जीवन की विडंबनाएँ ———-
1 min readहम अक्सर विरोधाभासी भावनाओं के द्वंद से जुझते हैं।हमें समझ में नहीं आता कि हम चाहते क्या हैं। जैसे कोई बच्चा को जब चलनेनहीं आता था तब हर कोई उसे गिरने नहीं देते थे हर कोई उसे दौड़ कर उठा लेते थे । और अब आज जब वह चलना सीख लिया हैं तो उसके व्यवहार के प्रभाव आदि कारणों से उसकी चढ़ती आदि देख जो चलाने में सहयोगी थे वो और दूसरे आदि हर कोई उसे गिराने में लगे है।
आदमी इसी तरह कि सच्चाई में पल रहा है। हम कहते हैं हमारी राजकीय भाषा हिंदी होने चाहिए पर खुद बच्चों को अंग्रेजी स्कूलों में भेजने के लिए तत्पर रहते हैं और इसी में अपनी शान समझते हैं । कहते हैं विदेशी सामान का बहिष्कार करो पर खुद घरों मेंविदेशी सामानों को सजाते हैं। कहते है पहले घर के दरवाजे पर रखवाला रखते थे ताकि घर में कुत्ता न घुस जाए। और आज लोग घर मेंकुत्ता रखते हैं वह घर के बाहर यह तख्ती लगा देने में शान समझते हैं कि कुत्ते से सावधान रहें ।
कई लोग अकेले हैं उन्हें प्यार करने वालाकोई नहीं होता और किन्हें अपनों के होते हुए भी अपनापन नहीं मिलता। ठंड में ठिठुरते हैं कई लोग ,घर नहीं होता ,पर खुश रहते हैं ।कोई बंगले की चारदीवारी में भी खुश नहीं होता। कहते है कि पहले आदमी साइकिल चलाता था और स्वतः ही स्वास्थ्य लाभ पाता था।और आज कार चला कर Gym जाता है I
वह Fees देकर साइकिल का अभ्यास करता है क्योंकि स्वस्थ रहने के लिए उसकी यह विवशता है। इसी तरह छाया सबको चाहिए पर वृक्ष का कोई ध्यान रखना नहीं चाहता हैं । इस तरह की और भी बहुत सी विडंबनाएँ हैंजो हमने जान अनजान में अपना रखी हैं।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़,राजस्थान )