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SUPERSTITION : समाज में कुप्रथा की आड़ में क्रूरता

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PRESENTED BY ARVIND JAYTILAK

बिहार राज्य के पूर्णिया जिले के टेटमा गांव में जादू-टोना करने के संदेह में एक ही परिवार के पांच सदस्यों की हत्या रेखांकित करने के लिए पर्याप्त है कि जागरुकता और शिक्षा के प्रचार-प्रसार के बावजूद भी हमारा समाज अभी भी अंधविश्वास जैसी बुराईयों से उबर नहीं पाया है। दुखद पहलू यह भी कि हत्यारों ने पहचान छिपाने के इरादे से उन शवों को झाड़ियों में जला दिया जो क्रुरता की चरम पराकाष्ठा है। उचित होगा कि बिहार सरकार हत्यारों को गिरफ्तार कर उनके किए की सजा दे। गौर करें तो यह पहली बार नहीं है जब जादू-टोना करने के आरोप में लोगों को मौत की नींद सुलाने की खबरें अखबारों की सुर्खियां बनी है। आए दिन इस तरह की खबरें देश-समाज को विचलित करती रहती हैं।

याद होगा गत वर्ष पहले झारखंड राज्य के गुमला के एक गांव में डायन-बिसाही का आरोप लगाकर चार लोगों की पीट-पीट कर हत्या कर दी गई। जो तथ्य सामने आया था उसके मुताबिक गांव के लोगों ने सामुहिक रुप से पहले बैठक कर इन्हें मार डालने का निर्णय लिया और फिर एक-एक कर चारों को घर से निकालकर लाठी-डंडे से पीट-पीटकर मार डाला। गत वर्ष पहले झारखंड राज्य की राजधानी रांची के निकट मांडर ब्लॉक के कंजिया मरई टोली गांव की पांच महिलाओं की डायन के शक में हत्या कर दी गयी थी। झारखंड राज्य के ही चांडिल में एक अस्सी वर्ष की वृद्धा को डायन बता उसके भतीजे ने उसकी हत्या कर दी। हत्यारे का मानना था कि उसके बेटे की बीमारी के लिए वृद्धा ही जिम्मेदार थी।

इसी तरह गिरिडीह जिले में एक महिला को डायन बताकर उसके परिजनों ने उसे मौत की नींद सुला दी। झारखण्ड राज्य के ही देवघर जिले के पाथरघटिया गांव में पांच महिलाओं को डायन के नाम पर निर्वस्त्र कर घुमाया गया और सिमडेगा जिले के शिकरियातंद गांव में एक अधेड़ महिला को डायन के नाम पर उसके पड़ोसियों ने पीट-पीटकर मार डाला। बिहार और झारखंड ही नहीं बल्कि देश के अन्य राज्यों में भी इसी तरह की क्रुरता देखने को मिलती रहती है। याद होगा गत वर्ष पहले पश्चिम बंगाल राज्य के मालदा में एक महिला के डायन होने को लेकर अफवाह फैला और उसकी निर्दयता से दोनों आंखें निकालकर मौत के घाट उतार दिया गया। हत्या से पहले उस महिला के साथ सामुहिक बलात्कार भी किया गया।

गत वर्ष पहले उत्तर प्रदेश राज्य के सोनभद्र जिले में डायन होने के शक में एक महिला की जीभ काट दी गयी। ध्यान देना होगा कि महिलाओं को डायन करार दिए जाने के साथ-साथ अंधविश्वास का एक दूसरा पहलू नरबलि के रुप में भी सामने आ रहा है। गत वर्ष पहले उत्तर प्रदेश राज्य के सीतापुर जिले के कुसेपा दहेली गांव में एक दम्पति ने एक तांत्रिक की सलाह पर अपनी बच्ची की बलि चढ़ा दी, सिर्फ इस आस में कि ऐसा करने से उसकी समस्याएं छूमंतर हो जाएंगी और वह सुखपूर्ण जीवन व्यतीत कर सकेगा। गौर करें तो अंधविश्वास की ज्यादतर निर्मम घटनाएं उन्हीं राज्यों व क्षेत्रों में देखी जा रही हैं जहां विकास और शिक्षा की लौ पूरी तरह पहुंच नहीं सकी है। अमूमन इन क्षेत्रों में रहने वाले लोग शैक्षिक रुप से तो पिछड़े हैं ही साथ ही यहां स्वास्थ्य सेवाएं भी नदारद हैं। नतीजा वे अपनी बीमारी और अस्वस्थता का मूल कारण समझने के बजाए इसे भूत-प्रेत और डायनों का प्रभाव के तौर पर मान रहे हैं।

इसका दुष्परिणाम यह है कि डायन की आड़ में महिलाएं हत्यारों की शिकार बन रही हैं। शैक्षिक रुप से पिछड़े व आदिवासी बहुल राज्य झारखंड की ही बात करें तो यहां अंधविश्वास की जड़ें काफी गहरी हैं और उसका सर्वाधिक खामियाजा महिलाओं को भुगतना पड़ रहा है। डायन कुप्रथा पर काम कर रही स्वयंसेवी संस्थाओं की मानें तो गांव वाले ही महिलाओं को डायन के रुप में चिंहित करते हैं और फिर मौत की नींद सुला देते हैं। अपराधी इसलिए पकड़ में नहीं आते हैं कि इन घटनाओं में पूरा गांव शामिल होता है और अपराधी की पहचान नहीं हो पाती है। आधुनिकता और टेक्नालाजी से लैस होने के बावजूद भी हमारा समाज कितना पिछड़ा और अंधविश्वास से ग्रसित है इन घटनाओं से आसानी से समझा जा सकता है।

याद होगा गत वर्ष पहले देहरादून की एक गैर सरकारी संस्था ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि देश में तकरीबन हर साल दो सैकड़ा से अधिक महिलाओं की हत्या डायन के नाम पर होती है। ऐसे निर्दयतापूर्ण कृत्य सिर्फ पिछड़े राज्यों में ही नहीं बल्कि विकसित कहे जाने वाले राज्यों में भी होती हैं। उदाहरण के तौर पर आंध्रप्रदेश राज्य में हर साल 30 से अधिक महिलाओं की हत्या डायन के नाम पर होती है। केरल में भी इस तरह की घटनाएं सामने आ चुकी हैं। लिटिगेशन एंड एनटाइटिलमेंट केंद्र के अनुसार डायन बताकर महिलाओं की हत्या के मामले में हरियाणा और उड़ीसा राज्य भी पीछे नहीं है। विगत डेढ़ दशकों में देश में डायन के नाम पर लगभग 2500 से अधिक महिलाओं की हत्या हो चुकी है। देखा जाए तो दिल दहलाने वाली ये घटनाएं मामूली नहीं है।

जहां एक ओर देश में महिलाएं पंचायतों में अहम सहभागी बन रही हैं, नित नए बुलंदियों को चुम रही हैं और संसद में भी अपना लोहा मनवा रही हैं वही डायन के नाम पर उनकी निर्ममतापूर्वक हत्या हो रही है। समाज के ठेकेदार डायन के नाम पर उन्हें निर्वस्त्र घुमा और बलात्कार कर रहे हैं। इस तरह की कारस्तानी कानून और प्रशासन के लिए चिंता की बात होनी चाहिए। अजीब बात यह है कि कड़े कानूनों के बावजूद भी ये घटनाएं रुकने का नाम नहीं ले रही। कई बार ऐसा भी देखा जाता है कि पुलिस की मौजुदगी में ही महिलाओं को डायन बताकर उनके साथ बदसलूकी की जाती है। प्रशासन इन घटनाओं को तब गंभीरता से लेता है जब मीडिया या स्वयंसेवी संस्थाएं आगे आती हैं। हालात तब और बदतर हो जाता है जब पिछड़े और आदिवासी क्षेत्रों में लगने वाली पंचायतें बैखौफ होकर अपने फैसले सुनाते हुए किसी भी महिला को डायन करार दे देती हैं और समाज का पढ़ा लिखा तबका उनका विरोध करने के बजाए उन्हें अपना मौन समर्थन देता नजर आता है।

इन घटनाओं के पीछे सामाजिक रुढ़िवादिता तो है ही साथ ही कानून के अनुपालन में कमी भी एक महत्वपूर्ण कारण है। यहां ध्यान देना होगा कि ऐसी महिलाओं को भी डायन करार देकर मौत के घाट उतारा जा रहा है जिनके परिजन नहीं है और उनके पास संपत्ति है। अगर कहा जाए कि डायन की आड़ में संपत्ति हड़पने का खेल चल रहा है तो यह गलत नहीं होगा। समाज में व्याप्त इन कुरीतियों और अंधविश्वासों के खिलाफ जनजागरण चलाने की जरुरत है। साथ ही इन घटनाओं को अंजाम देने वालों को भी चिंहिंत कर दंडित किया जाना चाहिए। समाज में ऐसे लोगों को रहने का हक नहीं जो अपना मतलब साधने के लिए अंधविश्वासों को खाद-पानी मुहैया करा रहे हैं।

भारतीय जनमानस को समझना होगा कि अंधविश्वासों को खत्म करने की जिम्मेदारी सिर्फ सरकार की ही नहीं है। इसे उखाड़ फेंकने के लिए सिविल समाज को भी आगे आना होगा। उन क्षेत्रों की पहचान करनी होगी जहां ऐसी घटनांए बार-बार हो रही हैं। उन वजहों को भी तलाशना होगा जिनके कारण इन घटनाओं को प्रोत्साहन मिल रहा है। कम पढ़े-लिखे लोग अकसर गंभीर बीमारियों से निपटने के लिए अस्पतालों में जाने के बजाए ओझा-गुनी और तांत्रिकों की शरण लेते हैं। नतीजा ओझा-गुनी उनके अंधविश्वास का फायदा उठाकर उनका आर्थिक शोषण तो करते ही हैं और उन्हें अपराध करने के लिए भी उकसाते हैं। बेहतर होगा कि सरकार और स्वयंसेवी संस्थाएं पिछड़े और सुविधाहीन क्षेत्रों में शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं को मजबूत करे। इससे अफवाहों और अप्रिय घटनाओं पर रोक लगेगी और समाज अंधविश्वास से मुक्त होगा।

 

 

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