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संतोषपूर्वक स्वीकारोक्ति सदा ही लाती है सुखांत

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सुखांत-दुखांत

असंतोष की वृत्ति का अंत है दुखांत । वहीं इसके विपरीत हमारे जीवन में संतोषपूर्वक स्वीकारोक्ति सदा ही लाती है सुखांत। यह बात लिखने में जितनी सरल है उतनी ही हमारे जीवन के आचरणों में आने में कठिन है । सही से अगर इसको समझ लिया जाये तो यह असम्भव भी नहीं है । जीवन में बड़े-बड़े सपना देखना कोई ग़लत नहीं।हर इंसान के मन में हमेशा यह भाव रहता है कि मैं भी एक दिन बड़ा आदमी बने।

मेरे पास भी दुनियाँ की तमाम सुविधाएँ हो,लम्बा चौड़ा कारोबार हो और समाज में मेरी टूटी बोले। पर आकांक्षा सभी की पूरी हो यह कोई ज़रूरी नहीं।जब मन में सोचे सपने पूरे नहीं होते हैं तो कुछ इंसान उसको अपने दिल से लगा लेते हैं और इसके कारण कई घातक परिणाम भी सामने आते हैं।कुछ लोग अवसाद में चले जाते हैं तो कुछ लोग आत्म हत्या जैसा जघन्य अपराध करने से भी नहीं चूकते।

यह भी सही है कि हमारी आशाएँ और आकांक्षाएँ हम्हें आगे बढ़ने के लिये प्रेरित करती है।पर हर इंसान मन में यह सोच कर चले कि मैंने अपने मन में आकांक्षाएँ और आशाएँ तो बहुत की।अगर उसका परिणाम हमारे अनुकूल हुआ तो बहुत अच्छी बात है और परिणाम आशाएँ के विपरीत रहा तो कोई बात नहीं।जो मेरे भाग्य में था उसी में संतोष है।मन में यह भी सोचें की जो मुझे प्राप्त हुआ उतना तो बहुत लोगों को भी नसीब में भी नहीं।

इसलिये जीवन में आशाएँ और आकांक्षाएँ ज़रूर रखो पर पूरी नहीं होने पर जो प्राप्त हुआ उसमें संतोष करना सीखो। व्यक्ति प्रतिभा का पुंज है । वह अपनी प्रतिभा को सही राह पर ले जाएं तो वह ऊंचाइयों की ओर बढ़ सकता है । मृत्यु जीवन का सत्य है । यह भी सत्य है कि उसने जो कर्म अच्छे या बुरे किए हैं वे ही साथ जाएंगे परंतु वह आकांक्षाओं की तृष्णा से अपनी जिंदगी बर्बाद कर लेता है। अहं से मनुष्य का विवेक नष्ट हो जाता है । और वह क्रोध ,ईर्ष्या और अहंकार का शिकार हो जाता है ।मानव की यही स्थिति पशु तुल्य कहीं जाती है। यदि विवेक से आध्यात्मिक जीवन जिए तो मनुष्य अपने जीवन में सुख शांति और समृद्धि पा सकता है।

प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़, राजस्थान )

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