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तो फिर किस बात का गुमान करते हो…….

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ये कश्ती खड़ी है,खड़ी ही रहेगी….

कोई जब तुम्हें, दरिया के मझदार में छोड़ दे ।
और वो तुम्हारी, नैया को भी डुबो दे ।
तब तुम मुझे, याद ना करना प्रिय ।
ये कश्ती खड़ी है,खड़ी ही रहेगी, निहारे तुम्हें ।

कहा था कितना, ना जाओ उधर ।
कितने ही, मगरमच्छ रहते हैं उधर ।
वादा भी लिया था,समझाया था बहुत ।
मगर तुम ना माने, चले ही गए उधर ।
अब चले ही गए हो तो, उधर ही रहना प्रिय,
ये कश्ती खड़ी है, खड़ी ही रहेगी, निहारे तुम्हें ।

निगलने को तुम्हें कितने ही, बैठे हैं मगर ।
बात मान लेते हमारी, तो आता ना ये मंज़र ।
जान कम से कम तुम्हारी , जोखिम में तो ना फँसती ।
हमसे भी प्रिय थे , तुम्हें सागर के धारे मगर ।
अब बसा लो उन्हीं को, अपने दिल में प्रिय ।
हम, कुछ नहीं, अब कर सकते, तुम्हारे लिए ।
ये कश्ती खड़ी है, खड़ी ही रहेगी, निहारे तुम्हें ।

अब जाकर मरो, उसी नदीश में कहीं ,
कुछ मगरमच्छ भी मिलेंगे, उसी पयोधि में कहीं,
अब रहना तुम, उस मगरमच्छ के पेट में पड़े,
हम तो निहार लेंगे तुम्हें, दूर ही से खड़े,
जैसे पहले रहा करते थे , निहारे तुम्हें,
ये कश्ती खड़ी है, खड़ी ही रहेगी, निहारे तुम्हें ।

हश्र तुम्हारा तो, होना ही यही था,
तुम्हारी ज़िद्द का फल तो, तुम्हें मिलना ही था,
रहना अब, उसी मगरमच्छ के पेट में तुम,
अपनी दुनिया वहीं, बसा लेना कहीं तुम,
हम तो तन्हा थे, तन्हा ही रहेंगे सदा,
अब क्या दुआ माँगे, हम तुम्हारे लिए,
अब तो ढहरे तुम परदेसी, हमारे लिए ।
ये कश्ती खड़ी है, खड़ी ही रहेगी, निहारे तुम्हें ।

तुम मगरमच्छ के पेट में ही, अपना घर बसा लेना ।
वहीं पर तुम अपनी, नई दुनिया सजा लेना,
ना याद आना हमें, ना याद करना हमें ,
बेगाने लोगों से अब, हमारी कैसी दोस्ती,
तुम अब बेगाने हो, बेगाने ही रहोगे हमारे लिए ।
ये कश्ती खड़ी है, खड़ी ही रहेगी, निहारे तुम्हें ।

कोई जब तुम्हें, दरिया के मझदार में छोड़ दे ।
और वो तुम्हारी, नैया को भी डुबो दे ।
तब तुम मुझे, याद ना करना प्रिय ।
ये कश्ती खड़ी है,खड़ी ही रहेगी, निहारे तुम्हें ।

जनाज़े पर वो फूल चढ़ाने आए….

मरने के बाद हमारे जनाज़े पर वो फूल चढ़ाने आए भी तो क्या एहसान किया ।
जीते जी तो कभी उन्होंने कभी एक फूल तक भी हमको भेंट ना किया ।
इंसान की फ़ितरत ही है कि मरने के बाद उसको स्वर्गवासी का तमग़ा दे देते हैं ।
लेकिन जीते जी कभी उसके दुख दर्द में उसका हाल तक भी ना पूछा करते हैं ।
है दोगला इंसान यहाँ और दोहरी उसकी नीति है ।
अपने लिए कुछ और, दूसरे के लिए कुछ और होती है ।
अपनी परेशानी उसको सबसे बड़ी लगती है,
लेकिन दूसरे की परेशानी कोई मायने नहीं रखती है ।
जाने कैसे इंसान डोगलापन कर जाता है,
ऐसा करके उसके माथे पर शिकन तक ना आता है ।

न ही राम बन सकते हो..

ना तो तुम कृष्ण हो, और ना ही राम बन सकते हो,
तो फिर किस बात का गुमान करते हो,
क्यों इंसान बनने से इनकार करते हो ।

ना तो तुम शैतान हो और ना ही भगवान बन सकते हो,
जो हो वो क्यों नहीं, बने रह सकते हो,
क्यों इंसान बनने से इनकार करते हो ।

जब तुम्हारा मन होता है,कृष्ण बनने का दावा करते हो, जब मन होता है तो भगवान बनने की कोशिश करते हो ।
क्यों इंसान बनने से इनकार करते हो ।

जब मन करता है प्रेम और वासना को जोड़ दिया,
जब मन करता है प्रेम और वासना को अलग कर देते हो,
क्यों अपने दिमाग़ को ठिकाने पर नहीं रखते हो,
क्यों इंसान बनने से इंकार करते हो ।

तुम अपने विचार पल पल बदलते हो,
लोगों को नहीं ख़ुद को बार बार भ्रमित करते हो,
तुम महात्मा की तरह किसी को उपदेश क्यों देते हो,
क्यों इंसान बनने से इनकार करते हो ।

अपनी सुविधानुसार तुम अपने विचार रखते हो,
पर भावनाओं की कहाँ तुम कद्र करते हो,
ऐसा करके क्यों इतने महान तुम बनते हो,
क्यों इंसान बनने से इंकार करते हो ।

तुम क्या जानो, तुम्हारा ये व्यवहार किसी को कितना आहत करता है,
हमेशा बस अपनी ढपली, अपना राग अलापते हो,
क्यों इंसान बनने से इंकार करते हो ।

सुमन मोहिनी (नई दिल्ली )

लेखिका/कवियत्री 

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