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बेटा-बेटी की शादी…बाप रे बाप, है मुश्किल काम

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शादी आज का सबसे कठिन कार्य हो चुका है।यदि यह समय से हो जाए तो समझ लेना चाहिए कि गंगा में जौ बो दिए हैं। बाप रे बाप इतनी बड़ी कठिन अग्नि परीक्षा तो शायद 3 दशक पहले नहीं देनी पड़ी थी। वर देखने वाले आए 2 बार में रिश्ते पक्के कर दिए जाते थे I ऐसा क्यों होता था यह भी जान लिया जाय पहले के लोग (पिता-दादा) बर्द और मर्द होते थे। उन्हें अपने मूँछों की शान होती थी।किन्तु आज के लोग (पिता)उसे गायब कर चुके हैं। यानी ताकत,बल, मूँछ ही गायब है।

अपनी विरासत भूल गए ,अपने संस्कार भूल गए,अपने त्योहार भूल गए,अपनी पहचान भूल गए,अपने दान आदि कर्म भूल गए,अपने गांवों को भूल गए,अपनी तपनी-तपता को भूल गए,अपनी मिट्टी की खुशबू को भूल गए और कहा जाए तो पत्नी,बेटा, बेटी के चक्कर में पूर्वज को ही भूल गए।आज इस शहरी बाबू को गांव के लोग ही नहीं जान पाएंगे। 10 गांवों की बात तो टेढ़ी खीर बन चुकी है। मेरा जहाँ तक मानना है कि आज शादी से सम्बंधित जो फैसला लेना है उसमें इन सबकी हिस्सेदारी बन गयी है। पति,पत्नी,बेटा- बेटी ,अब दादा-दादी, मामा-मामी, मौसा-मौसी,बहन- बहनोई इत्यादि लोग बायोडाटा में शादी में छपने वाले कार्ड की तरह हो गये हैं।

सभी लोगों को दरकिनार कर दिया गया है। केवल जो आप चाहते हैं उस कार्य के प्रति सचेत हो प्रयास करें I कल के ऊपर छोड़े गये कार्य कभी अपना लक्ष्य प्राप्त नही कर पाते सदैव स्वयं पर विश्वास रखना जरूरी है। आपसे ज्यादा आप पर कोई विश्वास नही रखता स्वयं को पहचाने और अपना लक्ष्य बना उसे प्राप्त करने के लिए दृढ़ता से प्रयास करें।किसी भी परिस्थिति से डरकर हतोत्साहित न हों। प्रयास करे क्योंकि यही वो पीढ़ी है जो आपको सफलता तक अवश्य पहुंचाएगी आप बहुत बड़े हो जाएंगे।अम्बानी और अडानी बनने में देर नहीं लगेगी। आज नकल की सीढ़ी तैयार है।

हमने शादी को संघर्ष बना दिया है।सदैव स्मरण रखे की संपूर्ण यहाँ कोई नहीं जो आपके पास है वह किसी और के पास नही अथवा जो अन्य के पास है वो आपके पास नही ।किन्तु यदि आप अपने आप को ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना स्वीकारते हैं तो आप निश्चिंत ही वो इतिहास बनाने समर्थ है जिसमे जाने मे कितने दिब्य लोग आये कितने गये ए धरा अनवरत अपनी धुरी पर अग्रसर रहती है किसी विशेष के लिए भी रूकती नहीं कर्तव्य पथ पर अपनी आकांक्षाओं के लक्ष्य पूर्ति के लिए डटे रहे। पथ भ्रष्ट न हों। बस कुछ मात्र नि:स्वार्थ बस बच्चों को यज्ञ वेदी पर न चढ़ाएं। सामंजस्य के आलिंगन मे तपकर मन रूपी अग्नि से बाहर अपने व्यक्तित्व को कुंदन बनाना ही असल जीवन की अनुभूति है।

जगदीश सिंह -अम्बेडकरनगर (उत्तरप्रदेश)

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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