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क्यों हो जाते हैं हम इतने नादान

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हम जानते है समझते है की कर्ता हमारी आत्मा है और आत्मा के द्वारा कृत को ही हम सब भोगते हैं । सिर्फ जानना ही नहीं उसको जीवन के आचरणों में भी हमको लाना हैं । कहते है की संपत्ति के उत्तराधिकारी तो एक से ज्यादा हो सकते है लेकिन कर्म के उत्तराधिकारी हम स्वयं ही होते है कोई दूसरा नहीं ।

जब हमारा वक़्त बुरा होता है तब लोग हमारा हाथ नहीं हमारी गलतियां पकड़ते है और उसका अपनी जरूरत के मुताबिक जैसे पूर्ति हो इस्तेमाल करते है ।इसके विपरीत हम समझते है कि लोग हमें पसंद करते है बस यही भ्रम है जिंदगी में हमारी सोच का ।कभी हो सकता है कर्म हमको सुख ना दे पाए।कितुं संभव नहीं कोई सुख कर्म बिन मिल जाए। कर्म की गठरी लाद के जग में फिरे इंसान ।

जैसा करे वैसा भरे विधि का यही विधान ।कर्म भूमि की दुनिया में,श्रम सभी को करना है ।भगवान सिर्फ लकीरें देता है रंग तो उसमे हमें ही भरना है । आर्थिक कमाई भले रुक जाए या धीमी चले पर कुछ ना कुछ और रहे आदि लेकिन हमें अपनी सही से आध्यात्मिक कमाई करते रहना है ।सोचे हम कर्मों की गठरी जो भारी हो चुकी थी कहीं ना कहीं वो हल्की हो रही है।

सुख को भी पचा लो दुख को भी पचा लो ।जीवन की हर अनुकूल व प्रीतिकूल स्थितियों का बड़े आनंद के साथ मजा लो । हर स्थिति में सुख से जीना सीखो और हर परिस्थिति में संतुष्ट दीखो । हम इस दुनिया में आते है एकदम खाली हाथ और अपने साथ कुछ भी नहीं लाते हैं । ठीक इसी तरह जब यह संसार छोड़कर जाते हैं तो अपने साथ कुछ भी नहीं ले जा सकते हैं ।

यानी आते हैं खाली हाथ जाते भी हैं खाली हाथ तो क्यों हो जाते हैं हम इतने नादान कि जानते हुए भी नहीं जानते यह बात।यही नहीं यह भी नहीं सोचते हम की इस खाली हाथ आने जाने वाली जिन्दगी में बात-बात में किस बात का हमको क्रोध? आदि । क्यों कर देते हैं विस्मृत हम अपना आत्मबोध। हम अपने जीवन में इतनी नादानी क्यों रखे ।

प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ ,राजस्थान )

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