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Ustad Bismillah Khan (21March ) : बनारस, बिस्मिल्लाह और शहनाई : एक अविस्मरणीय गाथा

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PRESENTED BY SAVITA ANAND

उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ सुरों के ऐसे देवता थे जिनकी सादगी के सामने हर सम्मान ने सर झुकाया। उनकी पारंपरिक सोच हर सम्मान व पुरस्कार से थोड़ा और झुक जाने को प्रेरित करती है। अपनी सादगी विनम्रता और ईमानदारी के वे बेमिसाल उदाहरण थे।

खाँ साहब हमेशा कहते थे, “सुर भी कभी हिंदू या मुसलमान हुआ है? सुर तो सुर है।” उनके लिए संगीत और शहनाई कोई साधारण कला नहीं, बल्कि इबादत थी। आज की युवा पीढ़ी को उनकी संगीत साधना से बहुत कुछ सीखने की आवश्यकता है।

उस्ताद की जयंती पर हम बात करेंगे शहनाई की उस विरासत की जिसे बेनिया बाग़ की उस इमारत ने संजो कर रखा है जिसपर भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ साहब का नाम दर्ज है। जी हाँ उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ का वही पुश्तैनी मकान जिसमें कभी उस्ताद रहमत खाँ साहब रहा करते थे।

लगभग 200 साल पुरानी इस इमारत की बूढ़ी कांपती दीवारों ने अपने अंदर सैकड़ों किस्से कहानियों को समाहित किया है।इसके हर एक स्पर्श में अभी भी कंपन है शहनाई की उस गूंज का जिसे कभी बाल बिस्मिल्लाह ने छेड़ा तो कभी भारत रत्न बिस्मिल्लाह ने।

इसकी भीतरी सफेद रंग की दीवारों पर शहर की मशहूर हस्तियों की तस्वीरें इसके खूबसूरत सफ़र को बयां ही नहीं करती बल्कि इसके होने का वजूद भी पेश करती हैं। प्रवेशद्वार से सटे अपने छोटे से कमरे में उस्ताद हर रोज़ अपने दोस्तों और परिजनों के साथ शाम की नमाज़ के बाद बैठकी लगाया करते थे और जीवन के हल्के फुल्के पलों को जिया करते थे। इसी बैठकी में अपने साथियों के साथ वह घंटों होने वाली चर्चा में शामिल रहा करते थे।

इस इमारत ने उनकी बेग़म की उस आवाज़ को भी सुना जब ऊपर रसोईघर के वह चाय बनाकर भेजती थी और उस्ताद अपने हुक्के का आनंद लिया करते थे। ऊपरी मंजिल के छोटे से कमरे में उस्ताद ने अपना पूरा जीवन जीया जिसमें सिर्फ एक चारपाई, कुर्सी, छड़ी, छाता, पानी का घड़ा, एक टेबलफैन था।

इसी कमरे में उस्ताद से मिलने हज़ारों लोग आते उनसे बतियाते उनके सादेपन से प्रभावित होते और कुछ कर गुजरने का वादा करके चले जाते पर फ़िर लौट कर न आते। इस इमारत ने वह दौर भी देखा जब दुनिया भर में उस्ताद कामयाबी का परचम लहरा रहे थे, जब अमेरिका में बसने का उन्हें न्यौता आया था और जब बनारस और बिस्मिल्लाह एक हो गए थे।

आज उस्ताद नहीं हैं लेकिन उनका एहसास इसके कण कण में समाहित है। आज देश के लिए उस्ताद भले यादों में ही शामिल दिखते हैं लेकिन यह इमारत अपने अंदर एक इतिहास एक विरासत समेटे है।

एक शिया मुसलमान, जो सुरों की देवी माँ सरस्वती के अनन्य उपासक थे, गंगा स्नान के बाद नमाज़ पढ़ते और फिर काशी विश्वनाथ मंदिर जाकर रियाज़ करते—यह अपने आप में भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति की अद्वितीय मिसाल है। जब भी देश की साझी सांस्कृतिक धरोहर की बात होगी, उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ का नाम लिया जाएगा।

जब भी शहनाई की बात होगी, उस्ताद की छवि उभर आएगी। जब भी बनारस का ज़िक्र होगा, उस्ताद सर्वोपरि होंगे। और जब भी माँ गंगा की धारा बहेगी, उसमें उस्ताद की आत्मा समाहित होगी।

उस्ताद पर बहुत कुछ लिखा पढ़ा जा चुका है लेकिन अब समय है उनकी विरासत को संजोने का। क्योंकि कुछ विरासतें अनमोल होती है और यही अतीत के पन्नों में कहीं पुस्तकों, कहीं इमारतों तो कहीं किस्से कहानियों में कैद हो जाती है। वक्त के साथ धूमिल होती इन यादों को आने वाली पीढ़ियों के लिए संजोना ही वर्तमान पीढ़ी का दायित्व होता है।

उस्ताद की विरासत भी मानवता की सच्ची परिभाषा गढ़ती है। इस धरोहर को जीवंत कर हम नई चेतना का सृजन कर सकते हैं। कहीं ऐसा न हो कि शहनाई की यह धरोहर उपेक्षा की शिकार होकर इतिहास में ही खो जाए।

Writer : Founder -Virasat-e-Bismillah

 

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