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जीवन में चारों योग समन्वित करना चाहिए – स्वामी मुक्तिनाथानंद 

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REPORT BY AMIT CHAWLA

LUCKNOW NEWS I 

बृहस्पतिवार के प्रातः कालीन सत् प्रसंग में रामकृष्ण मठ लखनऊ के अध्यक्ष स्वामी मुक्तिनाथानंद जी ने बताया कि श्री रामकृष्ण एक दिन अंतरंग भक्तों के बीच सत् प्रसंग करते हुए कह रहे थे, “जो लोग अंतर्मन से उन्हें पुकारेंगे उन्हें यहां आना होगा।”

स्वामी जी ने बताया कि यहां आना होगा का अर्थ क्या है, इसके लिए अनेक प्रकार का मतवाद है। रामकृष्ण मठ के वरिष्ठ संन्यासी स्वामी सम्बुद्धानंद जी ने बताया कि यहां आने का अर्थ श्री रामकृष्ण को आध्यात्मिक आदर्श रूप से ग्रहण करना।

अर्थात जो कोई रामकृष्ण मठ से दीक्षित होते हैं वे श्री रामकृष्ण को अपने ईष्ट रूप से ग्रहण करते हैं एवं वे श्री रामकृष्ण के भावान्वित हो जाते हैं। श्री रामकृष्ण की भावान्वित होने का क्या लक्षण है वह व्याख्यान करते हुए स्वामी विवेकानंद उनके बेलूर मठ की नियमावली में उल्लेख किये कि श्री रामकृष्ण समन्वयाचार्य थे।

ज्ञान, भक्ति, योग एवं कर्म से समन्वित चरित्र गठन करना ही इस मठ की लक्ष्य है एवं जो कोई साधन इस प्रकार समन्वय का सूचक है वो गृहणीय होगा।  स्वामी विवेकानंद यह भी चेतावनी दिया कि अगर कोई ज्ञान, भक्ति, योग एवं कर्म में कोई एक भी विषय में अवहेलना करता है तब उनका जीवन श्री रामकृष्ण की जीवन अनुयायी नहीं होगा।

अर्थात जीवन में एक समन्वित साधन ही लक्ष्य है। श्री रामकृष्ण का भाव है समन्वय का भाव, जोकि हमारे वैदिक भावधार के अनुरूप है। ऋग्वेद में कहा गया है –

एकं सत विप्रा बहुधा वदन्ति।

अर्थात सत्य एक ही है, लेकिन उनके व्याख्यान अनेक प्रकार होता है। परमात्मा एक ही है, उनके पास पहुंचने का अनेक प्रकार का मार्ग होता है।

श्री रामकृष्ण बारंबार कहां करते थे – ‘मार्ग लक्ष्य नहीं है, मार्ग अनेक प्रकार के हो सकते हैं लेकिन लक्ष्य एक ही है।’ इसलिए श्री रामकृष्ण ने विभिन्न धर्म का साधन पालन करते हुए घोषणा किया, *”जितने मत उतने पथ।”* कोई भी पथ से ईश्वर लाभ किया जा सकता हैं ,लेकिन आंतरिक उनको पुकारना ही जीवन का लक्ष्य होना चाहिए।

यद्यपि हमारे भीतर नाना प्रकार धार्मिक संकीर्णता रहता है एवं धर्म विद्वेष रहता है, श्री रामकृष्ण सिखाते हैं, “कोई भी मार्ग अवलंबन करते हुए अपने-अपने लक्ष्य तक पहुंच जाओ। लक्ष्य में पहुंचने के बाद देखोगे सभी मार्ग एक ही लक्ष्य पर पहुंचते हैं।”

*श्रीमद्भगवद्गीता (4:11)* में भी श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कहा था –

 

ये यथा मां प्रपद्यंते तांस्तथैव भजाम्यहम्।

मम वतर्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश:।।

अर्थात “हे अर्जुन! जो भक्त मुझे जिस प्रकार भजते हैं, मैं भी उनको इस प्रकार भजता हूं; क्योंकि सभी मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं।”

भक्त भगवान की जिस भाव से शरण लेता है भगवान भी उसे उसी भाव से आश्रय देते हैं। जैसे – भक्त भगवान को अपना गुरु मानते हैं तो वह श्रेष्ठ गुरु बन जाते हैं, शिष्य मानते हैं तो वे श्रेष्ठ शिष्य बन जाते हैं, माता-पिता मानते हैं तो वोह श्रेष्ठ माता-पिता बन जाते हैं। वैसे ही भक्त भगवान के बिना व्याकुल हो जाता है तो भगवान भी भक्त के बिना व्याकुल हो जाते हैं।

स्वामी मुक्तिनाथानंद जी ने कहा अतएव हमें श्री भगवान को अपना मानकर आंतरिक पुकारने का प्रयास करना चाहिए ताकि हम उनके चरणों में शुद्धाभक्ति प्राप्त करते हुए विषय सुख से निरासक्त होकर इस जीवन में ही उनको प्रत्यक्ष दर्शन करते हुए जीवन सार्थक और सफल कर सकें।

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