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ARTICLE : भारत साइप्रस का मसला उछाले, चीख उठेगा तुर्की !

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PRESENTED BY ARVIND JÀYTILAK

संस्कृत की एक प्रसिद्ध कहावत है ‘शठे शाठयम समाचरेत्’। यानि दुष्ट के साथ दुष्टता का ही व्यवहार होना चाहिए। यूरेशिया में स्थित तुर्की ऐसा ही एक दगाबाज देश है जिसके साथ इसी तरह का व्यवहार होना चाहिए। इसलिए कि उसने भारत के विरुद्ध आतंकियों के प्रश्रयदाता देश पाकिस्तान के साथ कंधा जोड़ने की हिमाकत की है। उसने भारत के ‘ऑपरेशन सिंदूर के विरुद्ध पाकिस्तान को गोला-बारुद, समुद्री जहाज, ड्रोन और हरक्यूलिस विमान उपलब्ध कराकर रेखांकित कर दिया है कि वह दुनिया का सबसे अहसान फरामोश और कृतध्न देश है। उसके लिए दोस्ती बेमानी है। अलग बात है कि पाकिस्तान को दिए उसके सभी हथियार फुस्स साबित हुए हैं। भारत ने उसके सभी ड्रोन एवं उसके सैन्य ऑपरेटिव्स मार गिराए। इससे दुनिया भर में उसकी भद्द पीट रही है। तुर्की कितना अहसान फरामोश है इसी से समझा जा सकता है कि वर्ष 2023 में वहां आए भीषण भूकंप में भारत ने ‘ऑपरेशन दोस्त’ के जरिए उसे राहत सामग्री भेजकर भरपूर मदद की थी।

लेकिन उसने इस अहसान को दरिया में डालकर जेहादियों से गलबहियां कर बैठा। उसके इस कृत्य से भारत में आक्रोश और गुस्सा होना लाजिमी है। भारत के नागरिकों द्वारा उसके वस्तुओं के आयात को बंद किए जाने और उसके सामानों के बहिष्कार की मांग तेज हो गई है। भारतीय व्यापारी टर्किश सेब के बहिष्कार का ऐलान कर दिए हैं। पर्यटन पर निर्भर तुर्की के लिए ट्रैवल एजेंसियों ने भी ट्रैवल पैकेज रद्द करने का ऐलान कर दिए हैं। मेक माई ट्रिप के मुताबिक तुर्की की बुकिंग में तकरीबन 60 फीसदी की गिरावट आई है। दूसरी ओर जामिया और जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय समेत कई अन्य भारतीय विश्वविद्यालयों ने तुर्की के विश्वविद्यालयों से अपना समझौता रद्द कर दिया है। मतलब साफ है कि अब तुर्की को पाकिस्तान से कंधा जोड़ने की कीमत चुकानी ही होगी।

उचित होगा कि भारत तुर्की को सबक सिखाने के लिए उसकी दुखती रग साइप्रस का मसला उठाकर उसकी अंतर्राष्ट्रीय घेराबंदी तेज करे। गौरतलब है कि तुर्की साइप्रस के 36 प्रतिशत से ज्यादा हिस्से पर कब्जा जमा रखा है। साइप्रस की भौगोलिक परिदृश्य पर नजर डालें तो यहां मुख्य रुप से ग्रीस और तुर्की समुदाय के लोग रहते हैं। इनके बीच दशकों पहले से नस्लीय विवाद चला आ रहा है। इतिहास में जाएं तो साइप्रस कभी अंग्रेजों की कॉलोनी हुआ करता था। 1878 से चले आ रहे ब्रिटिश उपनिवेश का अंत 1960 में हुआ और साइप्रस को एक नए देश के रुप में पहचान मिली। चूंकि साइप्रस एक नया देश था लिहाजा वहां सत्ता-संघर्ष की स्थिति तेज हो गयी। लिहाजा 15 जुलाई, 1974 को तुर्की की सेना ने साइप्रियट नेशनल गार्ड की अगुवाई में साइप्रस के अंदरुनी हालातों का फायदा उठाते हुए अंतर्राष्ट्रीय कानून को ठेंगा दिखाकर उत्तरी हिस्से पर आक्रमण कर उसके महत्वपूर्ण शहर वरोशा पर कब्जा कर लिया।

उस समय साइप्रस में सैन्य विद्रोह चल रहा था। इस विद्रोह को ग्रीस का समर्थन प्राप्त था। तुर्की कतई नहीं चाहता था कि साइप्रस में ग्रीस का हस्तक्षेप हो। वैसे भी ग्रीस और तुर्की के बीच पहले से ही समुद्री क्षेत्र को लेकर तनाव चल रहा था। साइप्रस को हथियाने के खेल में तुर्की भारी पड़ा और उसने उत्तरी हिस्से पर कब्जा कर उसे टर्किश रिपब्लिक ऑफ नॉदर्न साइप्रस नाम दे दिया। तब सुरक्षा परिषद के सभी देशों ने तुर्की के इस कदम की निंदा की। 2 अगस्त, 1975 को तुर्की और साइप्रस के बीच वियना में समझौता हुआ। समझौते के मुताबिक तय हुआ कि तुर्की अपने बलात् किए गए कब्जे वाले इलाके में लोगों को शिक्षा, स्वास्थ्य और अपने मजहब को मानने की आजादी समेत सामान्य जीवन जीने में मददगार हर बुनियादी सुविधा उपलब्ध कराएगा। लेकिन तुर्की ने इस समझौते को ठेंगा पर रख अपना अत्याचार जारी रखा।

