नई बुलंदी पर भारत-वियतनाम संबंध,बौखलाहट में चाइना
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PRESENTED BY ARVIND JAYTILAK
वियतनाम के प्रधानमंत्री फाम मिन्ह चिन्ह की भारत यात्रा दोनों देशों के सभ्यतागत संबंधों में मिठास घोलने वाला है। दोनों देशों ने आपसी संबंधों को परवान चढ़ाते हुए कई अहम समझौते को आकार दिया है। निःसंदेह इन समझौतों से दोनों देशों की आर्थिक गतिविधियों को पंख लगना तय है। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि पिछले 10 वर्षों में हमने अपने संबंधों को व्यापक आयाम दिया है। आज उसी का नतीजा है कि हमारे द्विपक्षीय व्यापार में 85 फीसद से अधिक की बढ़ोत्तरी हुई है। दोनों देशों के बीच 300 मिलियन डॉलर की क्रेडिट लाइन पर सहमति बनी है। इससे वियतनाम की मेरीटाइम सिक्योरिटी मजबूत होगी। इसके अलावा एनर्जी, टेक्नालॉजी, कृषि, मत्स्य पालन जैसे कई मसलों पर भी सहमति बनी है जिससे विकास देशों के आर्थिक कारोबार को गति मिलेगी।
दोनों देश इस बात पर भी सहमत हैं कि आपसी व्यापार को और अधिक गति देने के लिए आसियान-इंडिया ट्रेड इन गुड्स एग्रीमेंट की समीक्षा की जानी चाहिए। डिजिटल पेमेंट कनेक्टिविटी के लिए भी दोनों देशों के सेंट्रल बैंकों के बीच करार हुआ है। दोनों देश ग्रीन इकॉनामी और न्यू इमर्जिंग टेक्नॉलाजी क्षेत्र में मिलकर काम करने को तैयार हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने वियतनाम और भारत के परंपरागत संबंधों का हवाला देते हुए कहा कि बौद्ध धर्म दोनों देशों की साझा विरासत है। दोनों देश के लोग आध्यात्मिक चेतना से जुड़े हैं। उन्होंने वियतनाम के नागरिकों और युवाओं का आह्नान किया कि वे भारत के बौद्ध सर्किट के अलावा नालंदा विश्वविद्यालय का लाभ उठाएं। प्रधानमंत्री मोदी ने वियतनाम की महत्ता को रेखांकित करते हुए स्पष्ट किया कि वह हमारी एक्ट ईस्ट पॉलिसी और हमारे इंडो-पैसिफिक विजन का महत्वपूर्ण साझीदार है।
प्रधानमंत्री मोदी ने सीडीआरआई में शामिल होने के लिए भी वियतनाम के निर्णय की सराहना की। उन्होंने भरोसा दिया कि भारत फ्री, ओपन रुल्स बेस्ड और समृद्ध इंडो-पैसिफिक के लिए अपना सहयोग जारी रखेगा। दोनों देशों के बीच बढ़ती प्रगाढ़ता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि दोनों देशों ने वर्ष 2017 को ‘मित्रता वर्ष’ के रुप में मनाया। अतीत में जाएं तो दोनों देश लंबे समय से ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, आर्थिक व सामरिक संबंधों के डोर से बंधे हुए हैं। दोनों देशों ने औपनिवेशिक सत्ता के खिलाफ संघर्ष किया और दोनों ही ‘नाम’ के सदस्य हैं। जिस समय वियतनाम फ्रांसीसी उपनिवेश के विरुद्ध संघर्ष कर रहा था उस समय भारत ने उसका भरपूर सहयोग किया।
