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बलूचों के निशाने पर सीपीईसी परियोजना

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पाकिस्तान के अशांत प्रांत बलूचिस्तान प्रांत के पोर्ट सिटी ग्वादर में चीनी इंजिनियरों को ले जा रहे काफिले पर बलूच संगठनों का हमला चीन और पाकिस्तान के माथे पर बल ला दिया है। यह हमला रेखांकित करता है कि  बलूचिस्तान ही नहीं बल्कि पाकिस्तान के आम नागरिकों को भी चीन-पाक आर्थिक गलियारा (सीपीईसी) परियोजना रास नहीं आ रहा है। हालांकि पाकिस्तानी सेना ने अपने बयान में चीनी नागरिकों पर हमले को छिपाने की कोशिश की है ताकि दुनिया को सच्चाई का पता न चले।

लेकिन विदेशी मीडिया ने उजागर कर दिया है कि हमले में चार चीनी इंजिनियर और 9 पाकिस्तानी सैनिक मारे गएं हैं। गौर करें तो पहली बार नहीं है जब बलूचों ने चीन-पाक आर्थिक गलियारा (सीपीईसी) से जुड़े इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट से जुड़े चीनी कर्मियों को निशाना बनाया है। पहले भी इस तरह के हमले हो चुके हैं। दरअसल बलूचिस्तान के ट्राइबल समाज के लोगों को आशंका है कि इस प्रोजेक्ट के आकार लेने से यहां बाहरी लोगों का बसना तेज होगा ।

इससे डेमोग्राफी बदल जाएगी जिससे उनके हित प्रभावित होंगे। उल्लेखनीय है कि यह इलाका खनिज संसाधनों से भरपूर है। बलूच संगठनों का कहना है कि इन संसाधनों के दोहन का लाभ और फायदा स्थानीय लोगों को मिलने के बजाए पाकिस्तान के एलीट वर्ग को मिल रहा है। उनका यह भी कहना है कि इस इलाके में बाहरी लोगों के हस्तक्षेप से उनके आंदोलन की धार कुंद हो रही है। यहीं वजह है कि बलूच संगठन इस प्रोजेक्ट से जुड़े चीनी कर्मियों को लगातार निशाना बना रहे हैं।

इन हमलों से चीन परेशान है और उसे प्रोजेक्ट को आकार देने में देरी हो रही है। देरी होने से लागत बढ़ रही है। दूसरी ओर चीन अपने नागरिकों की सुरक्षा के लिए आर्मी लगाना चाहता है लेकिन इसके लिए पाकिस्तान तैयार नहीं है।  दरअसल उसे डर है कि चीनी आर्मी को अनुमति देने से देश मे विरोध बढ़ेगा और सीपीईसी प्रोजेक्ट खटाई में पड़ जाएगी। वैसे भी चीन इस परियोजना पर भारी निवेश कर रखा है। उसके द्वारा मुहैया कराए गए कर्ज की ब्याज अदायगी में पाकिस्तान हीलाहवाली कर रहा है। इस वजह से धन की कमी आड़े आने लगी है।

नतीजा अभी तक ग्वादर में सिर्फ तीन प्रोजेक्ट ही पूरे हुए हैं। पैसे के अभाव में तकरीबन दो अरब डाॅलर की लागत वाले एक दर्जन से अधिक प्रोजेक्ट धूल फांक रहे हैं। धन की कमी का संकट इस हद तक गहरा चुका है कि चीन की दो दर्जन कंपनियों ने पाकिस्तान सरकार को धमकी दी है कि अगर वह 300 अरब पाकिस्तानी रुपए का भुगतान नहीं करता है तो वह बिजली बनाने का काम बंद कर देंगे। इस परियोजना के लिए चीन के कई सरकारी बैंकों और कंपनियों ने भी खूब पैसा बरसाया है।

चीन के बैंकों द्वारा मध्य पूर्व और अफ्रीका के कई देशों को तकरीबन 200 अरब डाॅलर से अधिक का कर्ज दिया गया है। उनका कर्ज फंस चुका है। ब्याज की अदायगी नहीं हो रही है। अब चीनी कंपनियों ने अपनी सरकार पर दबाव बनाना शुरु कर दिया है। चूंकि चीन अच्छी तरह समझ रहा है कि पाकिस्तान के भरोसे रहकर सीपीईसी परियोजना को अंजाम देना कठिन है लिहाजा अब उसकी कोशिश इस परियोजना से अन्य देशों को जोड़कर धन इकठ्ठा करने की है। याद होगा जब चीन ने 2013 में इस परियोजना की नींव रखी तो उसने पाकिस्तान समेत श्रीलंका, नेपाल बांग्लादेश और म्यांमार जैसे देशों को जुड़ने के आमंत्रण के साथ भरोसा दिया कि इस परियोजना से इन देशों को 1.1 अरब डाॅलर टैक्स मिलेगा।

बेरोजगारी कम होगी और अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलेगी। उस समय भारत ने चीन की प्रस्तावित परियोजना को लेकर पड़ोसी देशों को आगाह किया था। साथ ही ऋण की अदायगी और ऊंचे ब्याज दर पर चीन की कसकर घेराबंदी भी की थी। तब परियोजना का हिस्सा बन रहे गरीब देशों ने भारत के इस तर्क को जायज मानते हुए गंभीरता से लिया और महसूस भी किया कि इस परियोजना के मूर्त रुप लेने के बाद उनके बाजार चीनी उत्पादों से पट जाएंगे।

दूसरी ओर महंगे ऋण पर ब्याज दर चुकाना भी मुश्किल होगा। सच्चाई भी यहीं है की उसकी इस अतिमहत्वाकांक्षी प्रायोजित योजना का मकसद महाद्वीपों के मार्गों को सड़कों और रेल मार्गों से जोड़कर अपने आर्थिक हितों का संवर्धन करना है न कि पड़ोसी मुल्कों का भला करना है। नतीजा सामने है। सीपीईसी परियोजना का पलीता लगना शुरु हो गया है। यहां समझना होगा कि चीन अपनी इस प्रस्तावित परियोजना के जरिए दुनिया की 60 प्रतिशत आबादी यानी 4.4 अरब लोगों पर शिकंजा कसना चाहता है।

उसका मकसद दुनिया को जोड़ने की आड़ में 1000 अरब डाॅलर की लागत से नए अंतर्राष्ट्रीय रुटों को आयाम देकर दुनिया भर के कच्चे माल तक अपनी पकड़ मजबूत करना है। अगर चीन इस परियोजना के मार्फत सड़कों, रेलवे और बंदरगाहों का संजाल बिछाने में कामयाब रहा तो निःसंदेह उसकी उर्जा ताकत और जीडीपी आसमान छुएगी। उल्लेखनीय है कि इन महाद्वीपों के साढ़े पांच दर्जन देशों को जोड़ने की मुहिम में चीन ने 2013 से अब तक तकरीबन 125 अरब डाॅलर खर्च कर चुका है।

जून 2016 में इस प्रोजेक्ट पर चीन, मंगोलिया और रुस ने भी हस्ताक्षए किए थे। जिनइंग से शुरु होने वाला यह हाइवे मध्य पूर्वी मंगोलिया को पार करता हुआ मध्य रुस तक पहुंचेगा। इस योजना के तहत यूरोप पहले ही रेल के जरिए जुड़ चुका है। अब चीन की कोशिश सड़क मार्ग को प्रशस्त करना है। इस परियोजना के मुताबिक दस हजार किलोमीटर से लंबा रास्ता कजाखिस्तान तथा रुस से होता हुआ यूरोप तक पहुंचेगा।

भारत के लिए चिंता की बात यह है कि यह परियोजना चीन के शिनजियांग राज्य को कश्मीर और पाकिस्तान के ग्वादर पोर्ट से जोड़ेगा। चीन की मंशा सदियों पुराने असली सिल्क रुट वाले इस रास्ते पर रेल और सड़क मार्ग दौड़ाना है। सिल्क रुट एक प्राचीन व्यापारिक रास्ता था जिससे चीन के सिल्क का व्यापार भूमध्यसागर से एशिया तक होता था। वन बेल्ट, वन रोड का एक हिस्सा सिल्क रोड आर्थिक बेल्ट है जो चीन से प्रारंभ होकर मध्य एशिया से होते हुए यूरोप तक जाएगा।

इसका दूसरा हिस्सा मैरीटाइम सिल्क रोड है जो चीन को समुद्री रास्तों के मार्फत दक्षिण पूर्व एशिया, पश्चिम एशिया और अफ्रीका तक पहुंचाएगा। यह पश्चिमी प्रशंात महासागर और हिंद महासागर से भी होकर गुजरेगा। इस काॅरीडोर के तहत चीन की योजना म्यांमार, वियतनाम, लाओस थाईलैंड से गुजरती हुई इंडोनेशिया तक पहुंचना है। चीन का मकसद तीनों महाद्वीपों के इन देशों से जुड़ते हुए सड़कें, रेलवे, बंदरगाह और दूसरे इंफ्रास्ट्रक्चर के जरिए अपनी अर्थव्यवस्था को दूसरे देशों के साथ मजबूती से बांधना है।

यही कारण है कि उसकी पंचवर्षीय योजना में वन बेल्ट, वन रोड पर जरुरत से ज्यादा फोकस किया जा रहा है। ऐसा नहीं है कि चीन की इस चालाकी से दुनिया अवगत नहीं है। दुनिया को पता है कि वह इसे शांति और समृद्धि का नाम देकर सिर्फ अपना आर्थिक मतलब साध रहा है। पेइचिंग के आर्थिक रणनीतिकारों ने इस प्रस्तावित परियोजना को अपने हित के लिए ही गढ़ा-बुना है।

चूंकि मौजूदा दौर में चीनी कंपनियां घरेलू मोर्चे पर बहुत अच्छा प्रदर्शन नहीं कर रही हैं बल्कि उल्टे उनका स्लोडाउन ही हो रहा है ऐसे में चीन की चिंता बढ़ गयी है। यहीं कारण है कि वह आर्थिक चुनौतियों से निपटने और अपनी अर्थव्यवस्था को उबारने के लिए इस परियोजना से अब अन्य देशों को जोड़ने की योजना बना रहा है। दरअसल इस परियोजना के जरिए चीन की मंशा खुद को अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक धुरी के रुप में स्थापित करने की है।

मजे की बात यह कि चीन इस परियोजना का निर्माण कार्य चीन की कंपनियों से ही करा रहा है। यानी चीन के हाथ में आम और गुठलियों का दाम दोनों है। इससे पाकिस्तान की बेचैनी बढ़ी हुई है। उसके बलूच नागरिक चीनी कर्मियों पर हमले कर रहे हैं। उधर, गिलगित-बाल्टिस्तान के लोग भी इस परियोजना को संदेह की दृष्टि से देख रहे हैं। ऐसे में चीन के लिए सीपीईसी परियोजना को अंजाम देना इतना भी आसान नहीं है।   

अरविंद जयतिलक (लेखक/स्तंभकार)

 

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