वर्ष 1998 के प्रस्ताव में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने सभी सदस्य देशों से साइप्रस गणराज्य की संप्रभुता, स्वतंत्रता और क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करने की बात कही। लेकिन तुर्की जबरन कब्जा किए इलाके को नहीं छोड़ा। तुर्की के आक्रमण के कारण 162000 ग्रीक-साइप्रियोट अपने ही देश में शरणार्थी बनकर रह गए। जो लोग अपना घर छोड़ने के लिए तैयार नहीं हुए उन पर तुर्की ने इस कदर कहर बरपाया कि वे अपनी संपत्ति छोड़कर भागने को मजबूत हो गए। आज इस इलाके में ग्रीक-साइप्रियोट की आबादी महज तीन सैकड़ा ही बची है। जिन लोगों ने तुर्की के बलात् कब्जे का विरोध किया उन्हें जेलों में ठूंस दिया गया। तुर्की ने इस इलाके में अपनी पकड़ मजबूत बनाए रखने के लिए हजारों तुर्क परिवारों को बसा रखा है।

इस कारण दक्षिण और उत्तर साइप्रस के बीच यदा-कदा तनाव की स्थिति उत्पन होती रहती है। तुर्की के बलात् कब्जे के बाद से ही यह द्वीप दो हिस्सों में बंट गया है। तुर्क साइप्रसवासियों ने अपने इलाके को टर्किश रिपब्लिक ऑफ नॉदर्न साइप्रस नाम दिया है। फिलहाल इसे सिर्फ तुर्की ने ही मान्यता दे रखा है। तुर्की द्वारा जबरन कब्जाया गया साइप्रस का यह उत्तरी इलाका लोगों की जीविका और आमदनी का बड़ा स्रोत हुआ करता था। यह इलाका वर्ष भर पर्यटकों से भरा गुलजार रहता था। आर्थिक रुप से समृद्ध यह इलाका बहुमंजिली इमारतों के लिए भी जाना जाता था। लेकिन तुर्की के अत्याचार ने इसे वीरान बना दिया है। यहीं नहीं किसी तरह का विरोध न हो इसके लिए यहां उसने 40 हजार से अधिक सैनिकों का जमावड़ा कर रखा है। तुर्की नहीं चाहता है कि इस इलाके में किसी अन्य देश का हस्तक्षेप हो

। लेकिन अब वक्त आ गया है कि भारत इस मसले को हवा देकर वैश्विक स्तर पर तुर्की की फजीहत बढ़ाए। याद होगा वर्ष 2022 में भारतीय विदेशमंत्री एस जयशंकर ने संयुक्त राष्ट्र महासभा (यूएनजीए) में साइप्रस का मुद्दा उठाकर तुर्की की चौधराहट की हवा निकाल दी थी। तब भारतीय विदेशमंत्री ने तुर्की के विदेशमंत्री मेवलुत कावुसोग्लू से मुलाकात कर साइप्रस की स्वतंत्रता, संप्रभुता और स्वायत्तता की बात उठाया था। उन्होंने ट्वीट कर यह भी कहा था कि वह संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव के हिसाब से साइप्रस मुद्दे का शांतिपूर्ण हल निकाले। ध्यान देना होगा कि तुर्की के दक्षिण में स्थित साइप्रस का इलाका इसलिए महत्वपूर्ण है कि इसके पश्चिम में सीरिया और उत्तर पश्चिम में इजरायल अवस्थित है। इस नाते इस इलाके का रणनीतिक और सामरिक महत्व बढ़ जाता है।

कुटनीतिक और सामरिक रुप से देखें तो इस इलाके पर जिसकी पकड़ मजबूत होगी वह बड़ी आसानी से भूमध्यसागर के पूर्वी हिस्से नियंत्रित कर सकता है। यहीं वजह है कि इस इलाके पर आसपास के देशों की नजर बनी रहती है। तुर्की का दक्षिणी भाग यूरोपीय यूनियन का सदस्य है जिसे आज की तारीख में साइप्रस का मुख्य भाग माना जाता है। चूंकि मौजूदा समय में दुनिया भर में भारत की साख बढ़ी है और वैश्विक मंचों पर उसकी आवाज सुनी जा रही है। ऐसे में साइप्रस का मुद्दा तुर्की के गले की फांस बन सकता है। गौर करें तो तुर्की न सिर्फ पाकिस्तान के साथ कंधा जोड़ा है बल्कि वह बार-बार कश्मीर का मुद्दा उठाकर भारत को असहज करने की चेष्टा करता है। वह अन्य मसलों पर भी भारत के खिलाफ जाकर पाकिस्तान का साथ देता है।

गत वर्ष पहले उसने पाकिस्तान की शह पर भारत का 56,877 मिलियन टन अनाज से लदे जहाज को वापस भेज दिया था। उसने ऐसा कर वैश्विक बाजार में भारतीय अनाज निर्यात की साख खराब करने की कोशिश की थी। यहीं नहीं वह इंटरनेट मीडिया और अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संगठनों के जरिए भी भारत विरोधी केंद्र के रुप में इस्तेमाल हो रहा है। तुर्की के आक्रमक व्यवहार को देखते हुए समय आ गया है कि भारत भी उसके विरुद्ध खुलकर पत्ते खेले। भारत को न सिर्फ साइप्रस के मसले को उठाना चाहिए बल्कि ग्रीस और आर्मिनिया के साथ कंधा जोड़कर तुर्की की तेज घेराबंदी करनी चाहिए। इसलिए कि ग्रीस और आर्मिनिया दोनों ही तुर्की के शत्रु हैं और नीति भी कहती है कि ‘शत्रु का शत्रु मित्र’ होता है।

 

 

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