कंबोडिया के ख्मेर रॉग शासन के विरुद्ध भी भारत ने वियतनाम का समर्थन किया। जहां तक आर्थिक-कारोबार का संबंध है तो द्विपक्षीय सहयोग के लिए संस्थागत प्रक्रिया के रुप में दोनों देश एक आर्थिक, वैज्ञानिक व प्रौद्योगिकी सहयोग के लिए वर्षों पहले संयुक्त आयोग की स्थापना कर चुके हैं। उसी का नतीजा है कि भारत-वियतनाम द्विपक्षीय व्यापार विगत वर्षों में तेजी से प्रगति कर रहा है। बता दें कि इसके क्रियान्वयन के लिए कार्यवाही योजना पर 2004 में हस्ताक्षर किए गए थे। दोनों देशों द्वारा 2003 के समझौते में अंतर्राष्ट्रीय मामलों पर एकदूसरे के हितों के संरक्षण में सहायता देने के लिए संयुक्त राष्ट्रसंघ तथा अन्य अंतराष्ट्रीय समुदाय में एक दूसरे का मदद का भरोसा दिया गया।
अच्छी बात यह है कि दोनों एकदूसरे की कसौटी पर खरा उतर रहे हैं। वियतनाम लगातार भारत के नाभिकीय उर्जा के शांतिपूर्ण प्रयोग के रुख का समर्थन किया है और साथ ही संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता का समर्थक भी है। भारत भी विश्व व्यापार संगठन में वियतनाम के प्रवेश का समर्थन कर चुका है। दोनों देश गंगा-मेकांग सहयोग में भी शामिल हैं तथा निवेश में रुचि दिखा रहे हैं जिससे आज आसियान में वियतनाम भारतीय विदेशी प्रत्यक्ष निवेश का सर्वाधिक प्राप्तकर्ताओं वाले देशों में शुमार हो गया है। दोनों देश उर्जा के क्षेत्र में भी बढ़-चढ़कर एकदूसरे का सहयोग कर रहे हैं। वियतनाम उर्जा समृद्ध देश है वहीं भारत को उर्जा की अधिक आवश्यकता है।
तेल और गैस के उत्पादन में वियनताम एक अग्रणी देश है और उसके समर्थन-सहयोग से भारत की ओएनजीसी कंपनी वहां तेल व गैस की खोज में लगी हुई है। ओएनजीसी और पेट्रोवियतनाम पेट्रोलियम भागीदारी समझौता कर चुके हैं। वियतनाम भारत की तीन परियोजनाओं में 26 मिलियन डॉलर का निवेश कर रखा है। इसमें ओएनजीसी, एनआइवीएल, नगोन कॉफी, टेक महिंद्रा एवं सीसीएल शामिल हैं। शिक्षा के क्षेत्र में भी दोनों देश एकदूसरे का सहयोग कर रहे हैं। भारत सरकार प्रत्येक वर्ष वियतनामी छात्रों और शोधकर्ताओं को भारतीय संस्थाओं में अध्ययन के लिए हजारों हजारों छात्रवृत्तियां प्रदान कर रही हैं। इसके अतिरिक्त भारत वियतनाम के आईटी क्षेत्र में कार्यरत कर्मचारियों को प्रशिक्षण देने में सहायता कर रहा है।
मौजूदा समय में भारत तेजी से ज्ञान अर्थव्यवस्था के रुप में उभर रहा है और यह ज्ञान क्षेत्र में वियतनाम के मानव संसाधन क्षेत्र को प्रशिक्षित कर सकता है। दोनों देशों के बीच समुद्री सुरक्षा के क्षेत्र में असीम संभावनाएं हैं। दोनों देश एकदूसरे की मदद से समुद्री मार्गों को सुरक्षित कर सकते हैं और साथ ही समुद्री डकैतियों को रोक सकते हैं। गौरतलब है कि वियतनाम अपने ‘कॉन-रैन्थ-हार्बर’ में सैनिक अड्डा स्थापित करने के लिए भारत को आमंत्रित कर चुका है। यह अड्डा पहले सोवियत अड्डा था। अगर भारत इसमें रुचि दिखाता है तो निःसंदेह दक्षिण चीन सागर में चीनी गतिविधियों पर नजर रखने में मदद मिलेगी। यह तथ्य है कि भारत और वियतनाम दोनों दक्षिण चीन सागर में चीन की बढ़ती गतिविधियों को लेकर चिंतित हैं। दक्षिण चीन सागर के कुछ द्वीपों को लेकर भी चीन व वियतनाम के बीच तनातनी बनी हुई है।
