प्रारब्ध कर्म के फलस्वरुप बीमारियां होती हैं – स्वामी मुक्तिनाथानंद
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REPORT BY AMIT CHAWLA
LUCKNOW NEWS I
प्रातः कालीन सत् प्रसंग में रामकृष्ण मठ लखनऊ के अध्यक्ष स्वामी मुक्तिनाथानंद ने बताया कि हम लोग जो कर्म करते हैं उसमें शुभ कर्म करने से शुभ फल होता है एवं मंद कम करने से मंद फल होता है जो कर्म करेगा उसका फल उसी को ग्रहण करना पड़ेगा यही कर्म का नियम है।
स्वामी जी ने बताया कि स्वामी विवेकानन्द ने संन्यासी की गीति में लिखा है, “जो बोते हैं उन्हीं को फसल उठाना पड़ेगा एवं प्रत्येक कारण का कार्य अनिवार्य है। शुभ कर्म करने से शुभ फल होता है एवं मंद कर्म करने से मंद फल होता है, यह विधान बंद करने की किसी की शक्ति नहीं है।”
स्वामी जी ने बताया कि हम जानते हैं कि श्री रामकृष्ण अंतिम जीवन में कठिन कैंसर रोग से आक्रांत हुआ था। उन्होंने एक दिन उनके एक अंतरंग गृहस्थ भक्त मास्टर महाशय से पूछा, “अच्छा रोग क्यों हुआ?” मास्टर महाशय ने बताया सबको सीखने के लिए आपको यह रोग हुआ है ताकि हम सब आपके रोग के बावजूद ईश्वर केंद्रित देखते हुए सीख सके कि हमारे जीवन में भी व्याधि होने से हम उसको ईश्वर चिंतन करते हुए अतिक्रम कर सकें।
स्वामी मुक्तिनाथानंद ने कहा बीमारी का एक द्वितीय कारण होता है प्रारब्ध कर्म का खंडन। हम जो कर्म करते हैं उसी का फल हमारे जीवन में वापस आता है एवं हमारी वर्तमान बीमारियों का अन्यतम कारण है, हमारे पूर्वकृत कर्म का फल। लेकिन भगवान श्री रामकृष्ण तो कोई पाप कर्म नहीं किया जिसका प्रारब्ध स्वरूप उनको यह भयानक बीमारी उत्पन्न हुआ।
इसका समाधान करते हुए स्वामी मुक्तिनाथानंद ने बताया ईश्वर अत्यंत दयावान होते हैं एवं भक्तों के कल्याण के लिए यह नर शरीर धारण करते हैं। श्री रामकृष्ण की स्तुति में कहा गया है –
सर्व -जीव -पाप – नाश – कारणं भवेश्वरं
स्वीकृतंच गर्भ – वास – देह – पाशमीदृशम्।
यापितं स्व- लीलया च येन दिव्य -जीवनं
तं नमामि देव – देव – रामकृष्णमीश्वरम्।।
अर्थात सर्व जीव को पाप हरण करने के लिए भगवान इस धराधाम में अवतीर्ण होते हैं एवं सबके पाप अपनी ओर खींच लेते हुए सबको पाप मुक्त कर देते हैं लेकिन वो पाप का फल अपने शरीर में झेल लेते हैं।
इसी कारण श्री रामकृष्ण ने कहा कि गिरीशचंद्र के पाप से उनको यह व्याधि हुआ। हम जानते हैं कि गिरीशचंद्र घोष श्री रामकृष्ण के एक गृहस्थ भक्त थे एवं अतीत जीवन में अत्यंत दुराचारी थे। वे स्वयं कहा करते थे, “मैंने जितने पाप किए अन्य कोई उतना पाप नहीं कर सकता है। मैं जहां पर बैठता हूं वहां पर दस हाथ तक की मिट्टी मेरे पाप से कलुषित हो जाती है।”
इस प्रकार का घोर पापी जब श्री रामकृष्ण के चरणों में आत्मसमर्पण किया तब श्री रामकृष्ण उनके सारे पाप ग्रहण करते हुए उनको पाप मुक्त कर दिया एवं हम आश्चर्य होकर देखते हैं कि अंत में गिरीशचंद्र का जीवन संतों के जीवन के बराबर हो गया था। लेकिन यह पाप ग्रहण करने के कारण श्री रामकृष्ण को भयानक बीमारी का कष्ट झेलना पड़ा जोकि आनंद सहकार अपने जीवन में ग्रहण किया।
स्वामी जी ने बताया कि कहा जाता है संतों का जीवन एवं ईश्वर का जीवन ब्लाटिंग पेपर के जैसा हो जाता है। ब्लाटिंग पेपर जैसे स्याही को चूस लेता है वैसे ही संत साधारण जीवों का कष्ट अपने जीवन में खींच लेते हैं एवं सबका जीवन पाप-मुक्त करने के लिए प्रयासी होते हैं।
श्री मां सारदा देवी के जीवन में भी हम देखते हैं कि कोई भी उनके पास आने से वे उनका पाप ग्रहण करते हुए उनको पाप मुक्त कर देती थीं।
श्री रामकृष्ण एवं श्री मां सारदा देवी का आविर्भाव सबको भगवान की ओर ले जाने के लिए सबकी पाप राशि अपने जीवन में ग्रहण करते हुए सबको पाप मुक्त कर दिया लेकिन स्वयं बीमारी से ग्रसित थे।
स्वामी मुक्तिनाथानंद ने कहा अतएव हमें श्री रामकृष्ण का यह अनूठा त्याग याद रखते हुए भगवान के चरणों में निरंतर प्रार्थना करना चाहिए ताकि हमारा जीवन ईश्वर को प्रत्यक्ष करते हुए एवं पाप मुक्त होते हुए सार्थक और सफल हो जाए।