जिप्सम का प्रयोग कर मिट्टी की सेहत में किया जा सकता है सुधार
1 min readअर्जुन सिंह भदौरिया –
असंतुलित रसायनिक उर्वरकों के प्रयोग,अंधाधुंध कीटनाशी और खर पतवार नाशी के प्रयोग ने किया मिट्टी का सत्यानाश
जिप्सम के उपयोग से तिलहनी, दलहनी व अनाज वाली फसलों गेहूं के उत्पादन की गुणवत्ता में बढ़ोतरी के साथ-साथ भूमि की स्वस्थ रहती है। जिप्सम गंधक का सर्वोत्तम व सस्ता स्त्रोत है।प्रदेश सरकार किसानों को अनुदान पर आसानी से उपलब्ध करा रही है।
कृषि वैज्ञानिक डा पवन कुमार वर्मा की माने तो पौधों के लिए नत्रजन, फॉस्फोरस एवं पोटाश के बाद गंधक चौथा प्रमुख पोषक तत्व है। एक अनुमान के अनुसार तिलहनी फसलों के पौधों को फास्फोरस के बराबर मात्रा में गंधक की आवश्यकता होती है।क्षेत्र में कृषकों द्वारा प्रायः गंधक रहित उर्वरक जैसे डी.ए.पी. एवं यूरिया का अधिक उपयोग किया जा रहा है और गंधकयुक्त सिंगल सुपर फॉस्फेट का उपयोग बहुत कम हो रहा है। साथ ही अधिक उपज देने वाली उन्नत किस्मों द्वारा जमीन से गंधक का अधिक उपयोग किया जा रहा है। एक ही खेत में हर वर्ष तिलहनी एवं दलहनी फसलों की खेती करने से खेतों में गंधक की कमी हो जाती है।
गंधक की कमी को दूर करने एवं अच्छी गुणवत्ता का उत्पादन प्राप्त करने के लिए वैज्ञानिक ने जुताई से पहले 250 किलो प्रति हेक्टेयर की दर से खेत में मिलाने की सिफारिश की जाती है।जिप्सम में 13-16 प्रतिशत गंधक तथा 13-19 प्रतिशत कैल्शियम तत्व पाये जाते हैं। क्षारीय भूमि सुधार हेतु मिट्टी परीक्षण रिपोर्ट, की सिफारिश के अनुसार जिप्सम का उपयोग करना चाहिए।
तिलहनी फसलों में जिप्सम के फायदे।
कृषि विशेषज्ञ एवं कृषि विभाग से सेवा निवृत्त राम प्रताप मौर्य बताते हैं कि
क्षेत्र में बोयी जाने वाली रबी की दलहनी,तिलहनी फसलों पर गौर करें तो सरसों, कुसुम आदि तिलहनी फसलों में गंधक के उपयोग से उपज के साथ ही तेल की मात्रा में बढ़ोतरी होती है साथ ही दाने सुडौल एवं चमकीले बनते हैं। जिसके कारण तिलहनी फसलों की पैदावार में 10 से 15 प्रतिशत बढ़ोतरी होती है।
दलहनी फसलों में जिसम के फायदे की बात करें तो दलहनी फसलों में प्रोटीन प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। प्रोटीन के निर्माण के लिये गंधक अति आवश्यक पोषक तत्व है। इससे दलहनी फसलों में दाने सुडौल बनते हैं व पैदावार बढ़ती है। यह पौधों की जड़ों में स्थित राईजोबियम जीवाणु की क्रियाशीलता को बढ़ाता है जिससे पौधे वातावरण में उपस्थित नत्रजन का अधिक से अधिक उपयोग कर सकते हैं।गेहूँ में जिप्सम के प्रयोग की चर्चा करते हुए श्री मौर्य ने बताया कि
खाद्यान्न फसलों में जिप्सम के उपयोग से गन्धक तत्व की आपूर्ति होती है। इससे पौधों की बढ़वार अच्छी होती है। गंधक से दाने मोटे एवं चमकदार बनते हैं। प्रोटीन की मात्रा में बढ़ोतरी होती है। अधिकांश कृषि विशेषज्ञों के अनुसार प्रति हेक्टेयर 250 किलोग्राम जिप्सम का उपयोग करने से गुणवत्तायुक्त उपज में बढ़ोतरी होती है।
