राधा तू बड़भागिनी……………..
1 min readराधा रानी परब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण की अचिंत शक्ति हैं।उनकी कृपा से ही कृष्ण-तत्व की प्राप्ति होती है।इसीलिए इनमें से किसी एक की उपासना से भी दोनों की प्राप्ति सुनिश्चित है। कृष्ण की शक्ति हैं राधा, कृष्ण की आत्मा हैं राधा। कृष्ण शब्द हैं तो राधा अर्थ, कृष्ण गीत हैं तो राधा संगीत, कृष्ण वंशी हैं तो राधा स्वर, कृष्ण समुद्र हैं तो राधा तरंग, कृष्ण फूल हैं तो राधा उसकी सुगन्ध। राधा के आराधकों ने कृष्ण और राधा का एकाकार स्वरूप दर्शाने के अनेक प्रयास किये हैं। सन्त-महात्माओं ने कृष्ण तत्व व राधा तत्व को अभिन्न माना है। अनेक विद्वानों की यह मान्यता है कि श्रीकृष्ण और राधा अलग-अलग होते हुए भी एक हैं। पहली समानता तो यही है कि इन दोनों का जन्म भाद्रपद मास की अष्टमी को हुआ।कृष्ण का जन्म कृष्ण पक्ष की अष्टमी को हुआ, राधा का जन्म शुक्ल पक्ष की अष्टमी को। “नारद पंचरात्र” के ज्ञानामृत सार के अनुसार राधा और कृष्ण एक ही शक्ति के दो रूप ही हैं। वहीं चैतन्य सम्प्रदाय (गौड़ीय सम्प्रदाय) भी राधा और कृष्ण में भिन्नता को नहीं मानता है।भगवान श्रीकृष्ण की एक पराशक्ति है, जिसका नाम आल्हादिनी शक्ति राधा है। उसे स्वरूप शक्ति भी कहते हैं। वे श्रीकृष्ण से अभिन्न हैं। यह भी मान्यता है कि ” श्रीकृष्ण” में “श्री” शब्द राधा रानी के लिए प्रयुक्त हुआ है। सूरदास जी ने अपने ग्रन्थ “सूरसागर” के एक दोहे में यह लिखा है कि श्रीकृष्ण की सोलह हजार एक सौ रानियाँ मात्र देह हैं, जबकि उनकी आत्मा राधा हैं। कहा भी गया है- राधा कृष्ण, कृष्ण हैं राधा। एक रूप दोऊ प्रीत अगाधा।।
जगतजननी राधा को भगवान श्रीकृष्ण की स्वरूपभूता आल्हादिनी शक्ति माना गया है। “पद्मपुराण” में कहा गया है कि राधा, श्रीकृष्ण की आत्मा हैं। महर्षि वेदव्यास जी ने लिखा है कि श्रीकृष्ण आत्माराम हैं और उनकी आत्मा राधा हैं। वात्सल्य, सख्य और श्रृंगार की रस त्रिपुटि का प्रशस्त आधार लेकर अष्टछाप के भक्त हृदय महाकवियों ने जिस महाभाव की लोकमंगल प्रतिष्ठा भक्ति काव्य जगत में की गई है, उसकी मूल प्रेरक विधायिका शक्ति राधा ही हैं। वह रस की अंतः श्रोत भी हैं और रस की अतुल महानिधि भी। उनकी इस रस निधिता में समग्र शक्तियाँ अंतर्निहित हैं। संस्कृत साहित्य के अंदर राधा को काव्य और भक्ति दोनों ही क्षेत्रों में समादर देते हुए प्रेयसी, नायिका और आराध्या आदि के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है। भगवान श्रीकृष्ण की वंशी के अवतार श्रीहित हरिवंश महाप्रभु ने तो राधा को भगवान श्रीकृष्ण से भी अधिक प्रधानता दी है। उन्होंने उन्हें अपना इष्ट और गुरु दोनों ही माना है। यह तक कि उन्होंने अपने सम्प्रदाय तक