा लगता है।
जबकि परिवर्तन में विकास की संभावनाएं जीवन की सार्थक दिशाएं खोज लेती हैं।तभी तो कहा है कि प्रकृति के विपरीत चाहना दु:ख को निमंत्रित करना हैं।