ऊसर भूमि सुधार में भी जिप्सम है लाभदायक।
भूमि सुधार निगम में प्रबंधक रहे डा अवधेश कुमार त्रिपाठी बताते हैं कि क्षारीय भूमि को सुधारने हेतु जिस मृदा का पी.एच. मान 8.5 से अधिक तथा विनियमशील सोडियम की मात्रा 15 प्रतिशत से अधिक होती है, वह मृदा क्षारीयता की समस्या से ग्रसित होती है। इस प्रकार की मृदा सूखने पर सीमेन्ट की तरह कठोर हो जाती है एवं इसमें दरारें पड़ जाती हैं।क्षारीय मिट्टी में पौधों के समस्त पोषक तत्वों की उपस्थिति के बावजूद अच्छी उपज प्राप्त नहीं होती है। ऐसी मिट्टी को सुधारने की आवश्यकता होती है, ताकि उसमें पैदावार ली जा सके। इस प्रकार की मिट्टी को भूमि सुधारक रसायन जिसमें जिप्सम प्रमुख है, डालकर सुधारा जा सकता है। जिप्सम के उपयोग से मिट्टी की भौतिक दशा सुधर जाती है तथा इसके रासायनिक व जैविक गुणों में सुधार आ जाता है। जिप्सम के उपयोग से मिट्टी में घुलनशील कैल्शियम की मात्रा बढ़ती है जो कि क्षारीय गुणों के लिए जिम्मेदार अधिशोषित सोडियम को घोल कर तथा मिट्टी के कर्णो से हटा अपना स्थान बना लेता है। भूमि का पी. एच. मान कम कर देता है। क्षारीय भूमि में जिप्सम उपयोग करने से पी.एच. मान में कमी के कारण भूमि में आवश्यक पोषक तत्वों की उपलब्धता बढ़ जाती है। भूमि सुधारने हेतु जिप्सम की आवश्यकता मात्रा मृदा परीक्षण रिपोर्ट के अनुसार काम में ली जाती है। साधारणतः भूमि सुधारने हेतु जिप्सम की 3 से 5 मैट्रिक टन मात्रा पति हैक्टर की दर से काम में ली जाती है। भूमि सुधारक के रूप में जिप्सम का उपयोग करने के लिए निर्धारित मात्रा को मानसून की वर्षा से पहले खेत में बिखेर कर जुताई करके अच्छी तरह से 10 से 15 सेन्टीमीटर मिट्टी की ऊपरी सतह में मिला देना चाहिए तथा खेत में डोलियां बनाकर बड़ी-बड़ी क्यारियां बना देनी चाहिये, ताकि वर्षा का पानी बहकर खेत से बाहर नहीं जा सके।
खेत में जिप्सम उपयोग के बाद में मानसून की एक या दो अच्छी वर्षा होने के बाद खेत में हरी खाद हेतु ढेचा फसल की ‘बुवाई कर देनी चाहिये। ढैंचा की बुवाई हेतु 60 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर की दर से बुवाई कर देते हैं। ढैंचा की बुवाई के 45 से 50 दिन बाद या फूल आने से पहले मिट्टी पलटने कल से चलाकर ढैंचा को मिट्टी में 15 से 20 सेंटीमीटर की गहराई तक मिला देना चाहिये। इससे प्रति हेक्टेयर 20 से 25 टन का उत्पादन होता है साथ ही मिट्टी का पीएच मान कम होने से क्षारीयता की समस्या से निजात मिलती है।जिप्सम में गन्धक पाया जाता है जिसके कारण जिन फसलों में जिप्सम का उपयोग किया जाता है उनमें पाले से नुकसान होने की संभावना कम रहती है।