का नाम “श्रीराधावल्लभ सम्प्रदाय” रखा। जो भी हो ब्रज में राधा की श्रीकृष्ण से भी अधिक मान्यता है। यहां तक कहा जाता है कि उन्होंने यशोदानंदन तक को पूर्णत्व प्रदान किया। वस्तुतः यहाँ चहुंओर उनका ही साम्राज्य है। यहाँ प्रत्येक शुभकार्य का श्रीगणेश “श्री राधे” के स्मरण से एवं पारस्परिक अभिवादन “राधे-राधे” कहकर ही किया जाता है। हो भी क्यों न, राधा लोक पितामह ब्रह्मा एवं भगवान शिव तक की भी वन्दनीय और उपास्य हैं।
जगदसृष्टा ब्रह्मा जी द्वारा वरदान प्राप्त कर राजा सुचन्द्र एवं उनकी पत्नी कलावती कालांतर में बृषभानु एवं कीर्तिदा हुए। इन्हीं की पुत्री के रूप में राधा रानी ने आज से 5000 वर्ष से भी अधिक पूर्व मथुरा जिले के गोकुल-महावन कस्बे के निकट रावल ग्राम में जन्म लिया था। बताया जाता है कि वृषभानु एवं कीर्तिदा को राधा रानी की प्राप्ति की यमुना महारानी की घोर तपस्या करने के बाद हुई थी। राधा रानी के जन्म के सम्बंध में यह भी कहा जाता है कि वृषभानु भाद्रपद शुक्ल अष्टमी को जब एक सरोवर के पास से गुजर रहे थे तब उन्हें मध्याह्न 12 बजे एक सघन कुंज की झुकी वृक्षावलि के पास एक बालिका कमल के फूल पर तैरती हुई मिली। जिसे उन्होंने अपनी पुत्री के रूप में अपना लिया।
बाद को वृषभानु कंस के अत्याचारों से तंग होकर रावल से बरसाना चले गए। एक बार जब कंस वृषभानु जी को मारने के लिए अपनी सेना सहित बरसाना की ओर गया तो वह राधा रानी की दिव्य शक्ति से बरसाना की सीमा में घुसते ही स्त्री बन गया और उसकी सारी सेना पत्थर बन गयी। एक दिन जब देवर्षि नारद विचरण करते हुए बरसाना आये तो उन्होंने उसे पहचान लिया। उन्होंने उससे इस स्वरूप का कारण पूछा। कंस ने उनके पैरों पर पड़कर सारी घटना सुनाई। नारद जी ने ध्यान लगाकर इसे राधा रानी की महिमा बताया। अतः वह इसे वृषभानु जी के महल में ले गए। वहां जाकर कंस बहुत गिड़गिड़ाया और उनसे अपने किये हुए कि क्षमा मांगी। इस पर राधा रानी ने उससे यह कहा कि अब तुम यहाँ छः महीने तक रहो और गोबर के उपले थापकर बरसाना की गोपियों की इस कार्य मे मदद करो। छः महीने की समाप्ति के अंतिम दिन तुम बृषभानु कुंड में स्नान कर चुपचाप मथुरा चले जाना। उसके बाद तुम स्वतः अपने पुरूष भेष में आ जाओगे। कंस ने ऐसा ही किया। छः माह के अंतिम दिन उसने जैसे ही वृषभानु कुंड में स्नान किया वह अपने वास्तविक भेष में आ गया। साथ ही उसने कुंड का जल अपनी सेना पर छिड़का, जिससे उसकी सेना भी जीवित हो गयी। फिर कभी उसने बरसाना की ओर मुड़कर नही देखा।
रस-साम्राज्ञी राधा रानी ने नंदगांव में नंद बाबा के पुत्र के रूप रह रहे भगवान श्रीकृष्ण के साथ समूचे ब्रज में बड़ी ही अलौकिक लीलाएं कीं। जिन्हें की पुराणों में माया के आवरण से रहित जीव का ब्रह्म के साथ विलास बताया गया है। इन लीलाओं का रसास्वादन करने के लिए लोक पितामह ब्रह्मा तक लालायित रहे। अतैव उन्होंने एक दिन भगवान श्रीकृष्ण से यह प्रार्थना की कि वह उनकी कुंज लीलाओं का दर्शन करना चाहते हैं। इस पर भगवान श्रीकृष्ण ने उनसे यह कहा कि तो चलो आप बरसाना में ब्रह्मेश्वर पर्वत के रूप में विराजमान हो जाओ। मैं आपकी ही गोद में अपनी समस्त लीलाएं करूँगा। इस पर ब्रह्मा जी अत्यंत प्रसन्न होकर बरसाना में आ विराजे।
कालांतर में एक बार जब देवर्षि नारद के अवतार ब्रजाचार्य नारायणभट्ट बरसाना स्थित ब्रहमेश्वर गिरि नामक पर्वत पर गोपी भाव से अकेले विचरण कर रहे थे तो उन्होंने देखा कि राधा रानी भी भगवान श्रीकृष्ण के साथ विचरण कर रही हैं। भट्ट जी इन दोनों के सम्मुख हाथ जोड़कर खड़े हो गये। इस पर राधा रानी ने उनसे यह कहा कि इस पर्वत में मेरी एक प्रतिमा विराजित है। उसे तुम अर्ध रात्रि में निकाल कर उसकी सेवा करो। इतना कहकर वह अंतर्ध्यान हो गईं। भट्ट जी ने उनके कहे अनुसार प्रतिमा को खोज निकाला। साथ ही वह इस प्रतिमा का अभिषेक आदि कर पूजन-अर्चन करने लग गए। यह घटना सम्वत 1626 की आषाढ़ शुक्ल द्वितीया की है।
इसके बाद ब्रह्मेश्वर पर्वत पर राधा रानी का भव्य मंदिर बनवाया गया, जिसे कि श्रीजी का मंदिर या लाड़िली महल भी कहते हैं। इस मंदिर की अत्यधिक मान्यता है। कहा जाता है कि यदि कोई व्यक्ति ब्रज में आकर और बरसाना जाकर राधा रानी मन्दिर के दर्शन कर राधा-कृष्ण का स्मरण नही करता है, तो उसका ब्रज में आना निरर्थक है।
राधा रानी भगवान श्रीकृष्ण का अभिन्न अंग थीं। वह आयु में श्रीकृष्ण से 11 माह बड़ी थीं। उनकी भगवान श्रीकृष्ण में अनन्य आस्था थी। वह उनके लिए हर क्षण अपने प्राण तक न्यौछावर करने के लिए तैयार रहतीं थीं। ब्रज की जीवन धन राधा रानी की महिमा अपरंपार है।विभिन्न पुराण, धार्मिक ग्रंथ एवं अनेकानेक विद्वानों द्वारा रचित पुस्तकें उनकी यशोगाथा से भरी हुयी हैं।
ब्रज में यह मान्यता है कि राधा का नाम लेने से ही सारे अधूरे काम स्वतः पूरे हो जाते हैं। यह भी कहा गया है कि यदि कोई व्यक्ति राधा को त्याग कर केवल भगवान श्रीकृष्ण का भजन करे तो उसका स्वप्न में भी कल्याण सम्भव नहीं है। वस्तुतः राधा रानी का नाम सम्पूर्ण अमंगल को नास करने वाला है।
राधावल्लभीय रसिक सन्त श्रीहित ध्रुवदास जी महाराज ने राधा रानी के एक सौ एक नाम बताते हुए यह कहा है कि जिस भाग्यशाली भक्त की जिह्वा इन नामों का गान करेगी, वह निश्चित ही परमशान्ति को प्राप्त करेगा। राधा रानी को भगवान श्रीकृष्ण से भी बड़ा बताया गया है। कहा गया है कि-
राधा तू बड़भागिनी, कौन तपस्या कीन्ह।
तीन लोक तारन तरन, सो तेरे आधीन।।
श्री राधा चालीसा में यह भी कहा गया है-
” राधा नाम लेई जो कोई, सहजहि दामोदर बस होई। यशुमति नन्दन पीछै फिरिहें, जे कोई राधा नाम सुमिरिहै।।”
बरसाना के ब्रह्मेश्वर गिरि स्थित श्रीजी मन्दिर में सन 1545 से निरन्तर प्रति वर्ष राधा रानी का जन्म दिवस राधाष्टमी महोत्सव के रूप में अत्यधिक धूमधाम के साथ मनाया जाता है। राधाष्टमी की पूर्व रात्रि से ही श्रीजी मन्दिर में “राधा-राधा” की रट लगाकर रात्रि जागरण और पद गायन होता है। प्रातः5 बजे मन्दिर में स्थापित उनकी मनोहारी प्रतिमा को सफेद साड़ी पहनाकर मन्दिर के गोस्वामियों द्वारा सवा मन दूध, सवा मन दही, सवा मन देशी घी, सवा मन बूरा आदि से बने पंचामृत के द्वारा अत्यंत विधि-विधान के साथ वैदिक मंत्रों के मध्य अभिषेक किया जाता है।चूंकि राधा रानी का प्राकट्य मूल नक्षत्र में हुआ था इसलिए मूल शान्ति हेतु उनके अभिषेक में प्रयुक्त होने वाले पंचामृत में 27 कूंओं का जल, 27 ब्रज के पवित्र स्थानों की रज एवं 27 वृक्षों की पत्तियाँ आदि भी मिला दीं जाती हैं। इसके बाद राधा रानी की महाआरती एवं उनके स्वर्ण पालने में दर्शन होते हैं। ततपश्चात बरसाना एवं नंदगांव के गोस्वामीगण राधा रानी एवं भगवान श्रीकृष्ण के प्रतीक के रूप में आमने-सामने बैठकर सामूहिक बधाई समाज गायन करते हैं।जिनमें प्रमुख इस प्रकार हैं-
“आज बरसाने बजति बधाई, भाग बड़े रानी कीरति के जिन यह कन्या जाई……। ”
एवं
” भादौं सुदि आठें उजियारी, श्रीवृषभानु गोप के मन्दिर प्रगटी राधा प्यारी……..।
आदि पदों को बड़ी ही धूम के साथ गाया जाता है। साथ ही “राधा प्यारी ने जन्म लियौ है” की जय घोष के साथ दही में हल्दी व केशर डालकर अत्यंत हर्षोल्लास के साथ एक दूसरे पर फेंका जाता है। जिसे “दधिकांदा” कहते हैं। साथ ही रुपये, बर्तन व कपड़े आदि भी लुटाये जाते हैं। सारा मन्दिर “राधा रानी की जय, बरसाने वारी की जय” से गूंज उठता है। मध्यान्ह में राजभोग आरती होती है। भक्तगण न केवल मन्दिर की अपितु समूचे गहवर वन की नाच-गाकर परिक्रमा करते हैं।
सांय काल राधा रानी का डोल मन्दिर की 250 सीढ़ियां उतरकर मन्दिर के नीचे छतरी पर आता है।यहाँ पर भक्तगण राधा रानी के मनोहारी विग्रह के दर्शन करते हैं। साथ ही गोस्वामी परिवार की किसी विवाहित स्त्री के द्वारा उनकी आरती की जाती है। इसके बाद राधा रानी के अभिषेक के समय प्रयुक्त साड़ी के चीर एवं मालपूए भक्तगणों को बतौर प्रसाद बाँटे जाते हैं। इस अवसर पर श्रीजी मन्दिर की अनुपम व भव्य सजावट की जाती है।ततपश्चात समाज गायन होता है। इसके अलावा वृषभानु मन्दिर में भी बधाई के पद गाये जाते हैं। राधा रानी का डोल रात्रि को मन्दिर में वापिस आ जाता है। उसके बाद श्रीजी मन्दिर के सेवायत गोस्वामी की विवाहित बेटी या बहन राधा रानी की पुनः आरती उतारती है।
