Doctor’s Day : डॉक्टर्स डे पर विशेष _ तुम डॉक्टर हो, तुम टूट नहीं सकते….
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PRESENTED BY DR. ABHISHEK SHUKLA
कहीं एक मरीज़ की जान बचाते हुए, तो कहीं एक को खोते हुए, डॉक्टर हर दिन कुछ न कुछ सहते हैं। लेकिन ज़्यादातर बार वे चुप रहते हैं। चुप तब भी जब रात को किसी मरीज़ की याद उन्हें सोने नहीं देती। चुप तब भी जब उन्हें एक कमरे में मृत्यु घोषित करनी होती है, और अगले कमरे में किसी को उम्मीद देनी होती है। चुप तब भी जब दिल दहला देने वाली कोई खबर किसी परिवार को बतानी होती है।
ये बात शायद कोई सीधे मुँह नहीं कहता, लेकिन हर अपेक्षा, हर नज़र, हर चुप्पी में ये बात कहीं न कहीं लिखी होती है। समाज डॉक्टरों से सब कुछ चाहता है, इलाज, सेवा, सच्चाई, हिम्मत. पर उन्हें इंसान मानने में कंजूसी करता है।
हर सर्जिकल मास्क के पीछे एक ऐसा चेहरा होता है जिसने ज़िंदगी के कड़वे सच को बहुत करीब से देखा है। दर्द, असफलता, दुःख, और मृत्यु उनके रोज़मर्रा का हिस्सा हैं। लेकिन प्रोफेशन उन्हें सिखाता है, भावनाओं को दबाकर आगे बढ़ो। आपकी थकान, आपका ग़म, आपकी हताशा किसी को नहीं दिखनी चाहिए।
अगर आप घर में कोई अपना खो दें, तो भी आपसे उम्मीद की जाती है कि अगली सुबह राउंड्स पर समय से पहुँचें। ICU में किसी को खोने के बाद भी, अगले मरीज़ से मुस्कान के साथ मिलना पड़ता है। और अगर कोई मरीज़ आपके सामने दम तोड़ दे, तो भी संयम से उनके परिवार को सब समझाना पड़ता है।
और आप ये सब करते हैं , हर दिन। क्योंकि आपको यही सिखाया गया है कि मरीज़ पहले आता है, आपकी भावना बाद में।
डॉक्टरों के बारे में एक सबसे बड़ा भ्रम है कि वे भावनात्मक रूप से अछूते रहते हैं। कि उन्होंने सब देख लिया है, इसलिए अब कोई असर नहीं होता। हकीकत यह है कि उन्हें सबसे ज़्यादा असर होता है, क्योंकि वे ये सब रोज़ देखते हैं।
एक इंटर्न पहली बार किसी मरीज़ को खोकर बाथरूम में चुपके से रोती है। एक वरिष्ठ सर्जन किसी ऑपरेशन के निर्णय पर कई रातें जागता है। एक मनोचिकित्सक खुद अवसाद से जूझता है, लेकिन फिर भी दूसरों की सुनता है। ये भावनाएँ सतह पर भले न दिखें, लेकिन शरीर में दर्ज होती हैं।
वो थकावट जो सोने से दूर नहीं होती, वो चुप्पी जो अपनेपन में भी बनी रहती है, यही संकेत हैं उस अदृश्य भावनात्मक थकावट के।
शायद सबसे कठिन हिस्सा है, अकेलापन। समाज डॉक्टरों को या तो भगवान की तरह देखता है, या फिर शक की नज़रों से। अगर डॉक्टर टूट जाए तो वह “कमज़ोर” कहलाता है। अगर ज़्यादा जुड़ जाए, तो “भावुक” कहलाता है। और अगर दूरी बनाए, तो “ठंडा दिल” वाला।
ख़ुद प्रोफेशन के अंदर भी भावनाओं को जगह नहीं मिलती। सब समझते हैं, लेकिन कोई पूछता नहीं। क्योंकि यहाँ संस्कृति “मजबूत बने रहो” को पुरस्कार देती है, “सच्चाई कहो” को नहीं।
और जब कोई डॉक्टर मानसिक रूप से पूरी तरह टूट जाता है, बर्नआउट, डिप्रेशन या आत्महत्या तक, तब दुनिया हैरान होती है। “वो तो बहुत स्ट्रॉन्ग था!” हकीकत ये है कि वो मजबूती कब दर्द बन गई, किसी ने देखा ही नहीं।
हमें अब डॉक्टरों की सहनशक्ति का महिमामंडन करना बंद करना होगा। डॉक्टरों को हीरो नहीं, इंसान मानना शुरू करना होगा। ऐसे इंसान जिनके पास दूसरों के साथ-साथ खुद के लिए भी महसूस करने की जगह होनी चाहिए।
चिकित्सा संस्थानों को मानसिक थकावट को वास्तविक और गंभीर मानना होगा। हमें ऐसे मानसिक स्वास्थ्यसपोर्ट सिस्टम की ज़रूरत है जो सुलभ हो, गोपनीय हो और बिना किसी कलंक के उपलब्ध हो।
सीनियर डॉक्टरों को चाहिए कि वे सिर्फ़ ज्ञान में नहीं, बल्कि भावनात्मक ईमानदारी में भी उदाहरण बनें। जब एक जूनियर अपने सीनियर को यह कहता देखे कि “आज का केस मुझे तोड़ गया,” तो वह भी सीखेगा कि एक डॉक्टर के लिए भी टूटना ग़लत नहीं है।
आखिरकार, चिकित्सा इंसानियत पर आधारित पेशा है। और उस इंसानियत में डॉक्टर भी शामिल है। अगर डॉक्टर को ही महसूस करने की इजाज़त नहीं होगी, तो वो दूसरों को महसूस करने की ताक़त कहाँ से लाएगा?
जो डॉक्टर रात को मरीज़ की चिंता में सो नहीं पाता, वो कमज़ोर नहीं है, वो संवेदनशील है। जो पहली बार ICU में किसी बच्चे की मौत पर चुपचाप रो पड़ता है, वो टूटा हुआ नहीं, वो सच्चा इंसान है। और जो ऑपरेशन के बाद थक कर कुछ पल के लिए आँखें बंद कर लेता है, वो काम से भाग नहीं रहा, वो ख़ुद को बचा रहा है।
डॉक्टर्स डे के इस मौके पर, जब हम सफ़ेद कोट पहने इन फ़रिश्तों की सेवा को सलाम करते हैं, तो आइए उनके भीतर छुपे दर्द को भी पहचानें, वो भावनात्मक ज़ख्म जो मुस्कुराहटों के पीछे छिपे रहते हैं।
अब समय है कि हम अपने डॉक्टरों को भी वो इंसानी समझ और संवेदनशीलता दें, जो हम अपने लिए उनसे हर दिन माँगते हैं।
(लेखक — आस्था सेंटर फॉर जिरिएट्रिक मेडिसिन, पैलिएटिव केयर हॉस्पिटल एंड हॉस्पाइस के संस्थापक एवं सचिव)