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World Tribal Day : आदिवासियों की विरासत सहेजने की जरुरत

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PRESENTED BY ARVIND JAYTILAK

आज विश्व आदिवासी दिवस है। यह दिवस वैश्विक स्तर पर आदिवासी समाज के अधिकारों की रक्षा एवं जागरुकता बढ़ाने के लिए मनाया जाता है। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 1994 में 9 अगस्त विश्व के स्वदेशी लोगों का अंतर्राष्ट्रीय दिवस घोषित किया था। आज ही के दिन 9 अगस्त, 2018 को इनके स्वास्थ्य की स्थिति पर राष्ट्रीय रिपोर्ट विशेषज्ञ समिति द्वारा भारत सरकार को प्रस्तुत की गई थी। इस रिपोर्ट में इनकी आबादी के स्वास्थ्य की चुनौतियां और उनकी बेहतरी के ढ़ेरों उपाए सुझाए गए थे। सवाल यह है कि क्या इनकी आबादी के स्वास्थ्य के लिए सुझाए गए उपायों पर अमल हो रहा है? क्या इनकी संपत्ति, संस्कृति और विरासत सहेजने की कोशिश हो रही है? क्या इस समाज को विकास की मुख्य धारा से जोड़ने का प्रयास हो रहा है?

अगर इन संकल्पों की सिद्धि का प्रयास हो रहा है तो ठीक है अन्यथा इस दिवस को मनाने का कोई औचित्य नहीं है। इसलिए कि इस समाज की चुनौतियां कम होने के बजाए लगातार बढ रही है। इन्हंे हर रोज विस्थापन से लेकर अपनी संपत्ति, संस्कृति और विरासत को सहेजने-बचाने की चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। गत वर्ष पहले संयुक्त राष्ट्र संघ की ‘द स्टेट आफ द वर्ल्डस इंडीजीनस पीपुल्स’ नामक रिपोर्ट से उद्घाटित हो चुका है कि मूलवंशी और आदिम जातियां भारत समेत संपूर्ण विश्व में अपनी संपदा, संसाधन और जमीन से वंचित व विस्थापित होकर विलुप्त होने के कगार पर हैं। रिपोर्ट से उद्घाटित हुआ था कि खनन कार्य के कारण हर रोज हजारों आदिवासी परिवार विस्थापित हो रहे हैं। विस्थापन के कारण उनमें गरीबी, बीमारी और बेरोजगारी बढ़ रही है।

आमतौर पर आदिवासी समाज सीधा और सरल माना जाता है लेकिन उनकी परंपरागत अर्थव्यवस्था पर हमला ने उन्हें आक्रोशित बना दिया है। मूलवासी जनसमूह आजीविका के संकट से तो जूझ रहें हैं तथा साथ ही उन्हें कई तरह की बीमारियों का भी सामना करना पड़ रहा है। अगर विकसित देश अमेरिका की ही बात करें तो यहां इस समूह के लोगों को तपेदिक हाने की आशंका 600 गुना अधिक रहती है। आस्ट्रेलिया में इस समुदाय का कोई बच्चा किसी अन्य समूह के बच्चे की तुलना में 20 साल पहले ही मर जाता है। नेपाल में अन्य समुदाय के बच्चे से इस समुदाय के बच्चे की आयु संभाव्यता का अंतर 20 साल, ग्वाटेमाला के 13 साल और न्यूजीलैण्ड में 11 साल है। विश्व स्तर पर देखे तो इस समुदाय के कुल 50 फीसदी लोग टाइप-2 मधुमेह से पीड़ित हैं। बीमारी व हस्तक्षेप से इस समाज का तेजी से पलायन हो रहा है।

गत वर्ष पहले नेशनल फेमिली हेल्थ सर्वे की रिपोर्ट से उद्घाटित हुआ था कि कोलम (आंध्रप्रदेश और तेलंगाना) कोरगा (कर्नाटक) चोलानायकन (केरल) मलपहाड़िया (बिहार) कोटा (तमिलनाडु) बिरहोर (ओडिसा) और शोंपेन (अंडमान और निकोबार) के विशिष्ट संवेदनशील आदिवासी समूहों की तादाद घट रही है। आंकड़े बताते हैं कि स्वतंत्रता के बाद से लेकर अब तक इस आबादी में दस फीसदी से अधिक की कमी आई है। आदिवासी बहुल राज्य झारखंड की ही बात करें तो वर्ष 1951 में जहां आदिवासी आबादी 35.80 फीसदी थी, वह 1991 में घटकर 27.66 फीसदी रह गयी। वर्ष 2001 की जनगणना के मुताबिक उनकी आबादी 26.30 रही जो 2011 की जनगणना के मुताबिक घटकर 26.11 फीसदी रह गयी है। उल्लेखनीय है कि यह आंकड़ा गत वर्ष पहले झारखंड राज्य के जनजातीय परामर्शदातृ परिषद द्वारा जारी किया गया था।

