मेवात में दंगे का कौन जिम्मेवार______
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विगत तीन माह से भी अधिक समय से सामरिक दृष्टि से अति महत्वपूर्ण देश का सीमावर्ती राज्य मणिपुर दंगों की आग में झुलस रहा है। अभी फौरी तौर पर दंगों में कुछ कमी अवश्य आयी है, लेकिन इन दंगों के दंश से मुक्ति मिल पाना इतना आसान भी नहीं। यहां पर महिलाओं के साथ हुए सामूहिक बलात्कार की घटनाओं से जब सारा देश स्तब्ध है, तो ऐसे में देश के अन्य किसी भी हिस्से से दंगों की खबर आना ही देश के लिए एक बड़ी चिन्ता का विषय है।
कभी दिल्ली में एक धार्मिक यात्रा के दौरान पत्थरबाजी होती है तो वहीं उत्तर प्रदेश के बरेली से कांवड़ यात्रा में पुलिस की सूझ-बूझ से दंगा होने से बचना हो। कभी चलती रेल में रेलवे सुरक्षा कर्मी चेतन सिंह द्वारा अपने कुकृत्यों से देश के अमन-चैन के माहौल को बिगाड़ने का प्रयास हो, वह भी देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उत्तर प्रदेश के मुखिया योगी आदित्यनाथ का नाम लेते हुए, जैसे कि उन्होंने ही उसे इस कार्य के लिए उकसाया हो और अब हरियाणा में धार्मिक यात्रा के दौरान दंगे का भयावह मंजर।
इन घटनाओं ने समस्त देशवासियों के माथे पर चिन्ता की लकीरें खींचने का कार्य किया है। प्रश्न यह है कि दंगे का जिम्मेवार आखिरकार कौन है। जाहिर है कि दुर्घटनाएं हुई हैं तो प्रशासनिक जाँँचें भी होंगी ही। जाँँच के बाद ही संभव है कि दोषियों को चिन्हित किया जा सकेगा और तभी उन पर विधिसम्मत दण्डात्मक कार्यवाही भी अमल में लायी जा सकेगी। लेकिन जैसा कि अपने पूर्व के लेखों के माध्यम से प्रश्न उठाता चला आ रहा हूँँ कि सत्ताप्राप्ति हेतु लोकतन्त्र में भीड़तन्त्र का साथ बहुत बड़ा कारक है I
लेकिन चुनावों के बाद और पहले इस भीड़तन्त्र द्वारा प्रशासनिक निर्णयों को देश के संविधान के विपरीत जाकर लागू करवाने और स्वार्थवश कानून को स्वयं अपने हाथों में लेकर विधि नियंता बन जाना किसी भी नजरिये से जायज नहीं ठहराया जा सकता। इस पर राजनैतिक दलों की अपने लाभ-हानि की गणनानुसार चुप्पी अथवा विरोध, देश की संवैधानिक व्यवस्था और लोकतन्त्र दोनों को कमजोर बनाने का ही कार्य करता है।
देश का संविधान किसी भी सूरत में, किसी भी वर्ग अथवा धर्म को किसी अन्य वर्ग अथवा धर्म के अनुयायियों के खिलाफ व्यक्तिगत अथवा सामूहिक दवाब बनाने एवं हिंसा करने की आजादी नहीं देता और न ही उनकी जीवनशैली में हस्तक्षेप की अनुमति देता है। यदि कोई विरोधाभास अथवा आपत्ति है, तो इसके लिए प्रशासनिक व्यवस्थायें और उसके भी ऊपर न्यायालय है। संवैधानिक व्यवस्थाओं का ईमानदारी एवं निष्पक्षता के साथ अनुपालन हेतु निर्देशन एवं नियन्त्रण करना प्रशासन एवं शासन का कार्य है।
पूर्व से देखा यही जाता है कि शासन को प्रसन्न रखना ही प्रशासन का सबसे बड़ा ध्येय रहता है। प्रायःकर ऐसा देखने में आता है कि अधिकतम मामलों में प्रशासनिक लापरवाही, वास्तव में लापरवाही न होकर शासन में बैठे सत्ताधीशों को प्रसन्न करने हेतु जानबूझ कर की जाने वाल प्रक्रिया भर होती हैं। जो ऐसा नहीं करता, उस अधिकारी को इस दुस्साहस का दण्ड भी मिलता है।
अभी हाल-फिलहाल में प्रदेश के युवा तेज-तर्रार आई पी एस अधिकारी प्रभाकर चौधरी, जिनकी निष्पक्ष एवं सटीक कार्यप्रणाली से पूरा प्रदेश वाकिफ भी है और उनका प्रशंसक भी, का कांवड़ यात्रियों पर सख्ती के चलते मिले तबादला स्वरूप मिला दण्ड शायद यही साबित करता है। शासन के दवाब के इतर कानून को सर्वोच्च मानने वाले इस आई पी एस की दस साल मात्र की नौकरी में मिले 21 तबादले, स्वयं ही उनको शासन से मिले पुरूस्कारों का बयां कर रहे हैं।
दिल्ली से सटे हरियाणा के मेवात में हुए दंगे भले ही मोनू मानेसर और बिट्टू बजरंगी जैसे अन्य युवाओं के अपराध के ऊपर सिमट जाऐं, लेकिन क्या शासन-प्रशासन अपनी विफलताओं एवं लापरवाहियों के लिए अपने में से किसी को दोष देगा ? इसका जवाब शायद न में ही होगा। कथित तौर पर धमकी भरे वायरल वीडियो के विरोध स्वरूप् स्थानीय लोगों द्वारा नाराजगी जाहिर के बावजूद न तो प्रशासन द्वारा यात्रा में पर्याप्त सुरक्षा मुहैया कराना और न ही नाराज वर्ग के लोगों का विश्वास में लेना क्या प्रदर्शित करता है।
धमकी देने वालों और प्रत्युत्तर में उग्र प्रदर्शन/विरोध करने वाले संभावितों को चिन्हित कर पाबंद अथवा गिरफ्तार करना, प्रशासनिक नहीं तो किस की जिम्मेदारी थी ? जिस प्रकार से कि मणिपुर दंगों को दो पक्षों में आपसी वैर एवं रंजिश बताकर दोनों पक्षों के कुछेक लोगों को दोषी बता देने से शासन-प्रशासन अपना दामन नहीं छुड़ा सकता, ठीक उसी प्रकार से मेवात दंगों में चाहें तो जानबूझ कर अथवा लापरवाही के चलते हुई प्रशासनिक नाकामी से प्रशासन स्वयं को दोषमुक्त नहीं कर सकता।
यदि मणिपुर की घटनाएं शर्मसार करती हैं, तो सम्मान मेवात जैसी घटनाओं से भी देश का नहीं बढ़ता। यदि प्रशासन अपना धर्म का निर्वहन करता तो कानून का इकबाल (अनुपालन की बाध्यता) ही स्थापित होता। लेकिन या तो प्रशासनिक इच्छाशक्ति ही भिन्न हो चली है या फिर शासन के दवाब में प्रशासन की बाध्यता। मान्यताओेें एवं धार्मिक भावनाओं के आधार पर नहीं, अपितु संवैधानिक व्यवस्थाओं का निर्वहन करना ही शासन एवं प्रशासन का नैतिक दायित्व है।
यदि आज देश बदलाव की ओर बढ़ चला है और भीड़तन्त्र को समर्थन करना ही राजनैतिक मजबूरी है, तो इसे संविधान में संशोधन कर लागू करवा दो। पाकिस्तान और अफगानिस्तान की नीतियों के अनूसरण का घातक परिणाम देख कर भी उसी राह पर चलना कहां की समझदारी है ?
देवज्योति द्विवेदी
(लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
यह लेखक के निजी विचार है।