WORLD POPULATION DAY : प्रभावी जनसंख्या नीति की दरकार
1 min readPRESENTED BY ARVIND JAYTILAK
आज विश्व जनसंख्या दिवस है। आज की तारीख में भारत चीन को पछाड़कर दुनिया का सर्वाधिक आबादी वाला देश बन गया है। चीन की आबादी 142.57 करोड़ है जबकि भारत की आबादी 142.86 करोड़ के पार पहुंच गई है। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (यूएनएफपीए) के आंकड़ों के मुताबिक चीन के मुकाबले अब भारत की जनसंख्या अधिक हैं। यह पहली बार है जब भारत जनसंख्या सूची में शीर्ष पायदान पर है। इस रिपोर्ट के मुताबिक देश के राज्य केरल और पंजाब में बुजुर्गों की संख्या अधिक है वहीं बिहार और उत्तर प्रदेश में युवा आबादी सर्वाधिक है। रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि भारत की आबादी आने वाले तीन दशकों तक बढ़ती रहेगी और उसके बाद घटनी शुरु होगी। यानि 2050 तक भारत की आबादी 166 करोड़ के पार पहुंच सकता है। उधर, चीन की आबादी घटकर 131.7 करोड़ रह जाएगी।
संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष की रिपोर्ट के मुताबिक जब दुनिया भर में जनसंख्या बढ़ने की गति धीमी पड़ रही है वहीं भारत में साल भर में आबादी 1.56 फीसद बढ़ी है। भारत में जनसंख्या वृद्धि इसलिए है कि नवजात, शिशु और बाल मृत्यु दर में गिरावट आयी है। एक आंकड़े के मुताबिक 2012 में एक वर्ष के कम उम्र के बच्चों की मौत की दर 42 प्रति हजार थी जो 2020 में घटकर 28 प्रति हजार रह गयी है। इसी तरह पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मौत की दर 52 से घटकर 32 रह गयी है। यह रेखांकित करता है कि भारत में स्वास्थ्य सेवाएं बेहतर हुई हैं। लेकिन बढ़ती आबादी के मुताबिक अर्थव्यवस्था को आकार देना बेहद जरुरी है। इस जनसंख्या वृद्धि का सकारात्मक पहलू यह है कि भारत दुनिया की सर्वाधिक युवा आबादी वाला देश बन चुका है लेकिन एक सच यह भी है कि बढ़ती जनसंख्या के सापेक्ष संसाधनों की कमी और सामाजिक-आर्थिक चुनौतियां बढ़ेगी। इसलिए कि अनुकूलतम जनसंख्या के बिना विकास के अपेक्षित लक्ष्य को हासिल नहीं किया जा सकता।
सच तो यह है कि विगत पांच दशकों में जनसंख्या में निरंतर तीव्र वृद्धि के कारण जनसंख्या विस्फोट की स्थिति उत्पन हो गयी है। विशेषज्ञों की मानें तो जनसंख्या की यह तीव्र वृद्धि आर्थिक विकास के मार्ग को अवरुद्ध कर रहा है और कई तरह की समस्याएं पैदा हो रही है। भारत में जनसंख्या में तीव्र वृद्धि के कारण बेरोजगारी, खाद्य समस्या, कुपोषण, प्रति व्यक्ति निम्न आय, निर्धनता में वृद्धि, मकानों की समस्याएं, कीमतों में वृद्धि, कृषि विकास में बाधा, बचत तथा पूंजी निर्माण में कमी, जनोपयोगी सेवाओं पर अधिक व्यय, अपराधों में वृद्धि तथा शहरी समस्याओं में वृद्धि जैसी ढे़र सारी समस्याएं उत्पन हुई हैं। इनमें सबसे बड़ी समस्या बेरोजगारी की है।
देश में पूंजीगत साधनों की कमी के कारण रोजगार मिलने में कठिनाई उत्पन हो रही है। आंकड़ों के मुताबिक मौजूदा समय में बेरोजगारी की दर चिंताजनक है।यह हालात तब है जब देश में बेरोजगारी से निपटने के लिए ढे़र सारे कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। इनमें राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम, समन्वित विकास कार्यक्रम, जवाहर रोजगार योजना, स्वर्ण जयन्ती ग्राम स्वरोजगार योजना, संपूर्ण ग्रामीण रोजगार योजना राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना (मनरेगा) सर्वाधिक रुप से महत्वपूर्ण हैं। सीआईआई की इंडिया स्किल रिपोर्ट बताती है कि भारत में हर साल तकरीबन सवा करोड़ शिक्षित युवा तैयार होते हैं। ये नौजवान रोजगार के लिए सरकारी और प्राइवेट क्षेत्र में अपनी किस्मत आजमाते हैं।
लेकिन सिर्फ 37 फीसद ही कामयाब हो पाते हैं। गौर करें तो रोजगार न मिलने के दो कारण हैं। एक, यह कि सरकारी क्षेत्र में नौकरियां लगातार सिकुड़ रही हैं वहीं दूसरी ओर प्राइवेट क्षेत्र में उन्हीं लोगों को रोजगार मिल रहा है जिन्हें कारोबारी प्रशिक्षण हासिल है। सबसे अधिक बेरोजगारी ग्रामीण क्षेत्रों में है। लेकिन अगर गांव के पढ़े-लिखे नौजवानों को बागवानी, पशुपालन, वृक्षारोपण, कृषि यंत्रों की मरम्मत के संबंध में आधुनिक तकनीकी प्रशिक्षण दिया जाए तो बेरोजगारी से निपटने में मदद मिलेगी। तीव्र जनसंख्या वृद्धि के कारण प्रति व्यक्ति खाद्यान्न की उपलब्धता कम पड़ रही है जिससे लोगों का स्वास्थ्य प्रभावित हो रहा है और उनकी कार्यकुशलता घट रही है। तीव्र जनसंख्या वृद्धि के कारण कुपोषण की समस्या भी लगातार सघन हो रही है।
यूनाइटेड नेशन के फुड एग्रीकल्चर आर्गेनाइजेशन की रिपोर्ट से उद्घाटित हो चुका है कि भारत में पिछले एक दशक में भूखमरी की समस्या से जुझने वालों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है। इफको की रिपोर्ट में भी कहा जा चुका है कि कुपोषण की वजह से देश के लोगों का शरीर कई तरह की बीमारियों का घर बनता जा रहा है। गौर करें तो कुपोषण वास्तव में घरेलू खाद्य असुरक्षा का सीधा परिणाम है। लोगों तक खाद्य की पहुंच सुनिश्चित करके ही कुपोषण को मिटाया जा सकता है। भारत में कुपोषण का सर्वाधिक संकट महिलाओं को झेलना पड़ रहा है। हर वर्ष लाखों गर्भवती महिलाएं उचित पोषण के अभाव में दम तोड़ रही हैं। दक्षिण एशिया में भारत कुपोषण के मामले में सबसे बुरी स्थिति में है।
गत वर्ष पहले एसीएफ की रिपोर्ट से उद्घाटित हुआ था कि भारत में कुपोषण जितनी बडी समस्या है वैसे पूरे दक्षिण एशिया में और कहीं देखने को नहीं मिलता। यह दर्शाता है कि आर्थिक नियोजन के साढ़े छः दशक वर्ष पूर्ण होने के बाद भी भारतीय अर्थव्यवस्था किस तरह निर्धनता के दुष्कचक्र में फंसी हुई है। तीव्र जनसंख्या वृद्धि के कारण भारत में मकानों की समस्या भी लगातार गहरा रही है। आजादी के सात दशक बाद भी आज देश में करोड़ों लोग ऐसे हैं जो सुविधाहीन झुग्गी-झोपड़ियों में जीवन गुजारने को विवश हैं। गौर करें तो 2011 की जनगणना के अनुसार देश के ग्रामीण इलाकों में बेघरों की संख्या तीन करोड़ के आसपास है। कुछ ऐसा ही हाल शहरों का भी है।
गत वर्ष पहले अर्थव्यवस्था और वातावरण पर आधारित केंद्रित वैश्विक आयोग की रिपोर्ट में कहा गया था कि वर्ष 2031 तक भारत की शहरी आबादी 60 करोड़ हो जाएगी। मतलब साफ है कि जनसंख्या वृद्धि पर रोक नहीं लगा तो आवासों की समस्या और गहराएगी। जनसंख्या में तीव्र वृद्धि का कृषि पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। परिवार के सदस्यों में वृद्धि से भूमि का उप-विभाजन और विखंडन बढ़ता जा रहा है। इससे खेतों का आकार छोटा तथा अनार्थिक होता जा रहा है। इसका कुपरिणाम यह है कि देश में भूमिहीन किसानों की संख्या बढ़ रही है। साथ ही कृषि में छिपी हुई बेरोजगारी भी बढ़ रही है। जनसंख्या में तीव्र वृद्धि से बचत तथा पूंजी निर्माण में भी कमी आ रही है। भारत की जनसंख्या में 36 फीसद बच्चे हैं। नतीजा कमाने वाले लोगों को अपनी आय का एक बड़ा हिस्सा बच्चों के पालन-पोषण पर खर्च करना पड़ रहा है। इससे बचत घट रही है और पूंजी निर्माण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।
पूंजी की कमी के कारण विकास योजनाओं को पूर्ण करने में कठिनाई उत्पन हो रही है। जनसंख्या में तीव्र वृद्धि के कारण सरकार को बिजली, परिवहन, चिकित्सा, जल-आपूर्ति, भवन निर्माण इत्यादि जनोपयोगी सेवाओं पर अधिक व्यय करना पड़ रहा है जिससे अन्य क्षेत्र प्रभावित हो रहे हैं। दो राय नहीं कि राष्ट्र के विकास में जनसंख्या की महती भूमिका भी है। विश्व के सभी संसाधनों में सर्वाधिक शक्तिशाली तथा सर्वप्रमुख संसाधन मानव संसाधन ही है। लेकिन अतिशय जनसंख्या किसी भी राष्ट्र की सेहत के लिए ठीक नहीं है।
ऐसे में जरुरी हो जाता है कि भारत जनसंख्या की तीव्र वृद्धि को रोकने के लिए नई जनसंख्या नीति को आकार दे। इस पर गहनता से विचार करे कि आखिर भारत के लिए अनुकूलतम जनसंख्या क्या हो? इसलिए कि अभी तक जितनी भी राष्ट्रीय जनसंख्या नीति बनी है उसका सकारात्मक परिणाम देखने को नहीं मिला। 1976 की राष्ट्रीय जनसंख्या नीति के तहत जन्म दर तथा जनसंख्या वृद्धि में कमी लाना, विवाह की न्यूनतम आयु में वृद्धि करना, परिवार नियोजन को प्रोत्साहित करना तथा स्त्री शिक्षा पर विशेष जोर देना इत्यादि का लक्ष्य रखा गया था। कमोवेश इसी तरह का उद्देश्य और लक्ष्य वर्ष 2000 की नई राष्ट्रीय नीति में भी रखा गया। लेकिन जिस गति से आबादी में इजाफा हो रहा है वह बेहद चिंताजनक है।