यहां ध्यान देना होगा कि न सिर्फ आदिवासियों की तादाद कम हो रही है बल्कि परसंस्कृति ग्रहण की समस्या ने भी उन्हें दोराहे पर खड़ा कर दिया है। नतीजा न तो वह अपनी संपत्ति व संस्कृति बचा पा रहें है और न हीे आधुनिकता से लैस होकर राष्ट्र की मुख्य धारा में शामिल हो पा रहें हैं। बीच की स्थिति से उनकी विरासत दांव पर लगी हैैै। गौर करें तो यह सब उनके जीवन में बाहरी हस्तक्षेप के कारण हो रहा है। भारत में ब्रिटिश शासन के समय सबसे पहले आदिवासियों के सांस्कृतिक जीवन में हस्तक्षेप की प्रक्रिया शुरु हुई। ईसाई मिशनरियों ने आदिवासी समुदाय में पहले हिन्दू धर्म के प्रति तिरस्कार और घृणा की भावना पैदा की। उसके बाद उन्हें ईसाई धर्म ग्रहण करने के लिए प्रोत्साहित किया। लिहाजा बड़े पैमाने पर उनका धर्म परिवर्तन हुआ। ईसाईयत न तो उनकी गरीबी को कम कर पायी और न ही उन्हें इतना शिक्षित ही बना पायी कि वह स्वावलंबी होकर अपने समाज का भला कर सकें।

ईसाईयत के बढ़ते प्रभाव के कारण हिन्दू संगठन भी उठ खड़े हुए और आदिवासियों के बीच धर्म प्रचार आरंभ कर दिए। हिन्दू धर्म के प्रभाव के कारण आदिवासियों में भी जाति व्यवस्था के तत्व विकसित हो गये। आज उनमें भी जातिगत विभाजन के समान ऊंच नीच का एक स्पष्ट संस्तरण विकसित हो गया है। यह संस्तरण उनके बीच अनेक संघर्षो और तनावों को जन्म दिया है। इससे आदिवासियों की परंपरागत सामाजिक एकता और सामुदायिकता खतरे में पड़ गयी है। आज स्थिति यह है कि धर्म परिवर्तन के कारण बहुत से आदिवासियों को संदेह की दृष्टि से देखा जाता है। हिन्दुओं में खान-पान ,विवाह और सामाजिक संपर्क इत्यादि के प्रतिबंधो के कारण वे उच्च हिन्दू जातियों से पूर्णतया पृथक हैं। जबकि ईसाईयों ने भी धर्म परिवर्तन करके हिन्दू बन जाने वाले आदिवासियों को अपने समूह में अधिक धुलने मिलने नहीं दिया।

विवाह और सामाजिक संपर्क के क्षेत्र में उन्हें अब भी एक पृथक समूह के रुप में ही देखा जाता है। आज भारत की उत्तर पूर्वी तथा दक्षिणी भागों की आदिवासियों में कितने ही व्यक्ति अंग्रेजी को अपनी मातृभाषा के रुप में स्वीकार कर अपनी मूलभाषा का परित्याग कर दिया है। सत्यता तो यह है कि प्रत्येक समूह की भाषा में उसके प्रतीकों को व्यक्त करने की क्षमता होती है। यदि भाषा में परिवर्तन हो जाय तो समूहों के मूल्यों और उपयोगी व्यवहारों में भी परिवर्तन होने लगता है। आदिवासी समूहों में उनकी परंपरागत भाषा से संबधित सांस्कृतिक मूल्यों और आदर्श नियमों का क्षरण होने से आदिवासी समाज संक्रमण के दौर से गुजरने लगा है। आदिवासियों की संस्कृति पर दूसरा हमला कारपोरेट जगत की ओर से हो रहा है। जंगलो को काटकर और जलाकर उस भूमि को जिस प्रायोजित तरीके से उद्योग समूहों को सौंपा जा रहा है, उसका प्रभाव उनकी संस्कृति पर दिख रहा हैं।

देश में नब्बे के दशक से ही विदेशी निवेश बढ़ाने की गरज व खनन नीतियों में बदलाव के कारण आदिवासी परंपरागत भूमि से बेदखल हो रहे हैं। एक रिपोर्ट में आदिवासी जनसमुदाय की दशा पर ध्यान खींचते हुए कहा गया है कि इनकी आबादी विश्व की जनसंख्या की महज 5 फीसदी है, लेकिन दुनिया के 90 करोड़ गरीब लोगों में मूलवासी लोगों की संख्या एक तिहाई है। विकसित और विकासशील दोनों ही देशों में कुपोषण, गरीबी और सेहत को बनाए रखने के लिए जरुरी संसाधनों के अभाव और प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के कारण आदिवासी जनसमूह विश्वव्यापी स्तर पर अमानवीय दशा में जी रहें हैैं। यह समाज भाषा के संकट से भी जूझ रहा है। संभावना है कि इस सदी के अंत तक इस समाज की 90 फीसदी भाषाएं विलुप्त हो जाएंगी।

गत वर्ष पहले ‘भाषा रिसर्च एंड पब्लिकेशन सेंटर’ द्वारा किए गए ‘भारतीय भाषाओं के लोकसंरक्षण’ की मानें तो विगत 50 वर्षों में भारत में बोली जाने वाली 850 भाषाओं में तकरीबन 250 भाषाएं विलुप्त हो चुकी हैं और 130 से अधिक भाषाओं का अस्तित्व खतरे में है। इन विलुप्त होने वाली भाषाओं में सर्वाधिक आदिवासियों द्वारा बोली जाने वाली भाषाएं हैं। शोध के मुताबिक असम की 55, मेघालय की 31, मणिपुर की 28, नागालैंड की 17, और त्रिपुरा की 10 भाषाएं मरने के कगार पर हैं। आज जरुरत इस बात की है कि आदिवासियों का जीवन व संस्कृति दोनों बचाया जाए। अन्यथा संस्कृृति और समाज की टूटन उन्हें राष्ट्र की मुख्य धारा से अलग कर देगी।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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