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वास्तविक नुकसान______

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जन्म मरण तो आत्मा के साथ जुड़े होते हैं इनसे इतना नुकसान नहीं होता है वास्तविक नुकसान तो इससे होता है जब आदमी जीते जी मर जाता हैं यह नुकसान का सबसे बड़ा स्वर हैं । हम रोज रोज भगवद् भक्ति में ही क्यों लगे रहें ?मासिक , पाक्षिक या साप्ताहिक आराधना ही क्यों न करें ?

हो सकता हैं तर्क सही हो पर जैसे एक माँ के सामने बच्चा अपनी बात रोज़ मनवाता हैं ज़िद करता हैं कुछ ऐसे ही भावों से हमें भक्ति करनी चाहिए यह नियमित एवं सही समय पर करना सार्थक हैं । क्या खोया- क्या पाया सब अपने बनाए कर्म के कारण है । अरे न रुकी वक़्त की गर्दिश और न ज़माना बदला ।

पेड़ सूखा तो परिंदों ने ठिकाना बदला ।अब दोष भगवान को क्यों? हम ही है हमारे दोषी । धरती तो वज्रदिल बन सब कुछ सहती है एक माँ की तरह ।सरिता उतार चढ़ाव में भी अविरल बहती है एक माँ की तरह और हम नादान बच्चे अपनी नादानी के कारण दुःख के कगार तक पहुँच जाते है जहाँ सिर्फ़ और सिर्फ़ हताशा है निराशा है दोषारोपण हैं, समझे ज़रा भक्ति में रमे और बन सार्थक स्वर्ण कसौटी पर खरे उतरे।

बीज-धूप- खाद-जल रूपी कार्य सिद्धि से सही दिशा में आगे बढ़े।वरना आख़िर होगा तेरा जाना,कोई ना साथ निभाएगा ।तेरे कर्मों का फल बंदे साथ तुम्हारे आएगा ।चिंतन कर ले इन बातों का जन्म सफल हो जाएगा । किसी को दोष देने से बेहतर हैं ख़ुद सम्भले ।अपने जीवन की नींव हिलने से पहले ये गुनगुना ले मेरी भक्ति में कोई कमी तो नही फिर भी गाना ना आए तो में क्या करूँ ।

कैसे शब्दों की सीमा में बान्धू तुम्हें तेरा दिल ना रिझाए तो में क्या करूँ । इसलिए हृदय आज भी पवित्रता की गवाही देता हैं कि जिसने राग-द्वेष कामादिक, जीते सब जग जान लिया। सब जीवों को मोक्ष – मार्ग का निस्पृह हो उपदेश दिया । बुद्ध, वीर जिन, हरि, हर ब्रह्मा या उसको स्वाधीन कहो। भक्ति-भाव से प्रेरित हो यह चित्त उसी में लीन रहो।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़,राजस्थान )

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