दिन तो बीतते जाते हैं…..
1 min read

जन्म हुआ की बचपन आया , किशोरावस्था आयी , जवानी आयी फिर अन्त में बुढ़ापा आया और समयानुसार जिन्दगी पूरी हुई। जरुरी नहीं है की बुढ़ापा हमारे जीवन आये उससे पहले भी
हम अगले भव जा सकते है । हम देखते है की इस सतत गतिमान
जीवन की अवधि में हमने जिस उद्देश्य से जन्म लिया उसकी
उसकी सुध-बुध कहाँ ली है ।
साधु , श्रावक त्याग , सम्यक्त्व आदि वाला , सिर्फ सम्यक्तव वाला भी सामान्य देवगति नहीं वह उच्ची वैमानिक देवगति में वह उत्पन्न होगा । सरल भद्र बिना ईर्ष्या आदि वाला बिना धर्म किए अपनी प्रकृति से मनुष्य में वापिस आ सकता है ।झूट , कपट व बात को झूट से बोल व ढकने वाला आदि आदमी तिर्यंच पशु आदि की गति का आयुष्य बाँध लेता है । एक आदमी निष्ठुर , हिंसा वाला , महापरिग्रह , माँस , मारने वाला प्राणियो को , महाआसक्ति वाला आदमी आदि मरकर के नरक गति का आयुष्य बाँध लेता है ।
असाथ्ना नहीं हो तो भगवान महावीर का जीव त्रिपिष्ठ वासुदेव बन गये थे व हिंसा आदि के कारण नरक का आयुष्य बाँध लिया । कर्मवाद में पक्षपात नहीं है तीर्थंकर बनने वाले है आदि – आदि इनको भी कोई छूट मिलनी चाहिए । खराब बन्ध 7 वी नरक का लम्बा अधिकतम आयुष्य इन्होंने बाँध लिया ।उस स्थिति में जाकर के भगवान महावीर की आत्मा पैदा हो गयी ।किसी को छूट नहीं है । हिंसा आदि के परिणाम है की आदमी नरक गति का आयुष्य बाँध लेता है । जीव आयुष्य सहित आगे जाता है । मोक्ष न मिला तब तक आयुष्य बन्धन होता रहता है परन्तु आदमी यह ध्यान दे की कम से कम खराब गति में न जाना पड़े । दुर्गति नरक व तिर्यंच में तो नहीं जाना पड़े । इसके लिये अपेक्षा है गलत से बचने का प्रयास करे ।
हर अवस्था में अवस्थानुसार समझ , नासमझ व ज़िम्मेदारियाँ आदि तो रहेंगी ही । अत: हम समझ पकड़ने के बाद दैनिक समय सारणी में एक निश्चित अवधि तक आध्यात्मिक चर्या में सतत वृद्धि कर तो रहे सुरक्षित ।इससे सही में हो सकती है हमारी जीवन लक्ष्य की ओर प्रस्थान गति में अनवरत प्रगति ।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़, राजस्थान )