यूसीसी के संकल्प के साथ ज़रूरी है डॉ. आंबेडकर के विचारों का तादात्म्य
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भारत अपने संविधान के साथ डॉ. आंबेडकर को स्मरण करता है। उनके द्वारा वंचितों, शोषितों और पिछड़ों के लिए किये गए कार्य को भी जगह-जगह उद्धृत करता है। डॉ. आंबेडकर को यह विश्वास था कि इन वर्गों के अधिकारों का संरक्षण भारतीय संविधान के दायरे में रहकर किया जा सकेगा किन्तु उन्होंने हिन्दू कोड बिल के साथ जो तमाशा भारत में देखा तभी उनका मन खिन्न हो गया था। उन्होंने साफ-साफ कह दिया था कि संसद में हिन्दू कोड बिल पर बात न होकर दूसरे मुद्दों पर बहस हो रही है। भारत के लिए जो जरूरी है हिन्दू कोड बिल पर बहस करना उसको नजरंदाज़ किया जा रहा है। एक दिन आया कि उन्होंने अपना त्याग पत्र भी दे दिया और उन्हें अपने ही बनाये संविधान से चिढ होने लगी। उन्हें लगा कि हिंदुस्तान के लोग संविधान का भी सम्मान करेंगे आने वाले समय में या नहीं?
डॉ. आंबेडकर की वह आशंका आज़ादी के 75 वर्ष बाद सत्य साबित हो रही है। उन्होंने संविधान की प्रासंगिकता पर एक बार सवाल किया, वह हो सकता है अनमने ढंग से की हो और गुस्से में की हो, लेकिन जिस प्रकार वंचित, दलित, शोषित और पीड़ित लोगों की संख्या 75 वर्ष बाद भी कम नहीं हुई है तो उससे एक बार कोई भी सोचने को मजबूर हो जाता है, बाबासाहेब तो संविधान के कर्ताधर्ता लोगों में शामिल थे। निःसंदेह हाल की कुछ घटनाओं ने आज सबको कुछ ज्यादा सोचने को मजबूर कर दिया है।
मध्य प्रदेश के सीधी जिले में एक सवर्ण व्यक्ति के दुष्कृत्य ने भारत के संवैधानिक गरिमा को चुनौती दी है। एक आदिवासी के सिर पर अपवर्ज्य पदार्थों का विसर्जन करना कितनी घृणित बात है। ऐसा करने वाला व्यक्ति भारत के संविधान में प्रदत्त गरिमा और अधिकार को या तो जानता नहीं है या तो वह जानबूझकर ऐसा किया, यह कहा जा सकता है। लेकिन उस घटना के बाद जो घटनाएँ घटीं वह बहुत ही शर्मनाक कही जाएँगी। राजधर्म निभाने के लिए जो प्रतिष्ठित किए गए हैं वे, जो राज-व्यवस्था के संचालक हैं वे, सब के सब राजनीति करके अपने-अपने तरीके से भारतीय संस्कारों, सभ्यता एवं संस्कृति का मजाक उड़ा रहे हैं, इससे दुखद बात और क्या हो सकती है? ऐसा लगता है कि भारतीयता का सबसे हास्यास्पदकाल चल रहा है। कोई अपवर्ज्य का विसर्जन कर रहा है तो कोई उसकी भरपाई में बुलडोजर से घर तोड़ रहा है और चरण पखार रहा है। आज के समय में बाबासाहेब होते तो यह सब देखकर अपना सिर पीट लेते और बहुत दुखी होते। उनकी कड़ी मेहनत से तैयार किया संविधान और उसमें प्रतिष्ठित मूल्यों का इतना अपमान देख वह निश्चय ही अपने भारत पर हँसते, गर्व तो नहीं करते।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह किसी एक क्षेत्र या राज्य से घटनाएँ नहीं देखी या महसूस की जा रही हैं. देश के अन्य कोने से इसी प्रकार की घटनाएँ जब आ रही हैं तो ऐसा भी लगता है कि यह समस्या अब देशव्यापी समस्या बन गई है। कोई किसी का भी अपमान कर सकता है। कोई किसी से अपमानित हो सकता है। यह एक चलन जो अपने चरम पर पहुँच चुका है भारत में वह भारत के लिए अपमानजनक भविष्य का सूचक है। इससे माहौल ख़राब हो रहा है और भारत बदनाम हो रहा है।
बाबासाहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर ने यह कुलीन मानसिकता मिटने का भरसक प्रयास किया किन्तु हिंदुस्तान में भले ही संविधान का राज हो जाये पर मूर्खता और बेशर्मी की जड़ें भी उतनी ही गहरी हैं। एक बार भारत के लोकसभा अध्यक्ष रहे एम. ए. अयंगर ने कहा था कि वह हमारे संविधान के नियामक थे। सामाजिक सुधार के क्षेत्र में उन्होंने अनेक हितकारी उपायों का सूत्रपात किया। यह बात सही है लेकिन बाबासाहेब हमेशा जिन्दा तो नहीं रहेंगे कि वह इस प्रकार की किसी भी सभ्यता के प्रतिरोध करते रहेंगे। वे अपने समय के साथ जितना किए उसके पीछे उनका मत था कि भारत के लोग आने वाले समय में बराबरी और सामान गरिमा के साथ रहेंगे किन्तु भारत नहीं सुधरा। भारत में चेंज आए लेकिन मानसिक स्तर पर जो सबको मेलजोल और प्रतिष्ठा देने की बात थी वह उस मात्रा में नहीं फैली जितना फैलना चाहिए थे। आज के हालत यह बताते हैं कि शोषण के तरीके बदल गए हैं। संविधान है पर संविधान में जिस गरिमा, स्वतंत्रता और उदारता की बात थी, वह लोगों के दिलों का हिस्सा नहीं बन सका। फलतः आज यह देखने को मिल रहा है कि भारत के दलित, दमित, शोषित सशक्त लोगों के अपमान के शिकार हो रहे हैं। सबसे अहम् बात है कि इसमें सबसे ज्यादा स्वयं को कुशाग्र बताने वाले समाज के लोग ऐसा कर रहे हैं। वे आदिवासीजन, सामजिक रूप से पिछड़े लोग और अनुसूचित जातियों के साथ बहुत ही निर्ममता और क्रूरता से पेश आ रहे हैं।
लगता है कि भारत अपने स्वाभाव से भटक रहा है। भारत सभ्यतागत विमर्श में सांस्कृतिक रूप से दरिद्रता की और बढ़ रहा है। भारत में बसे लोग भारत के अपने ही लोगों के साथ ठीक तरह पेश नहीं आ रहे हैं। बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर का स्वप्न था कि भारत दुनिया के लिए मिसाल रूप में स्थापित हो। शायद इसीलिए उन्होंने जातियों के दंश को प्रश्नांकित किया था। शायद इसीलिए उन्होंने भारत में चली आ रही रूढ़ियों के खिलाफ मोर्चा खोला था। शायद इसीलिए वह बराबरी के सवाल पर हमेशा लड़ते रहे लेकिन विडंबना यह है कि आज भी भारत की सोच में ज्यादा फ़र्क नहीं आया है। आज पुनः एक बार हमें बाबासाहेब के प्रतिरोध और उनके विचारों की हमें ज़रूरत महसूस हो रही है जो उन वर्गों की जिंदगी में प्रतिष्ठा ला सकें। एक बड़े पैमाने पर प्रतिरोध दर्ज कर सकें उन व्यवस्थाओं के खिलाफ जो भारत की अपनी गरिमा को बचने नहीं देना चाहतीं। स्त्रियाँ, आदिवासी, अनुसूचित जाति के लोग हों या कोई भी भारत की सीमा में रह रहा व्यक्ति वह जन्म से इंसान है तो उसका हक समान है और उसे तो शान से जीने का हक है फिर कोई अपने कुकृत्यों का शिकार कैसे उन्हें बना दे रहा है, यह सवाल है।
एक ही देश में धनाड्यों के लिए अलग कानून होगा और गरीबों के लिए अलग यह बाबासाहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर ने किसी भी संविधान में प्रावधान नहीं किया था, फिर यह सब क्यों हो रहा है। कायदे से सरकार का दायित्व है कि वे ऐसे प्रकरण को अनदेखी न करे और सशक्त कानून के साथ सबकी गरिमा को सुनिश्चित करे नहीं तो भारत की सभी नागरिकों के लिए किये जाने वाले यूसीसी जैसे मसले भी बेमानी से लगेंगे। सबके हित के लिए ही यूसीसी जैसी संकल्पनाएँ आ रही हैं। भारत सरकार यह चाहती है कि हिंदुस्तान में यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड बिल लाया जाए तो उसका यह प्रयास अत्यंत सराहनीय लगता है लेकिन इसके पहले उन सभी वर्गों के हितों और हितधारकों के कर्त्तव्यों का सुनिश्चय होना आवश्यक है।
एक देश एक विधान का संकल्प तभी पूरा होगा जब हम देश के सभी नागरिकों को विश्वास दिला सकेंगे कि आप सभी के भौगोलिक, पर्यावरणीय और वैचारिक अपेक्षाओं के साथ सांस्कृतिक व सभ्यतागत मूल्यों को हम भरपूर एहसास करने-कराने के लिए प्रतिबद्ध हैं। निश्चय ही पूरा भारत आज यूसीसी का बेसब्री से इंतज़ार कर रहा है। उसे सरकार की यह योजना बहुत भा रही है, लेकिन यदि मानसिक स्तर भारत की तैयारी के लिए नीतिगत कदम उठाये गए तो यह प्रयास सर्वमान्य और सर्वहितकारी साबित होगा। इस मामले में चाहे कितना भी भयाक्रांत करने की फिर कोशिश हो सब कुछ फीके पड़ जायेंगे। भारत के समस्त नागरिक एक सोच-एक लक्ष्य सशक्त व समृद्ध भारत के लिए कार्य करेंगे। आवश्यकता इस बात की है कि यूसीसी के संकल्प के साथ बाबासाहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर जी के विचारों को भी स्मरण कर लिया जाए।
प्रो. कन्हैया त्रिपाठी (लेखक/ स्तंभकार)
(लेखक भारत गणराज्य के महामहिम राष्ट्रपति जी के विशेष कार्य अधिकारी-ओएसडी रह चुके हैं। आप केंद्रीय विश्वविद्यालय पंजाब में चेयर प्रोफेसर और अहिंसा आयोग और अहिंसक सभ्यता के पैरोकार हैं। )