वियतनाम का कहना है कि ऐतिहासिक रुप से इस क्षेत्र पर उसका दावा है। उसके मुताबिक 17 वीं शताब्दी तक पैरासेल्स और स्पार्टलेज उसके अधीन थे। वियतनाम का तर्क यह भी है कि जब 1940 तक चीन द्वारा इस क्षेत्र पर अपना दावा नहीं जताया गया तो फिर वह किस मुंह से अब इस पर दावा जता रहा है। गौरतलब है कि 1947 में चीन ने पैरासेल्स को वियतनाम से छिन लिया और इसे बचाने में तकरीबन 6 दर्जन वियतनामी सैनिक शहीद हुए थे। 1988 में भी दोनों देशों के बीच संघर्ष हुआ जिसमें कई मछुवारे मारे गए। सच कहें तो आज की तारीख में दक्षिण चीन सागर में चीन के विस्तार के कारण वियतनाम दबाव में है। देखा भी गया कि गत वर्ष पहले उसने दक्षिण चीन सागर मसले पर अंतर्राष्ट्रीय अदालत के फैसले को मानने से इंकार कर दिया।
चीनी राष्ट्रपति शी चिनपिंग ने धमकी भरे अंदाज में कहा कि उनका देश किसी भी सूरत में अंतर्राष्ट्रीय न्यायाधिकरण के फैसले को स्वीकार नहीं करेगा। उल्लेखनीय है कि सभी तथ्यों के आलोक में ही पांच सदस्यीय अंतर्राष्ट्रीय न्यायाधिकरण ने सागर पर उसके दावे का खारिज किया और उसे दोषी ठहराते हुए कहा कि उसने इस इलाके में निर्माण करके नियमों का उलंघन किया है और फिलीपींस को समुद्र से तेल निकालने से रोका है। चीन की हठधर्मिता को देखते हुए वियतनाम का चिंतित होना लाजिमी है। लिहाजा ऐसे में वह अपने बचाव के लिए भारत के पाले में खड़ा होना चाहता है। अच्छी बात है कि भारत भी उसकी मदद के लिए तैयार है।
वियतनाम चीन के दबाव से बचने के लिए 2011 से ही भारत से ब्रह्मोस मिसाइल खरीदने को आतुर है। चूंकि भारत अब एमटीसीआर का पूर्णकालिक सदस्य बन चुका है ऐसे में वह वियतनाम से ब्रह्मोस मिसाइल का सौदा कर सकता है। अगर भारत वियतनाम को ब्रह्मोस मिसाइल बेचता है तो निःसंदेह चीन की परेशानी बढ़ेगी। गौर करें तो भारत और वियतनाम की निकटता विस्तारवादी चीन के लिए एक कड़ा संदेश यानी ‘जैसे को तैसा’ वाला सबक है। चीन को समझना होगा कि वह अपनी धौंसबाजी से वियतनाम को डरा नहीं सकता। उसे एक अच्छे-सच्चे पड़ोसी की तरह आचरण करना होगा। इसलिए और भी कि भारत वियतनाम के साथ है और उसके साथ किसी भी तरह की सीनाजोरी पर भारत अपनी आंख बंद नहीं कर सकता। भारत और वियतनाम की बढ़ती निकटता से उम्मीद है कि आने वाले वर्षों में दोनों देश कुटनीतिक, व्यापारिक व सामरिक साझेदारी का एक नया अध्याय लिखेंगे और समान रणनीतिक हित के मुद्दे पर एकदूसरे का पूरक बनेंगे।
( लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं )