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Forest Conservation : उजड़ते वनों को बचाने की चुनौती

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PRESENTED BY ARVIND JÀYTILAK

आज विश्व वन दिवस है। वनों को सहेजने और संरक्षित रखने का दिवस। लेकिन विडंबना है कि इसे सहेजने और बचाने के बजाए हम वनों को उजाड़ने पर ही आमादा हैं। ऐसा इसलिए कि भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) द्वारा गत वर्ष पहले दावा किया जा चुका है कि अगर जंगलों को बचाने की कोशिश तेज नहीं हुई तो 2025 तक पूर्वोत्तर के छह राज्यों असम, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड और त्रिपुरा तथा केंद्रशासित प्रदेश अंडमान और निकोबार द्वीप समूह का मॉरीशस जितना बड़ा वन क्षेत्र खत्म हो जाएगा। उल्लेखनीय है कि इन राज्यों में 2005 से अब तक वन क्षेत्र में तकरीबन 0.3 प्रतिशत की दर से कमी दर्ज की गयी है।

वैज्ञानिकों ने इन्हीं राज्यों के घटते वन क्षेत्र को 2025 के वन क्षेत्र के अनुमान के लिए आधार बनाया और यह रिसर्च ‘अर्थ सिस्टम साइंस’ नामक एक जर्नल में प्रकाशित हुआ। चूंकि इस शोध को हैदराबाद स्थित इसरो के नेशनल रिमोट सेंसिंग सेंटर और तिररुवनंतपुरम स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ स्पेस साइंस एंड टेक्नोलॉजी के वैज्ञानिकों द्वारा निष्कर्ष दिया गया लिहाजा इसकी विश्वसनीयता पर संदेह नहीं किया जा सकता। शोध में वैज्ञानिकों का दावा है कि 133 साल में 40 प्रतिशत वनों में कमी आयी है। वर्ष 1880 में देश में 10.42 लाख वर्ग किमी वन क्षेत्रफल होने का अनुमान लगाया गया था जो कि देश के 37.1 प्रतिशत भौगोलिक हिस्से को दर्शाता है। लेकिन विकास के नाम पर वनों की अंधाधुंध कटाई की वजह से 1880 से लेकर अब तक देश के वन क्षेत्र में तकरीबन 40 प्रतिशत की कमी आयी है। कंप्यूटर पर 1880 के दौरान भारत के वन क्षेत्र में बढ़ोत्तरी दर्ज की गयी लेकिन 2025 तक इसमें भारी कमी आने की संभावना जतायी जा रही है।

गौरतलब है कि वैज्ञानिकों द्वारा कंप्यूटर पर लैंड चेंज मॉडलर सॉफ्टवेयर पर प्राचीन भारत के वन क्षेत्र का मॉडल तैयार किया गया है। इसमें उन इलाकों का पर्यवेक्षण किया गया है, जहां वन क्षेत्र में सर्वाधिक कमी हो रही है। वैज्ञानिकों का कहना है कि उत्तर-पूर्वी राज्यों में गैर-सरकारी संस्थाओं द्वारा अधिकांश वन क्षेत्र की भूमि को लीज पर लेने और बड़े स्तर पर वन क्षेत्रों को कृषि के लिए उपयोग में लाने के कारण वन क्षेत्र में लगातार गिरावट आ रही है।एक तथ्य यह भी है कि अंधाधुंध विकास के नाम पर प्रति वर्ष 7 करोड़ हेक्टेयर वनों का विनाश हो रहा है। एक आंकड़े के मुताबिक पिछले सैकड़ों सालों में मनुष्य के हाथों प्रकृति की एक तिहाई से अधिक प्रजातियां नष्ट हो चुकी हैं। जंगली जीवों की संख्या में भी 50 प्रतिशत की कमी आयी है। वर्ल्ड वाइल्ड फंड एवं लंदन की जूओलॉजिकल सोसायटी की गत वर्ष पहले प्रकाशित रिपोर्ट से उद्घाटित हो चुका है कि आने वाले वर्षों में धरती से दो तिहाई वन्य जीव खत्म हो जाएंगे।

इस रिपोर्ट में कहा जा चुका है कि दुनिया भर में हो रही जंगलों की अंधाधुंध कटाई, बढ़ते प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन के कारण पिछले चार दशकों में वन्य जीवों की संख्या में भारी कमी आयी है। इस रिपोर्ट में 1970 से अब तक वन्य जीवों की संख्या में 58 प्रतिशत की कमी बतायी गयी है। हाथी और गोरिल्ला जैसे लुप्तप्राय जीवों के साथ-साथ गिद्ध और रेंगने वाले जीव तेजी से खत्म हुए हैं। रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि आने वाले कुछ वर्षों में 67 प्रतिशत वन्य जीवों की संख्या में कमी आ सकती है। विश्व वन्यजीव कोष (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) की ‘लिविंग प्लैनेट’ रिपोर्ट (एलपीआर) 2022 से भी खुलासा हो चुका है कि वन्यजीव आबादी में साल 1970 से 2018 के बीच तकरीबन 69 प्रतिशत की कमी आयी है। यह रिपोर्ट 5230 नस्लों की तकरीबन 32000 आबादी पर केंद्रीत है।

एक अन्य आंकड़े के मुताबिक वर्ष 1900 से 2015 के बीच स्तनपायी जीवों की प्रजातियों का इलाका 30 प्रतिशत घटा है। इनमें से 40 प्रतिशत प्रजातियों का इलाका 80 प्रतिशत तक कम हुआ है। यह स्थिति विविधता और पारिस्थितिकी अभिक्रियाओं पर नकारात्मक असर डालने वाला है। वन वैज्ञानिकों की मानें तो वनों की कटाई से जलवायु परिवर्तन में तेजी आ रही है जिसके गंभीर परिणाम देखने को मिलने लगे हैं। ऐसा इसलिए कि पृथ्वी पर करीब 12 करोड़ वर्षों तक राज करने वाले डायनासोर नामक दैत्याकार जीव के समाप्त होने का कारण मूलतः जलवायु परिवर्तन ही था। अगर जलवायु परिवर्तन को गंभीरता से नहीं लिया गया तो आने वाले वर्षों में धरती से जीवों का अ-यवहार बढ़ता जा रहा है जो कि वनों और जीवों के अस्तित्व के प्रतिकूल है।

वन किसी भी राष्ट्र की अमूल्य निधि होते हैं, जो वहां की जलवायु, भूमि की बनावट, वर्षा, जनसंख्या के घनत्व, कृषि और उद्योग इत्यादि को अत्यधिक प्रभावित करते हैं। भारत प्राकृतिक वन संपदा की दृष्टि से एक संपन्न देश रहा है। भारत में पौधों तथा वृक्षों की 47 हजार प्रजातियां पायी जाती हैं। लेकिन विडंबना है कि वनों की कटाई के कारण जंगल सिकुड़ते जा रहे हैं। यह स्थिति तब है जब वनों को बचाने के लिए 1950 से लगातार हर वर्ष जुलाई के प्रथम सप्ताह में वन महोत्सव कार्यक्रम आयोजित होता है। इस आयोजन के जरिए खेतों की मेड़ों, नदियों, नहरों और सड़कों के किनारे तथा बेकार भूमि पर वृक्षारोपण किया जाता है। वन-विकास कार्यक्रम को गति प्रदान करने के लिए सरकार ने 1952 में ही वन-नीति निर्धारित की तथा वन विकास के लिए नई-नई घोषणाओं के साथ वनों का क्षेत्र 22 प्रतिशत से बढ़ाकर 33 प्रतिशत करने के संकल्प व्यक्त किया।

इसके अलावा वनों पर सरकारी नियंत्रण रखने तथा वृक्षों की हरित पट्टी विकसित करने के कार्यक्रम भी तय किए। यहीं नहीं वनों को बचाने के लिए 1965 में केंद्रीय वन आयोग की स्थापना की गयी। इस आयोग का कार्य वनों से संबंधित आंकड़े एवं सूचनाएं एकत्रित करना तथा उन्हें प्रकाशित करना है। लेकिन विडंबना है कि इस कवायद के बावजूद भी वनों का क्षेत्रफल बढ़ने के बजाए घटता जा रहा है। स्थिति यह है कि आज देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का महज 20.64 प्रतिशत भूमि पर ही वन क्षेत्र विद्यमान है। अगर समय रहते वनों को सुरक्षित-संरक्षित नहीं किया गया तो न केवल लकड़ी, उद्योगों के लिए कच्चा माल, पशुओं के लिए चारा, औषधियां, सुगंधित तेल का संकट उत्पन होगा बल्कि पर्यावरण भी बुरी तरह प्रदूषित होगा। यह तथ्य है कि पेड़-पौधे कार्बन डाइआक्साइड ग्रहण करते हैं और ऑक्सीजन छोड़ते हैं। हम इस ऑक्सीजन को सांस के रुप में गहण करते हैं।

वैज्ञानिकों का कहना है कि वनों के विनाश से वातारण जहरीला होता जा रहा है। प्रतिवर्ष 2 अरब टन अतिरिक्त कार्बन-डाइआक्साइड वायुमण्डल में घुल-मिल रहा है जिससे जीवन का सुरक्षा कवच मानी जाने वाली ओजोन परत को नुकसान पहुंच रहा है। एक आंकड़ें के मुताबिक अब तक वायुमण्डल में 36 लाख टन कार्बन डाइऑक्साइड की वृद्धि हो चुकी है और वायुमण्डल से 24 लाख टन ऑक्सीजन समाप्त हो चुका है। अगर यही स्थिति बनी रही तो 2050 तक पृथ्वी के तापक्रम में लगभग 4 डिग्री सेल्सियस तक वृद्धि हो सकती है। नेचर जिओसाइंस की मानें तो ओजोन परत को होने वाले नुकसान से कुछ खास किस्म के अत्यंत अल्प जीवी तत्वों (वीएसएलएस) की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है जो मानव जाति के अस्तित्व के लिए बेहद खतरनाक है। इन खास किस्म के अत्यंत अल्प जीवी तत्वों (वीएसएलएस) का ओजोन को नुकसान पहुंचाने में भागीदारी 90 फीसद है। निश्चित रुप से मनुष्य के विकास के लिए प्रकृति प्रदत्त संसाधनों का दोहन आवश्यक है।

लेकिन उसकी सीमा भी निर्धारित होनी चाहिए, जिसका पालन नहीं हो रहा है। वैज्ञानिकों का कहना है कि विकास के नाम पर जंगलों को उजाड़ने का ही नतीजा है कि आज मनुष्य को मौसमी परिवर्तनों मसलन ग्लोबल वार्मिंग, ओजोन क्षरण, ग्रीन हाउस प्रभाव, भूकंप, भारी वर्षा, बाढ़ और सूखा जैसी विपदाओं का सामना करना पड़ रहा है। अगर हालात ऐसे ही बने रहे और जंगलों को संवारने एवं संरक्षित करने की चेष्टा नहीं हुई तो वह दिन दूर नहीं जब पृथ्वी पर मनुष्य का जीवन असंभव हो जाएगा।

 

 

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