बदली दृष्टि, बदल गई सृष्टि..
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प्रायः दृष्टिगोचर है की आँखों की नमी अब रही नहीं , प्रमोद भावना अब कहाँ कहीं ..? समय बदल रहा है या हम …?जो भी है , क्या सही है ये परिवर्तन .? एक विराट प्रश्नचिन्ह है , करें चिन्तन …! मोह कर्म से परे या उसके बहुत नज़दीक ..जा रहे हम ..?
करुणा,प्रेम,आदर जैसी संवेदनशील मनोभावनाओं को आचरण से हटा रहे है । हम भी वही होते हैं, रिश्ते भी वही होते हैं,
और रास्ते भी वही होते हैं, बदलता है तो बस समय, एहसास और नज़रिया । एक लाज़वाब बात जो एक पेड़ ने कही की हर रोज़ गिरते हैं पत्ते मेरे फिर भी हवाओं से बदलते नहीं रिश्ते मेरे । इसलिए तो रिश्तों की डोर को बिना किसी स्वार्थ के निभाना हैं।
रिश्तों की अहमियत जानना हैं। क्योंकि- सफलता भी फीकी लगती है यदि कोई बधाई देने वाला नहीं हो। और विफलता भी सुन्दर लगती है जब आपके साथ कोई अपना खड़ा हो। ना दूर रहने से रिश्ते टूट जाते हैं और ना पास रहने से जुड़ जाते हैं यह तो एहसास के पक्के धागे है जो याद करने से और मज़बूत हो जाते है।
मानव मन में जब भी सकारात्मक परिवर्तन आता है तो वह उसका दूसरा जन्म हैं।वह अद्भुत अकल्पनीय क्षण होता है जिसमें जिन्दगी बदलती है। जैसे बदली अंगुलिमाल की विचारों में अपने कृत कर्मों में अपने कषायों में बदलाव आया वाल्मीकि जैसे ऋषि महात्मा बन गए।इसी संदर्भ में रोहिणेय चोर को देखा जा सकता हैं।
भगवान महावीर की वाणी कानों में पड़ते ही उस क्षण को तत्काल पकड़ नवजीवन में छलाँग लगा दी। और तो और अभी
वर्तमान परिस्थिति में ये कैसा समय आया है कि दूरियाँ ही जीवन की दवा बन गईं है । ना मोह है ना माया ना लोभ ना राग-द्वेष आदि केवल अपने जीवन का आत्मचिंतन ।
अभी हम जो जीवन जी रहे वह दूसरे जन्म से कम नही हैं । अगर यही सावधानी आगे तक रहेगी तो अपना मन कषाय रहित हो और जीवन आनंदमय हो जायेगा । तभी तो कहा है की बदली दृष्टि बदल गई सृष्टि ।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ )