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साहित्य उन्मेष में राष्ट्रपति ने किया जनजातीय उत्थान का आह्वान

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मध्य प्रदेश के भोपाल शहर में ‘अभिव्यक्ति के उत्सव-उन्मेष’ साहित्य-कुंभ लग गया है और इसमें भारत की साहित्य विभूतियाँ हिस्सा लेने के लिए भोपाल में होंगी. भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने अंतरराष्ट्रीय साहित्य महोत्सव और उत्कर्ष-उन्मेष का उदघाटन किया और कहा कि हमारी परंपरा में, ‘यत्र विश्वम् भवति-एक नीडम्’ की भावना प्राचीन काल से आधुनिक युग तक निरंतर व्यक्त होती रही है और मानवता का वास्तविक इतिहास विश्व के महान साहित्य में ही मिलता है. ये दोनों बातें साहित्य सर्जकों को उस सनातन परंपरा की ओर ले जाती हैं जिसकी विरासत में हम निरंतर आगे बढ़ने को प्रेरित हैं. ‘उन्मेष’ का अर्थ आँखों का खुलना भी होता है और फूलों का खिलना भी. ‘उन्मेष’ का अर्थ प्रज्ञा का प्रकाश भी है और जागरण भी होता है.

राष्ट्रपति ने जिस सहज भाव से अपने विचार रखे हैं उसका अपना अलग सन्देश है. इस साहित्य महाकुंभ में हिस्सा ले रहे लोगों ने क्या ग्रहण किया यह उनके ऊपर निर्भर है किन्तु राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने साहित्य के उस स्पंदन को सबके समक्ष प्रकट किया जो भारत का स्पंदन बने तो अच्छा होगा. राष्ट्रपति ने बहुत ही स्पष्ट शब्दों में उन संभावनाओं को रेखांकित किया जो साहित्य जगत के लोग अभी अपने सृजन में लाने में संकोच करते हैं. उन्होंने भारत की साहित्यिक आत्मा को रेखांकित किया कि राष्ट्र-प्रेम और विश्व-बंधुत्व इन दोनों आदर्शों का संगम हमारे देश की चिंतन धाराओं में सदैव दिखाई देता रहा है तथा साहित्यकार का सत्य इतिहासकारों के तथ्य से अधिक प्रामाणिक होता है.

साहित्य की इस महासभा में सब सुन रहे थे और राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू स्मरण कर रही थीं बंकिम-चन्द्र चट्टोपाध्याय, सुब्रह्मण्य भारती, झवेरचंद मेघाणी और ज्ञानी हीरा सिंह ‘दर्द’ जैसे भारतीय सितारों को जिन्होंने अपने समय को प्रभावित किया. उन्होंने कहा कि देश के कोने-कोने में अनेक रचनाकारों ने स्वाधीनता और पुनर्जागरण के आदर्शों को अभिव्यक्ति प्रदान की. साहित्य ने मानवता को आईना भी दिखाया है, बचाया भी है और आगे भी बढ़ाया है..हमारे स्वाधीनता संग्राम के आदर्शों को साहित्य ने शक्ति प्रदान की. वस्तुतः यह बातें साहित्य जगत के सभी लोग जानते हैं लेकिन जो युवा साहित्य के अध्येता हैं, जो आने वाले समय में साहित्य में बहुत कुछ करने वाले हैं, जिन्हें राष्ट्र सृजन भी साहित्य में अवदान देकर करना है, यह सन्देश उनके लिए बहुत महत्त्वपूर्ण हैं.

साहित्य अकादमी, संगीत नाटक अकादमी अन्य संस्कृति मंत्रालय की ओर से आयोजित हो रहा उन्मेष कार्यक्रम उस समय हो रहा है जब भारत में सनातन सभ्यता का जी-20 के बहाने पूरी दुनिया में एक नई सांस्कृतिक छवि गढ़ी जा रही है. ऐसे समय में भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने साहित्याकाश के नक्षत्रों के बीच भारत के साहित्य और उसकी विरासत की अहमियत को रखी, यह महत्त्वपूर्ण बात है. वह जानती हैं कि बिना अनुवाद के हमारे साहित्य का सामर्थ्य नहीं बढ़ सकता न ही भारतीय साहित्य को बहुत प्रतिष्ठा मिल सकती है. वह यह भी जानती हैं कि जो भी दुनिया के साहित्य हैं, वे ज़रूर हमारे पाठ का हिस्सा हो, इसलिए राष्ट्रपति ने जोर देकर कहा कि सभी भारतीय भाषाओं की प्रमुख पुस्तकों का अन्य भाषाओं में अनुवाद होने से भारतीय साहित्य और अधिक समृद्ध हो सकेगा. उन्होंने जनजातीय समाज की साहित्य की लोक-अभिव्यक्ति को भी इसके साथ लेकर चलने का आह्वान किया. वह मानती हैं कि जब भारत का जनजातीय समाज समुन्नत हो जाएगा तब भारत एक विकसित राष्ट्र के रूप में प्रतिष्ठित हो जाएगा.

इसे केवल एक सन्देश के तौर पर नहीं लेना चाहिए बल्कि भारत की साहित्यिक बिरादरी यह सोचे और समझे कि राष्ट्रपति ने जनजातीय लोगों के समुन्नति में भारत की विकसित छवि क्यों देखी. यदि वह ऐसा देख रही हैं तो यह निश्चय ही सही दिशा में उनका संकेत है. उन साहित्यकारों को सन्देश है कि जनजातीय आवाज़ को प्रमुखता से साहित्य में प्रतिष्ठित किया जाए और सरकारों को भी संकेत है कि वे जनजातीय समुन्नति के बारे में संकल्प के साथ आगे बढ़ें, तभी भारत प्रतिष्ठित होगा. उनके संबोधन  में इसलिए निकलकर आया कि हमारा सामूहिक प्रयास होना चाहिए कि अपनी संस्कृति, लोकाचार, रीति-रिवाज और प्राकृतिक परिवेश को सुरक्षित रखते हुए, हमारे जनजातीय समुदायों के भाई-बहन और युवा आधुनिक विकास में भागीदार बनें.

आज़ादी के अमृतकाल में जब भारत जी-20 जैसे सम्मलेन का मेजबान है ऐसे समय में भारत की महामहिम राष्ट्रपति उन्मेष की महायात्रा में साहित्य के पंडितों के बिच से कुछ नया होने की आशा रखती हैं. वह लोक की साहित्य को समृद्धि देना चाहती हैं और जो ज्यादा लोक में रहने वाले जनजातीय समाज हैं, उन्हें बराबर की प्रतिस्पर्धा में शामिल होते देखना चाहती हैं, यह निश्चय ही एक राष्ट्राध्यक्ष का सजग और उचित आह्वान है और मेरी दृष्टि से इसे सभी को स्वीकार करना भी चाहिए. उन्होंने एक सवाल भी किया कि आज़ादी का अमृत महोत्सव’ के ऐतिहासिक पड़ाव पर हमें यह विचार करना है कि क्या वर्तमान में हम ऐसा साहित्यिक उन्मेष देख रहे हैं जिसमें बड़ी संख्या में पाठकों की भागीदारी हो?

दरअसल, सृजन और प्रकाशन के साथ पाठ और पाठक की चिंताएं हमेशा की जाती रही हैं. इस महत्त्वपूर्ण बहस को रेखांकित दरअसल राष्ट्रपति ने इसलिए किया क्योंकि उन्हें इतने बड़े स्तर पर लोगों के इकठ्ठा होने की खबर है, पर जो आजकल पाठ करने वाले लोगों का अभाव हो रहा है, उसके बारे में वह चिंतित हैं. वह चाहती हैं कि केवल मेले में लोग घूमने न आएं बल्कि उस महाकुंभ में लोग पढ़ते हुए मिलें. सब लोग एक सत्र में यदि साहित्य अकादमी के इस उन्मेष कार्यक्रम में पढ़ते हुए ही समय व्यतीत करें तो वह छवि कुछ और होगी और पढने वाले कुछ लेकर अपने रूचि के मुताबिक अपने साथ भी ले जाएँ. राष्ट्रपति ने इस ओर ध्यान दिलाया है, अब अचाहे कोई समझे या न समझे.

यह अभिव्यक्ति का उत्सव-उन्मेष, जो भी हो साहित्य अकादमी का एक अंतरराष्ट्रीय सहित्य उत्सव है. चार दिनों तक देश के नामीगिरामी रचनाकारों को स्वस्थ मंच प्रदान कर साहित्य, संस्कृति व अभिव्यक्ति का काव्यात्मक उत्सव बने इसके लिए राष्ट्रपति की उपस्थिति बहुत ही महत्त्वपूर्ण है. उनके द्वारा सुचिंतित जो बातें कही गईं, वह भी अत्यंत उल्लेखनीय रोडमैप तैयार करेंगी.  लेकिन आवश्यकता इस बात की है कि यदि जुटे हुए मनीषीजन भारत के निर्माण के लिए और विश्व में भारत की छवि को समृद्ध बनाएं तो इस उत्सव की सार्थकता सिद्ध होगी. राष्ट्रपति जी आयोजकों और उपस्थितजन को बधाई देते हुए साफ कहा कि राष्ट्र-प्रेम और विश्व-बंधुत्व इन दोनों आदर्शों का संगम हमारे देश की चिंतन धाराओं में सदैव दिखाई देता रहा है. वह अपनी इस उपस्थिति में यह अभिव्यंजित कर रही हैं कि उसे हमें अपने जीवनचर्या का हिस्सा बनाना होगा और देश को विकास के पथ पर आगे ले जाना होगा. ‘मैं’ और ‘मेरा’ से ऊपर उठकर जो साहित्य रचा जाता है, जो कला प्रस्तुत की जाती है, उन्हीं रचनाओं और कलाकृतियों में सार्थकता होती है.

साहित्य के इस विशेष उत्सव में राष्ट्रपति की यह बात उन सभी भारतीय और दुनिया के साहित्यकारों के लिए हिदायत है और आत्मीय सलाह भी कि साहित्य में वही लिखें जो आपकी सृजनशीलता को स्थापित कर दे. इसी से रचना के कालजयी होने की संभावना बनती है और संभावना इस बात की बनती है कि रचनाकार अपनी इस कृति से सबके बीच लोकप्रियता के शिखर को छू ले. सम्पूर्णता में देखा जाए तो यह कहा जा सकता है कि राष्ट्रपति जी ने निःसंदेह इसके माध्यम से पृथ्वी के सार्वभौमिक मूल्यों के साथ जीने और समाज के लिए कुछ करने की इस उत्सव में बैठे लोगों से उम्मीद की है.

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प्रो. कन्हैया त्रिपाठी 

लेखक भारत गणराज्य के महामहिम राष्ट्रपति जी के विशेष कार्य अधिकारी-ओएसडी रह चुके हैं। आप केंद्रीय विश्वविद्यालय पंजाब में चेयर प्रोफेसर और अहिंसा आयोग और अहिंसक सभ्यता के पैरोकार हैं। 

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