विकास की गारंटी नहीं विशेष राज्य का दर्जा
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PRESENTED BY ARVIND JAYTILAK
केंद्र में सत्तारुढ़ एनडीए सरकार की सहयोगी जनता दल (यू) द्वारा एक बार फिर बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिए जाने की मांग की गई है। गत दिवस संपन्न पार्टी कार्यकारिणी की मीटिंग में जनता दल (यू) द्वारा जोर देकर कहा गया है कि बिहार के विकास के लिए स्पेशल स्टेट्स और विशेष आर्थिक पैकेज मिलना जरुरी है। देखना दिलचस्प होगा कि केद्र की सरकार अपने सहयोगी की मांग को कितना तवज्जो देती है। बहरहाल गौर करें तो यह पहली बार नहीं है जब बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिए जाने की मांग की गई है। 2009 में बिहार विधानसभा और 2010 में विधानपरिषद ने सर्वसम्मति से विशेष राज्य का दर्जा देने का प्रस्ताव पारित किया। उसके बाद राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के सांसदों ने 23 मार्च 2011 को इस मांग के समर्थन में प्रधानमंत्री को ज्ञापन सौंपा।
14 जुलाई 2011 को शरद यादव के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल प्रधानमंत्री से मिलकर उन्हें एक ज्ञापन सौंपा जिसमें सवा करोड़ लोगों के हस्ताक्षर थे। 4 नवंबर 2012 को पटना के गांधी मैदान में जनता दल (यू) ने महारैली कर विशेष राज्य की दर्जे की मांग का एलान किया और उस मांग के समर्थन में 17 मार्च, 2013 को दिल्ली के रामलीला मैदान में भी रैली की। उसके बाद जून 2013 में जनता दल (यू) ने भारतीय जनता पार्टी से इसलिए नाता तोड़ लिया कि केंद्र की मनमोहन सरकार बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दे देगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
मई 2013 में केंद्र सरकार ने तत्कालीन आर्थिक सलाहकार रघुरामराजन की अध्यक्षता में राज्यों को पिछड़ा क्षेत्र अनुदान निधि के मदों से आवंटन हेतु समेकित विकास सूचकांक के निर्माण के लिए एक छः सदस्यीय समिति का गठन किया। शैबल गुप्ता, भरत रामास्वामी, नजीब जंग, नीरजा जी जायल और तूहीन पांडे इस समिति के सदस्य थे। समिति ने सितंबर माह में वित्त मंत्रालय को सौंपी अपनी रिपोर्ट में राज्यों को धन उपलब्ध कराने के लिए बहुआयामी सूचकांक की नयी प्रणाली अपनाने का सुझाव दिया। लेकिन इस कवायद के बाद भी बिहार को विशेष राज्य का दर्जा नहीं मिला।
गौर करें तो मौजूदा समय में विशेष राज्य दर्जा प्राप्त राज्यों की संख्या 11 है। ये राज्य हैं-नगालैंड, सिक्किम, त्रिपुरा, मिजोरम, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, असम, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और जम्मू एवं कश्मीर। ध्यान दें तो विशेष दर्जा प्राप्त ये सभी राज्य पहाड़ी हैं और पिछड़ेपन होने की सभी शर्तों को पूरा भी करते हैं। गौर करें तो विशेष राज्य का दर्जा दिए जाने के दो आधार बनाए गए हैं। एक, वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय का मानक और दूसरा योजना आयोग का। वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय के अनुसार उन्हीं राज्यों को पिछड़ा माना गया है जिनका कमजोर संसाधन आधार और कमजोर अधिसंरचना है।
जो भौगोलिक अलगाव और अगम्य भू-क्षेत्र में स्थित हैं। जबकि योजना आयोग की शर्तों के मुताबिक उन राज्यों को पिछड़ा माना गया जो पहाड़ी क्षेत्र में स्थित हैं, जिनकी निम्न जनसंख्या घनत्व है, जिनकी स्थिति पड़ोसी देशों की सीमाओं पर है और जिनकी राजकीय वित्त व्यवस्था कमजोर है। केंद्र सरकार द्वारा संसाधनों के वितरण में विशेष दर्जा वाले राज्यों को अतिरिक्त आर्थिक मदद दी जाती है, ताकि आर्थिक असमानता और क्षेत्रीय असंतुलन दूर किया जा सके। इन राज्यों को 90 प्रतिशत केंद्रीय अनुदान और शेष 10 प्रतिशत ब्याजमुक्त कर्ज प्राप्त होता है। इसके अलावा उन्हें उत्पाद शुल्क में भी रियायत मिलती है ताकि वहां पूंजी निवेश हो सके। योजना व्यय के लिए केंद्र सरकार की सकल बजट योजना का 30 प्रतिशत हिस्सा भी उन्हें प्राप्त होता है।
इन राज्यों में उद्योग लगाने के लिए उद्योगपतियों को भारी प्रोत्साहन मिलता है। 12 वें वित्त आयोग ने सिफारिश की थी कि केंद्र सरकार को सिर्फ अनुदान देना चाहिए और यह राज्यों के उपर छोड़ देना चाहिए कि वे बाजार से कितना कर्ज लेना चाहते हैं। तब से विशेष श्रेणी के राज्यों के लिए 90 प्रतिशत अनुदान और 10 प्रतिशत ब्याजमुक्त कर्ज का फार्मूला यथावत है। सामान्य श्रेणी के राज्यों के लिए ऋणों और अनुदानों के बीच वही अनुपात है, जिस अनुपात में वह केंद्र को प्राप्त होता है। हालांकि 13 वें वित्त आयोग ने विशेष श्रेणी के राज्यों को अतिरिक्त संसाधन सहायता उपलब्ध कराने की सिफारिश के साथ ही यह भी सुझाव दिया कि केंद्र को 30.5 प्रतिशत के बजाए 32 प्रतिशत की राशि राज्यों की झोली में डालना चाहिए।
उसने केंद्र से कुल राजस्व से राज्यों को मिलने वाला हिस्सा भी 38 प्रतिशत से बढ़ाकर 39.5 प्रतिशत किए जाने की भी शिफारिश की। पर गौरतलब यह कि बात चाहे विशेष दर्जा प्राप्त राज्यों की हो या अन्य राज्यों की सभी आर्थिक बदहाली के संकट में हैं। विशेष दर्जा प्राप्त राज्यों का औद्योगिक राज्य बनने का सपना पूरा नहीं हो पाया है। असम, हिमाचल प्रदेश, मणिपुर तथा जम्मू-कश्मीर समेत अन्य विशेष दर्जा प्राप्त राज्यों पर भारी कर्ज है। तीन पहाड़ी राज्यों जम्मू-कश्मीर, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में औद्योगिक विकास के लिए कई योजनाएं बनी। निवेशकों को आकर्षित करने तथा रोजगार सृजित करने के लिए टैक्स में भारी कमी की गयी। दूसरे उपायों की भी घोषणा हुई। लेकिन परिणाम सकारात्मक नहीं दिखा। योजना आयोग ने जब 2013 में इन राज्यों को विकास की कसौटी पर कसा तो तस्वीर उत्साहजनक नहीं दिखी।
निवेशक टैक्स छूट का फायदा उठाने में तो सफल रहे लेकिन ये राज्य रोजगार सृजित करने में विफल रहे। राज्य सरकारों और स्थानीय प्रशासन की सुस्ती की वजह से कई निवेशक अपना कारोबार समेट लिए। नतीजा राज्य में आधारभूत ढांचा विकसित नहीं हो सका। ऐसे में यह धारणा पालना कि विशेष राज्य का दर्जा मिलने मात्र से राज्य की समस्याएं छूमंतर हो जाएंगी और राज्य तरक्की का छलांग लगा लेगा संभव नहीं। ऊंचा विकास लक्ष्य हासिल करने के लिए राज्यों को सबसे पहले भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना होगा और साथ ही आर्थिक अनुशासन तथा कानून-व्यवस्था भी दुरुस्त करना होगा। वैसे भी संभव नहीं है कि केंद्र सरकार एक साथ देश के सभी पिछड़े राज्यों को विशेष राज्य का दर्जा दे। पिछड़े राज्यों को तरक्की के लिए अपने पिछड़ेपन के मूल कारणों को तलाश कर उसका निदान ढुंढना होगा। वे पिछड़े इसलिए हैं कि वहां विकास नहीं हुआ।
किसी भी राज्य के विकास के लिए पारदर्शिता, ईमानदारी और प्रभावकारी कार्यसंस्कृति जरुरी है। पिछड़े राज्यों की सबसे बड़ी समस्या भ्रष्टाचार है। भ्रष्टाचार की वजह से ही वे उपलब्ध संसाधनों का समुचित उपयोग नहीं कर पाए हैं। कानून-व्यवस्था की बदहाली और संकुचित राजनीतिक दृष्टिकोण भी पिछड़ेपन के लिए जिम्मेदार हैं। अगर कानून-व्यवस्था दुरुस्त हो तो पिछड़े राज्यों में निवेशकों का रुझान बढ़ेगा और रोजगार सृजित होगा। लेकिन दशकों बाद भी पिछड़े राज्य अनुकूल वातावरण निर्मित नहीं कर पाए। कृषि, उद्योग और संरचनागत विकास के लिए माहौल नहीं बन पाया। गौर करें तो सभी पिछड़े राज्य कृषि प्रधान हैं।
अगर वे कृषि में वैज्ञानिक तकनीकी, अधिक उत्पादन, किसानों के उत्पादों को समुचित मूल्य व भारी निवेश पर ध्यान देते हैं तो राज्यों की तस्वीर बदल सकती है। इन राज्यों को व्यापार एवं होटल, उद्योग, सेवा क्षेत्र, बैंकिंग एवं बीमा इन सभी क्षेत्रों में निवेश को आकर्षित करना होगा। यह मान लेना कि विशेष राज्य का दर्जा मिल जाना ही विकास का मूलमंत्र है तो सही नहीं। गुजरात, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ समेत कई ऐसे राज्य हैं जिन्हें विशेष राज्य का दर्जा हासिल नहीं हैं, फिर भी विकास का ऊंचा लक्ष्य हासिल करने में सफल रहे। जबकि इसके उलट विशेष राज्य का दर्जा प्राप्त कई राज्य आर्थिक बदहाली के कगार पर हैं।
अगर बिना प्रयोजन विशेष राज्य के दर्जे की शर्तों में बदलाव हुआ तो उसके गंभीर कुपरिणाम उन राज्यों को भुगतना होगा जो आर्थिक अनुशासन, विधिक सुशासन और सतत विकास के बूते ऊंचे ग्रोथ रेट हासिल किए हैं। बदलाव का नतीजा यह भी होगा कि जिन राज्यों को अभी ज्यादा आर्थिक मदद मिल रही है उनमें कटौती होगी और पिछड़ेपन के शिकार राज्यों को उपकृत किया जाएगा। यह एक किस्म से अन्याय जैसा होगा।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं, लेख में विचार उनके अपने हैं)