इस अवसर पर समूचे बरसाना में राधा अष्टमी की विकट धूम रहती है। इस पुण्य-पर्व में भाग लेने हेतु दूर-दराज से लाखों लोग बरसाना पहुंचते हैं। लोग-बागों के टोल के टोल पूरे बरसाना की पद गायन करते हुए परिक्रमा करते हैं। इस अवसर पर ऐसा प्रतीत होता है कि मानो सारा बरसाना “राधामय” हो गया है। तमाम भजन गायक जगह-जगह अपने भजनों के कार्यक्रम प्रस्तुत करते हैं। जगह-जगह कथा-भागवत, रासलीलाओं एवं दंगल आदि के कार्यक्रम होते हैं। साथ ही यहाँ पर विशाल भंडारे भी होते हैं, जिनमें कि बरसाना आने वालों को भरपेट नाना प्रकार के व्यंजन खिलाए जाते हैं। इस अवसर पर लोग-बाग जी भरकर रुपये-पैसे एवं अन्य वस्तुयें लुटाते हैं। समूचे ब्रजमण्डल के अलावा दूर-दराज के प्रायः सभी सिद्ध सन्त राधा रानी के प्राकट्य महोत्सव पर बरसाना पहुँचते हैं।
बरसाना वासी अपने घरों की बिजली के रंग-बिरंगे बल्वों, वन्दनवारों एवं फूलों आदि से नयनाभिराम सजावट करते हैं। सारे का सारा बरसाना यहां आए हुए लोग-बागों से इस कदर पट जाता है कि चहुंओर मानव समुद्र हिलोरें सी लेता हुआ दिखाई देता है।
इसके बाद एक सप्ताह तक बरसाना व उसके निकटवर्ती क्षेत्रों में प्रतिदिन अलग-अलग स्थानों पर प्राचीन रासलीलाओं का आयोजन किया जाता है। लोक पारम्परिक भाषा में इसे “बूढ़ी लीला” के नाम से पुकारा जाता है। इस दौरान नवमी को होने वाली रासलीला में भगवान श्रीकृष्ण के स्वरूप मोरकुटी पर मोर का रूप धारण करके नाचते हैं और राधा रानी की स्वरूप उन्हें लड्डुओं का भोग लगाती हैं। दसवीं को विलासगढ़ पर “शंकर लीला” होती है। एकादशी को सांखरी खोर “चोटी बन्धन” लीला होती है। इसी दिन सांयकाल प्रेम सरोवर (गाजीपुर) में राधा-कृष्ण के स्वरूप “जल विहार” की लीला करते हैं।द्वादशी को बरसाना के प्रियाकुण्ड पर श्रीकृष्ण के विवाह की लीला होती है और “जल विहार” के दर्शन होते हैं। अगले दिन बरसाना के राधा रानी मन्दिर में राधा रानी का छटी महोत्सव अत्यंत धूमधाम के साथ मनाया जाता है। पूर्णिमा को करहला में महारासलीला के दर्शन होते हैं।
राधा रानी की प्राकट्य स्थली रावल में भी राधाष्टमी तीन दिनों तक अत्यंत धूमधाम के साथ मनाई जाती है। इस मंदिर में राधा रानी के चरण दर्शन राधाष्टमी के अवसर पर अभिषेक के समय वर्ष भर में केवल इसी दिन एक बार होते हैं। यहां मध्याह्न 12 बजे मन्दिर के गर्भ गृह की पूजा व प्राकट्य उत्सव, अपरान्ह 2 बजे रासलीला एवं सांय काल यहां के गोकुलनाथ मन्दिर के गोस्वामियों द्वारा राधा रानी के श्रीविग्रह का पूजन होता है। रात्रि 8 बजे षष्टी पूजन किया जाता है। अगले दिन “बृषभानु उत्सव” के अंतर्गत झूलन के मनोरथ एवं बधाई गायन होता है।
डॉ. गोपाल चतुर्वेदी
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं आध्यात्मिक पत्रकार हैं)
रमणरेती,वृन्दावन