अध्यात्म की बातें _______ सत्पथ पर आ जाए अंतरात्मा
1 min readPRESENTED BY PRADEEP CHHAJER
BORAVAR,RAJSTHAN।
कामना, तृष्णा , ईर्ष्या , असंतोष , क्रोध आदि – आदि मानव को सही राह से दूर करते रहते है । समय बदलने के साथ-साथ व्यक्ति के व्यवहार के साथ पारिवारिक, सामाजिक वातावरण पर भी असर अवश्य आता ही है।आजकल पढ़-लिखकर उसी अनुसार जीवकोपार्जन के लिए दूर चले जाना मजबूरी नहीं , Compulsion है। आज जमाना तो बदला ही पर साथ में इंसान की सोच भी बदल गयी । इस आर्थिक उन्नति के पीछे भागते हुये इंसान रिश्तों की मर्यादा भूल गया।
आज अख़बार में प्रायः पढ़ने को मिलता है कि अमुक व्यक्ति ने अपने पिता की सभी जायदाद हासिल करने के लिए बाप-बेटे के रिश्ते को तार-तार करते हुये क्या – क्या कर दिया स्वयं को जन्म देने वाले और उसकी परवरिश करने वाले माँ-बाप के साथ भी इसलिये आज के वर्तमान समय को देखते हुये सामाजिक स्तर पर यह सही चोट है कि इंसान ने भौतिक सम्पदा ख़ूब इकट्ठा की होगी और करेंगे भी पर उनकी भावनात्मक सोच का स्थर गिरते जा रहा है जो प्रेम-आदर आदि अपने परिवार में बड़ों के प्रति पहले था वो आज कहाँ है ?
अंहकार,ममकार के तिमिर पर, विवेक,संयम की लौ प्रज्वलित कर प्रहार करें। राग-द्वेष की परतें जन्म- जन्मान्तरों से हमारे भीतर बहुत गहरे जमी हुई हैं। इनसे निजात पाने के लिए हर किसी को अनवरत-अविराम संघर्ष करना पङेगा क्योंकि इनको मोह ‘माया, छल, प्रपंच के सबल,सशक्त चेहरे आदि पोषित कर रहे है । जिस तरह एक मकान की नींव कितनी ही मजबूत क्यू न हो पर आकर्षक वह भीतरी साज-सजा से ही लगता हैं । इसलिये हम करे इष्ट से प्रार्थना कि हमारी भावना हो करुणापूर्ण और करे बस एक ही याचना कि हमारी अंतरात्मा शीघ्र सत्पथ पर आ जाए ।
व्यर्थ है ऐसी सम्पदा कमाना
सम्पदा कमाना बुरा नहीं है पर बुरा है इसमें मदहोश होना जिसके प्रभाव में मानव अहं रूपी घोड़े पर सवार होकर सही – गलत , अपनापन , रिश्ते – नाते आदि को भूल जाता है । मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी है धन के प्रति आकर्षण।इंसान चाहे छोटा हो या बड़ा,धन के मोह में ऐसा फँसता है कि उससे दूर होना जैसे एक शराबी को शराब से दूर करना।जिसके पास कल तक कुछ नहीं था,आज बहुत कुछ है।
जैसे-जैसे धन बढ़ता है वैसे-वैसे धन की तृष्णा के चक्रव्यूह में ऐसे फँसता है जैसे अभिमन्यु।उस चक्रव्यूह में घुसना तो आसान है पर बाहर आना बहुत मुश्किल। हर व्यक्ति जानता है कि अंत समय में एक पाई भी यंहा से लेकर नहीं जायेंगे।पर धन की तृष्णा का आवरण आँखों के आगे ऐसा आता है कि वो इंसान धन का सही उपयोग करना तो भूलता ही है और साथ में धार्मिक क्रियाओं से भी दूर हो जाता है।
अधिक प्राप्ति की कामना ,दूसरे से अधिक मान सम्मान हो, संपदा हो, महल हो आदि हर मनुष्य की कामना रहती है और यही दुख का कारण बनता है। भगवान बुद्ध की परिभाषा में यही तृष्णा है जो सभी मानव जाति के दुखों की जड़ है ।मानव अपनी तृष्णा रूपी ज्वालाओं को शांत करने का प्रयत्न करता है पर उसे उनसे शांति प्राप्त नहीं होती है ।
वह कर्म बांधता जाता है ,समुद्र की लहरों की तरह इच्छाओं पर सवार मनुष्य जीवन सागर में भटकता रहता है तभी तो कहा है कि ऐसी सम्पदा कमाना व्यर्थ है ।