Lok Dastak

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इच्छा तो बहुत रखता है खुलकर बरसने की….

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वो बादल बरसना तो चाहता है, करना चाहता है अपने मन की भी ।
लेकिन अहम उसका उसे ऐसा करने से रोकता है, सताता है उसे लोक लाज का डर भी ।
बेड़ियों ने उसे इस कदर जकड़ा है, मन की उसको करने की इजाज़त नहीं ।
उलझा हुआ है बहुत ही झमेलों में, वैसे इच्छा तो बहुत रखता है खुलकर बरसने की ।

उसको शायद याद भी नहीं, पिछली बार कब खुलकर बरसा था ।
कब उसने धरती को बूँदों से सराबोर किया था ।
अपना वजूद ही उसको खोता सा नज़र आ रहा है ।
एक वो भी समय था जब वो खुलकर बरसता था ।

अपने मन की ना होने के कारण खीज रहा है मन ही मन ।
धरती का तो जैसे, बन ही बैठा है वो दुश्मन ।
तरसा रहा है उसको एक एक बूँद के लिए ।
धरती भी बेबस, कुछ कर नहीं पा रही, लेकिन रो रहा है उसका भी अंतर्मन ।

धरती भाँप तो गई है बादल के मन का द्वंद ।
पर करे भी तो क्या, हाथ में उसके नहीं है पतंग ।
वो उसको उड़ान देना भी चाहे तो दे नहीं सकती ।
उसका भी तो दे बैठा है वो मन चुभन ।

इंतज़ार करने के सिवा धरती के पास अब कोई चारा भी तो नहीं ।
थोड़ा समय देना के सिवा उस समस्या का कोई हल भी तो नहीं ।
बस इसी कारण उसने बादल से दूरी बना रखी है ।
उम्मीद है जल्दी ही बरसेगा बादल, आख़िर दोनों में लगाव ही इतना है, सह नहीं पाएगा वो धरती की तपन ।

सुमन मोहिनी (नई दिल्ली)

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