मुझे फख्र है मेरी शायरी मेरी जिंदगी से जुदा नहीं….
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शकील बदायूंनी की पुण्य तिथि 20 अप्रैल पर विशेष आलेख
उन्हें जब कहीं जाना होता था तो वह अपने चाहने वालों को खत लिख कर बता देते थे कि वह फलां तारीख को फलां ट्रेन से सफर करेंगे और ट्रेन किस स्टेशन पर कितने बजे पहुंचेंगी। स्टेशन पर उनके कद्रदान उनसे मिलने आते। तोहफे लाते और मिल कर मसर्रत हासिल करते। ट्रेन के मुसाफिर भी सोचते कि कौन है यह शख्स जिससे मिलने हर स्टेशन पर लोग आते हैं। पूछते तो पता चलता कि जनाब हर दिल अजीज शायर शकील बदायूंनी हैं।
हो सकता है गीत संगीत की शैदाई मौजूदा पीढ़ी शकील बदायूंनी के नाम से वैसे न वाकिफ हो जैसे होना चाहिए या जिसके शकील साहब हक़दार हैं। शकील का अदब की दुनिया मे क्या मुक़ाम है इस बारे में कोई ठोस नजरिया दे पाने की मेरी कुव्वत नहीं है। मैं तो फिल्मों में लिखे गीत ग़ज़ल और भजन सुन कर उनका मुरीद हुआ। अलबत्ता यह बात जरूर कह सकता हूं कि फिल्मों में उन्होंने जो कुछ लिखा वही उन्हें बेहद मक़बूल, असरदार और अर्थपूर्ण साबित करने के लिए काफी है।
मुगले आजम, मदर इंडिया, गंगा जमुना, बैजू बावरा, साहब बीबी और गुलाम, बीस साल बाद ,चौदहवीं का चांद, मेरे महबूब, दीदार, दो बदन और न जाने कितनी और फिल्मों में लिखे गीत रोज ही सुनने को मिलते हैं। लोकप्रियता के लिहाज से उन्हें किसी भी समकालीन गीतकार से ज्यादा मानना अगर debatable है तो कमतर आंकना और भी बड़ी बहस का मुद्दा है।
उनका कैरियर ए एच कारदार और नौशाद के संपर्क में आने से शुरू हुआ और 1947 की फ़िल्म दर्द में उमा देवी उर्फ टुनटुन के गाए गीत ‘अफसाना लिख रही हूं दिले बेक़रार का आंखों में रंग भर के तेरे इंतज़ार का” ने धूम मचा दी और इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा और उनकी रोमांटिक शायरी उस दौर की स्थापित लेखन शैली से आगे आगे चलती रही। क्या उम्दा बोल होते थे फिल्मी गीतों में जहां लिखने में कई तरह की पाबंदियां होती हैं लेकिन ये पाबंदियां शकील साहब को नए नए उरूज पर जाने से पाबंद नहीं कर सकीं।
बैजू बावरा में धार्मिक प्रवृति के गीत होने के कारण फ़िल्म के डायरेक्टर विजय भट्ट कवि प्रदीप से गीत लिखाना चाहते थे लेकिन नौशाद के इसरार पर उन्होंने शकील को मौका दिया और फिर जो हुआ वह हिस्ट्री है। मन तड़पत हरि दर्शन को आज या ओ दुनिया के रखवाले या फिर तू गंगा की मौज मैं यमुना का धारा या फ़िल्म के दीगर गीत। एक शायर की बेहतरीन रेंज का प्रमाण है यह फ़िल्म।
ऐसी ही प्रतिभा शकील साहब की गंगा जमुना में देखने को मिली। पश्चिम यूपी के शकील साहब ने विशुद्ध अवधी की फ़िल्म में क्या गीत लिखे। दो हंसों का जोड़ा बिछड़ गयो, ढूंढों ढूंढो रे साजना मोरे कान का बाला या नैन लड़ जइहें तो मनवा में कसक होइबे करी। और न जाने कितनी फिल्में और कितने गीत। गैर फिल्मी गजलें भी खूब मक़बूल हुईं।
न जाने क्या कुछ और कितना कुछ कहा जा सकता है शकील साहब के बारे में लेकिन महज 54 साल की उम्र में इस फानी दुनिया को अलविदा कह गए I इस शख्स ने खुद अपने बारे में जो कहा उस से बेहतर कुछ कहा नहीं जा सकता।
मैं शकील दिल का हूं तर्जुमा
कि मोहब्बतें का हूं राजदां
मुझे फख्र है मेरी शायरी
मेरी जिंदगी से जुदा नहीं।
राज बहादुर सिंह (वरिष्ठ पत्रकार )