“जे खाय चना ते रहै बना” की कहावत चरितार्थ करती है लाभकारी फसल चना
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चने की खेती रवी की महत्वपूर्ण और लाभकारी फसल है I पहले साग फिर हरे दानों की सब्जी फिर चने का खाने में बहु उपयोगी है I चने की जड़ों से बढ़ती है खेतों की उर्वराशक्ति बढ़ती है I चने के बारे में पुरानी गंवई कहावत है कि “जे खाय चना ते रहै बना” अर्थात चना खाने से आदमी हमेशा स्वस्थ रहता है।कुछ लोग तो चने को पेट का खरहरा भी कहते हैं अर्थात पेट की सफाई वाला अनाज कहते हैं इसीलिए आज के फैशन में मल्टी ग्रेन आटा में भी चने का अवश्य मिश्रण होता है। चना एक सबसे महत्वपूर्ण दलहनी फसल मानी जाती है। चने के पौधे की हरी पत्तियां साग और फलने पर हरा सूखा दाना सब्जियां बनाने में प्रयुक्त होता है।चने के दाने से अलग किए हुए छिलके को पशु चाव से खाते हैं।चने की फसल आगामी फसलों के लिए मिट्टी में नाइट्रोजन स्थिर करती है, इससे खेत की उर्वरा शक्ति भी बढ़ती है। सरकार चने की खेती को बढ़ावा देने के लिए किसानों को तरह तरह की सहूलियतें भी दे रही है। चना देश की सबसे महत्वपूर्ण दलहनी फसल है। चने को दालों का राजा भी कहा जाता है। पोषक मानक की दृष्टि से चने के 100 ग्राम दाने में औसतन 11 ग्राम पानी, 21.1 ग्राम प्रोटीन, 4.5 ग्राम वसा, 61.65 ग्राम कार्बोहाइड्रेट, पाया जाता है रबी मौसम में इसकी खेती की जाती है। अक्टूबर और नवंबर का महीना इसकी बुवाई के लिए अच्छा माना गया है। इसकी खेती के लिए सर्दी वाले क्षेत्र को सर्वाधिक उपयुक्त माना गया है।इसकी खेती के लिए 24 से 30 डिग्री सेल्सियस तापमान उपयुक्त है। खास बात यह है कि चने की खेती हल्की से भारी मिट्टी में भी की जा सकती है। लेकिन चने के अच्छे विकास के लिए 5.5 से 7 पीएच वाली मिट्टी अच्छी मानी गई है इसलिए चने की बुआई करने से पहले मिट्टी का शोधन जरूरी है।
चने की खेती के लिए इन बातो का ध्यान रखना जरूरी है। किसी भी फसल की खेती करने से पहले मिट्टी को शोधन जरूरी माना गया है। इसलिए यह नियम चने की खेती पर भी लागू होता है क्योंकि चने की फसल में कई प्रकार के रोग लग जाते हैं ऐसे में चने की बुआई करने से पहले मिट्टी शोधन जरूरी है किसानों को खेती की आखिरी जुताई करने से पहले दीमक व कटवर्म से बचाव के लिए मिट्टी में क्युनालफॉस 1.5 प्रतिशत चूर्ण 6 किलो प्रति बीघे के हिसाब से मिला देना चाहिए. फिर, दीमक नियंत्रण के लिए बिजाई से पहले 400 मिली क्लोरोपाइरिफॉस 20 ई सी या 200 मिली इमिडाक्लोप्रीड 17.8 एसएल की 5 लीटर पानी का घोल बनाकर तैरायर कर लें। फिर, 100 किलो बीज को उस घोल में अच्छी तरह से मिला दें ऐसा करने से फसल अच्छी होती है।इसी तरह जड़ गलन और उखटा रोग की समस्या से बचने के लिए बुवाई से ट्राइकोडर्मा हरजेनियम और स्यूडोमोनास फ्लोरेसेंस जैव उर्वरक का उपयोग करना लाभकारी होगा।चने की प्रजातियों पर चर्चा करते हुए बताया कि देशी छोटे दानों वाली किस्मों की 65 से 75 कि.ग्रा.प्रति हे हेक्टेयर यह प्रजातियां हैं जे.जी. 315, जे.जी.74, जे.जी.322, जे.जी.12, जे.जी. 63, जे.जी.
मध्यम दानों वाली किस्मों का 75-80 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर जे.जी. 130, जे.जी. 11, जे.जी. 14, जे.जी. और
काबुली चने की किस्मों का 100 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से बुवाई की जानी है और इसकी प्रजातियां जे.जी.के 1, जे.जी.के 2, जे.जी.के 3 हैं। चने में एक से दो सिंचाई की अवस्यकता होती है वह भी बहुत हल्की।यदि ह्योंती का पानी ऊपर वाला दे दे तो एक ही सिंचाई पर्याप्त है।
डा0 रतन कुमार आनंद
(कृषि विशेषज्ञ- प्रभारी कृषि विज्ञान केंद्र कठौरा)