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पालकी न कहार, दूल्हन कैसे हो डोली में सवार?

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अर्जुन सिंह भदौरिया

फिल्मी गीत “पालकी में होके सवार चली रे, मैं तो अपने साजन के द्वार चली रे” और “चलो रे डोली उठाओ कहार, पिया मिलन की रूत आई” पहले जरूर प्रासंगिक थे, लेकिन अब यह गुजरे जमाने की बात हो गई है। विशेष कर अवध क्षेत्र में अब किसी भी दूल्हा-दुल्हन को ससुराल जाने के लिए पालकी या डोली नसीब नहीं हो रही है। आधुनिकता की अंधी दौ़ड में जहां लक़डी की पालकी (पीनस) व डोली क्षतों में बंधी धूल फांक रही हैं, वहीं उसको ढोने वाले कहार भी बेरोजगार होने के बाद दूसरे रोजगारों में लिप्त हो गए हैं।

उत्तर प्रदेश के अवध क्षेत्र में तीन दशक पूर्व तक आधुनिकता का कहीं नामो-निशान नहीं था, तब शादी-विवाह की दावत में ब़डी मुश्किल से कोई साइकिल से चलकर शरीक हुआ करता था और दूल्हे की निकासी व द्वारचार लक़डी से बनी पालकी (पीनस) की सवारी और दुल्हन की बिदाई डोली में हुआ करती थी। लेकिन आधुनिकता की दौड़ में अब अवध क्षेत्र में भी अब फैशन का दौर सिर चढ़कर बोल रहा है। तीन दशक पहले दूर-दराज को जाने वाली बारातें भी बैलग़ाडी से ही जाया करती थीं।

ग्रामीण या शहरी क्षेत्र के लोग बैलगाड़ियों की संख्या के साथ उ़डती हुई धूल और बैलों की सजावट से वर पक्ष के आर्थिक ढांचे का मूल्यांकन किया करते थे। पर, इधर जमाना बदला और पुरानी परंपराएं व संसाधन भी बदल गए। उस जमाने में तीन दिन की बारात होती थी।लेकिन समय के साथ हुए बदलाव में अब 12 घंटे में ही शादी-विवाह की रस्में निपटने लगी हैं।

इस आधुनिकता की दौ़ड में जहां लक़डी से बनाई जाने वाली पालकी लंबरदारों (जमींदार) के घरों में प़डी धूल फांक रही है, वहीं दुल्हन की विदाई के लिए बनाई जाने वाली डोली भी कहीं नजर नहीं आती हैं। और तो और, पालकी व डोली ढोने वाले कहार सहालग में बेरोजगार होकर अपने घरों में बैठ गए हैं। वजह भी साफ है, शादी-विवाह में मंहगे ईधन से चलने वाले वाहनों का प्रयोग होने लगा है।
इससे पालकी और डोली को ग्रहण सा लग गया है। सिंहपुर क्षेत्र के गांव के रहने वाले रमेश कहार बताते है कि 30 साल पहले तक उसका कुनबा सहालग (शादी-विवाह का मौका) में पालकी और डोली ढोने में खासी रकम कमा लिया करते थे, अब इधर छोटे-ब़डे सभी लोगों की शादियों में चौपहिया वाहनों का इस्तेमाल होने लगा है, जिससे बेरोजगारी के चलते हम लोगों ने अपना रोजगार का दूसरा जरिया ढूंढ लिया है। इसी गांव के रहने वाले नंदकिशोर बाजपेई बताते हैं कि उनके पुरखों द्वारा बनवाई गई लक़डी की पालकी (पीनस) घर की चौपाल में छत में तंगी है।

पहले लोग पालकी के लिए चक्कर लगाया करते थे, अब कोई पूछता तक नहीं है। वह बताते हैं कि पहले दूल्हे की अपने गांव से निकासी पालकी (पीनस) की सवारी से होती थी, अब घो़डे वाले रथ से हो रही है और बारात बैलग़ाडी से जाया करती थी तो वह अब लक्जरी वाहनों से जाती है। सेमरौता गांव में शादी-विवाह और अन्य धार्मिक अनुष्ठान कराने वाले बुजुर्ग ब्राह्मण पंडित देवी प्रसाद मिश्र का कहना है, कि””जमाने के साथ लोग बदल गए हैं, जिससे पुरानी परंपराएं बंद होती जा रही हैं।

वाहन आदि से सिर्फ फिजूलखर्ची बढ़ रही है।”” वह कहते हैं कि पालकी और डोली शुभदायक होते हैं, लेकिन लोग अब दुल्हन को भी मारूति में विदा कर ले जाने लगे हैं।

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