संसद चलाना सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों की जिम्मेदारी
1 min readPRESENTED BY ARVIND JAYTILAK
भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले एनडीए के उम्मीदवार ओम बिरला कांग्रेस के कोडिकुन्नील सुरेश को हराकर एक बार फिर से लोकसभा अध्यक्ष पद के लिए चुन लिए गए हैं। ध्वनिमत के जरिए ही ओम बिरला को चुन लिया गया और विपक्ष ने मत विभाजन की मांग नहीं की। देश की नई संसद में ओम बिरला का स्वागत करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने उन्हे आसन पर आसीन कराकर सदन की परंपरा और गरिमा को चरितार्थ किया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने संबोधन में ओम बिरला को बतौर सांसद एवं 17 वीं लोकसभा के अध्यक्ष के रुप में किए गए उनके कार्यों की जमकर सराहना की और कहा कि उनका अनुभव काम आएगा।
उल्लेखनीय है कि ओम बिरला को दूसरी बार लोकसभा अध्यक्ष चुना गया है। 17 वीं लोकसभा में बतौर अध्यक्ष उनकी भूमिका बेहद सारगर्भित रही। नवनियुक्त लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला को नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी समेत सभी दलों के नेताओं ने भरपूप बधाई के साथ विपक्ष को बराबर मौका दिए जाने की मांग की। बहरहाल जिस तरह पहले दिन लोकसभा का माहौल सहज दिखा है उससे उम्मीद किया जाना चाहिए कि सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों ही अपनी जवाबदेही और जिम्मेदारी का भलीभांति निर्वहन करेंगे। समझना होगा कि संसद को चलाना सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों की जिम्मेदारी होती है।
बेशक विपक्ष का उत्तरदायित्व है कि वह जनता व जनहित से जुड़े मुद्दे पर सरकार से सवाल पूछे। सरकार की कड़ी घेराबंदी करे। लेकिन यह तभी संभव होगा जब सदन की कार्यवाही ठीक तरीके से चलेगी। जब सदन ही हंगामे की भेंट चढ़ जाएगा तो फिर विपक्षी दलों की आवाज को कौन सुनेगा? इस तथ्य से कोई भी असहमत नहीं कि देश विविधताओं से भरा हुआ है। राष्ट्रीय दृष्टिकोण के साथ क्षेत्रीय भावनाओं और मुद्दों की अनदेखी नहीं होनी चाहिए। उस पर विमर्श को आगे बढ़ाना और जनआकांक्षाओं के निष्कर्ष तक ले जाना सत्ता और विपक्ष दोनों की जिम्मेदारी होती है। लेकिन जनआकांक्षाओं की पूर्ति तब होगी जब सदन व्यवस्थित रुप से चलेगा। जब विपक्ष के तार्किक सवालों का सत्ता पक्ष द्वारा तार्किकता से जवाब दिया जाएगा।
लेकिन 17 वीं लोकसभा में ऐसा होता नहीं दिखा। संसद का ज्यादतर समय हंगामे की भेंट ही चढता़ रहा। सदन के सदस्यों को याद रखना होगा कि 13 मई 1952 को जब संसद की पहली बैठक संपन्न हुई तब देश के पहले राष्ट्रपति डा0 राजेंद्र प्रसाद ने कहा था कि संसद जनभावनाओं की अपेक्षा की सर्वोच्च पंचायत है। प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु ने संसदीय लोकतंत्र को जवाबदेही से जोड़ते हुए संदेश दिया कि भारत की सेवा का अर्थ लाखों-करोड़ों पीड़ित लोगों की सेवा करना है। लोकसभा के पहले अध्यक्ष गणेश वासुदेव मावलंकर ने जनता और जनप्रतिनिधियों को आगाह करते हुए कहा था कि सच्चे लोकतंत्र के लिए व्यक्ति को केवल संविधान के उपबंधों अथवा विधानमंडल में कार्य संचालन हेतु बनाए गए नियमों और विनियमों के अनुपालन तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए बल्कि विधानमंडल के सदस्यों में लोकतंत्र की सच्ची भावना भी विकसित होनी चाहिए।
सवाल लाजिमी है कि क्या मौजूदा निर्वाचित जनप्रतिनिधि डा0 राजेंद्र प्रसाद, पंडित नेहरु और मावलंकर की अपेक्षाओं की कसौटी पर खरा उतरेंगे। राजनीतिक दलों विशेषकर जनता के प्रतिनिधियों को इन सवालों को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। दो राय नहीं कि इन दशकों में संसद ने ढे़र सारे उतार-चढ़ाव देखे और अपनी सर्वोच्चता बनाए रखी। देश भी संसदीय लोकतंत्र पर अपना विश्वास बनाए हुए है। आज भी लोगों की निष्ठा व आस्था संसद के प्रति बनी हुई है। बहुलतावादी भारतीय समाज में व्याप्त असमानताओं के बावजूद भी संसद में समाज के सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व बढ़ा है और आवाज मुखर हुई है। संसद ने इन दशकों में ढे़र सारे ऐसे निर्णय लिए हैं जो सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक सरोकारों के लिए मील का पत्थर साबित हुआ है।
सामाजिक मोर्चे पर संसद के कार्यों का मूल्यांकन करें तो निःसंदेह उपलब्धियां स्वागतयोग्य है। मसलन संसद में महिलाओं को आरक्षण, दहेज प्रथा और अस्पृश्यता उन्मूलन जैसी सामाजिक बुराइयों पर रोकथाम लगाकर संसद ने अपने मानवीय दृष्टिकोण को चरितार्थ किया है। भूमि सुधार और श्रम कानून के माध्यम से वह भूमिहीनों और कामगारों को आर्थिक संबल प्रदान किया है। संसद ने ऐतिहासिक फैसला लेते हुए स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए आरक्षण का द्वारा खोला है। मनरेगा कार्यक्रम चलाकर रोजगार क्रांति की शुभारंभ की। संसद ने घरेलू हिंसा पर रोक का कानून बनाकर बच्चों और महिलाओं की रक्षा की। सूचना और शिक्षा के अधिकार कानून से समाज को लैस किया।
फिर भी इस दिशा में संसद द्वारा अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। यह तभी संभव होगा जब जनता के प्रतिनिधि संसद की गरिमा का पालन करते हुए जवाबदेही का आचरण पेश करेंगे। उन्हें समझना होगा कि हजारों कानून बनने के बाद भी देश की जमीनी सूरत नहीं बदली है। संसद की भूमिका का विस्तार किया जाना जरुरी है। यह तभी संभव होगा जब देश की सर्वोच्च पंचायत में गरीबों, मजदूरों, किसानों और आधी आबादी की भागीदारी बढ़ेगी। आज संसद के स्वरुप, कार्यप्रणाली, प्राथमिकता और उसकी सोच में बदलाव की जरुरत है। देश को जवाबदेह, अनुशासित और कामकाजी संसद चाहिए। अगर देश के पहली संसद से मौजूद सांसद की तुलना करें तो पहली संसद ज्यादा प्रभावी और कामकाजी रही।
पहली लोकसभा के पहले साल यानी 1952 में कुल 103 और राज्यसभा की 60 बैठकें हुई। समझा जा सकता है कि संसद कितना अनुशासित और जवाबदेह थी। तब संसद में बहस को लोकतंत्र का पवित्र कार्य समझा जाता था। आज स्थिति उलट है। आए दिन संसद स्थगित होती है और हंगामा खड़ा होता है। बहस को लेकर संसद सदस्य कितने गंभीर हैं इसी से समझा जा सकता है कि वे सार्थक बहस के बजाए एकदूसरे की कमियां गिनाते हैं। यह स्थिति निराशाजनक है। दुखद स्थिति यह है कि संसद जिसे विशेषकर कानून बनाने वाली संस्था के रुप में जाना जाता है उसकी अभिरुचि आज कानून निर्माण के बजाए सियासी मसलों को लेकर है। एक आंकड़े के मुताबिक पहली लोकसभा में तकरीबन 49 फीसदी समय कानून निर्माण पर खर्च होता था।
आज यह दर 13 फीसदी रह गया है। यही नहीं संसद में व्यक्तिगत शालीनता और भाषा की मर्यादा भी टुट रही है। अक्सर संसद के माननीय सदस्य उपदेश बघारते हैं कि संसद सर्वोपरि है और उसके मान-सम्मान की रक्षा होनी चाहिए। निःसंदेह इस उपदेश से किसी को ऐतराज नहीं। लेकिन क्या यह सच नहीं है कि माननीयगण ही संसद की मर्यादा की धज्जियां उड़ा रहे हैं? एक सभ्य लोकतांत्रिक देश के निर्वाचित जनप्रतिनिधियों से इस तरह के आचरण की उम्मीद नहीं की जा सकती। 2019 में स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राज्यसभा के 250 वें सत्र को संबोधित करते हुए कहा था कि विरोध और अवरोध के बीच भेद किया जाना आवश्यक है। तब प्रधानमंत्री मोदी ने संसद सदस्यों के समझ कई ऐसी महत्वपूर्ण बातें कही जो संसदीय मर्यादा के लिए बेहद आवश्यक है।
250 वें सत्र के पहले दिन राज्यसभा के सभापति एम वेकैया नायडु ने सदस्यों के व्यवहार को देखते हुए कहते सुने गए थे कि जहां तक लोगों की उम्मीदों पर खरा उतरने का संबंध है ‘सब ठीक नहीं है।’ उन्होंने सदस्यों को आत्ममंथन का सुझाव दिया था। तब उम्मीद किया गया था कि मानीय सदस्यगण आत्ममंथन करेंगे और सदन की गरिमा बनी रहेगी। लेकिन जिस तरह बार-बार सदन को हंगामा के जरिए बाधित किए जाने का प्रयास होताा रहा है, वह संसदीय लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है। कहना गलत नहीं होगा कि माननीय सदस्यगण विरोध और अवरोध के फर्क को महसूस करने को तैयार नहीं हैं। शायद उन्हें लग रहा है कि संसद की मर्यादा का हनन करके ही वह अपनी बात जनता तक पहुंचा पाएंगे।
अगर उनकी सोच यह है तो उन्हें समझना होगा कि उनकी सोच से देश सहमत नहीं है। उम्मीद किया जाना चाहिए कि 18 वीं लोकसभा के लिए गठित सरकार, विपक्ष और निर्वाचित सदस्य अपनी जवाबदेही और जिम्मेदारी का ईमानदारीपूर्वक निर्वहन देश की भावनाओं का सम्मान करेंगे।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं, लेख में उनके अपने विचार हैं)