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आध्यात्म का सार…..

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आदर्शों का आभूषण मात्र बनने से हमारा जीवन आदर्श कभी नहीं होता है । आदर्श आचरण के रूप में घटित हों तो आदर्श जीवन का निश्चित है। दुनिया के सारे सुख-वैभव-ऐश्वर्य फीके यदि मन में शांति नही है । मन को साधना बहुत – बहुत ज़रूरी है जिससे अपनी असीमित इच्छाओं पर अंकुश लगे । मन की लोभी तृष्णा का कोई अंत नहीं होता।जैसे-जैसे सोचा हुआ हाशिल होता है वैसे-वैसे और नयी चाहत बढ़ने लगती है।जिसका जीवन में कभी अंत ही नहीं होता। जीवन की इस आपा-धापी में जीवन के स्वर्णिम दिन कब बीत जाते हैं उसका हम्हें भान भी नहीं रहता।

आगे जीवन में कभी सपने अधूरे रह गये तो किसी के मुँह से यही निकलता है कि कास अमुक काम मैं अमुक समय कर लेता।उनके लिये बस बचता है तो किसी के कास तो किसी के जीवन में अगर। तृष्णा तो विश्व विजेता सिकंदर की कभी पूरी नहीं हुयी और जब विदा हुआ तो ख़ाली हाथ। अनन्त -अगाध इच्छाओं पर नहीं लगा विराम तो दुष्कर है छूना जीवन का असली मुकाम ।इसलिये कर्म ज़रूर करो और जो कुछ प्राप्त हुआ उसमें संतोष करना सीखो।जीवन की इस भागम-भाग में आख़िरी साँस कौन सी होगी वो कोई नहीं जानता।

जिसने जीवन में संतोष करना सीख लिया उसका जीवन आनंदमय बन गया। हमारे मन की शांति को जिन चीजों से खतरा है हमें उन चीजों से भी बचकर रहना चाहिए । इच्छाएं एक जाल है जिसमें आदमी फंसता ही जाता है । इच्छाएं एक भ्रम जाल है जिसमें आदमी घंसता ही जाता है। इच्छाओं का कभी कोई अंत नहीं होता है । इच्छाओं के आंगन में कभी कोई बसंत नहीं होता है ।इच्छाएं अशांति का एक घर है । जिसकी दौड़ में आदमी भटकता रहता दर दर है ।इसके विपरीत इच्छाओं का सीमाकरण ही सुख और शांति का दाता है । यही तो हमारी जीवन बगिया में सरस आंनद का निर्माता है ।है वहॉं शान्ति एवं सन्तोष चहुँ ओर।

प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़,राजस्थान )

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