ज्ञान बहुत शुद्ध और सर्वोच्च सम्पदा है
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आज के समय की यह बहुत बड़ी समस्या हो गयी है की लोग अपनों से ही आपस में उलझते है । यह देख , सुन , समझकर
आदि हमें बहुत दर्द होता है । ज्ञान बहुत शुद्ध और सर्वोच्च सम्पदा है उसका सम्यक आचरण सोने में सुहागा ।प्रत्येक आत्मा अनंत ज्ञान सम्पन्न है ।हमारा अहंकार आदि दुर्गुण हमारी सम्यक श्रद्धा में बाधा पहुंचाकर उसे विकसित होने में आवरण डालते है। जिससे हमारा ज्ञान का पूर्ण विकास नहीं हो पाता है ।
हम अपने ज्ञान का सदुपयोग तभी कर सकते हैं जब ज्ञानदाता और ज्ञान के प्रति विनीत हो ,सरलमना होकर अपने को कथनी और करनी की एकात्मकता से जोड़ पाएं तब रागद्वेष मुक्त अवस्था मे हमारा सम्यक ज्ञान समुचित रूप से ज्ञाता-द्रष्टाभाव से देखने से शुद्ध रूप में प्रतिभासित होता है ।जहां कोई आवरण नहीं सिर्फ शुद्ध और शुद्ध पूर्ण ज्ञान होता है।अहंकार के रहते ये पा नहीं हम सकते है ।सबसे पहले कषाय विसर्जन आवश्यक है तो हम अपने कषायों से उपरत हो।
मन है कि मानता ही नहीं।विचारों का तांता सा रहता है लगा।विचार आते हैं विधायक भी और निषेधक भी। विधायक चिंतन से मिलती शांति और आनंद। निषेधक चिंतन से मन में भर जाता विषाद का घेरा। अशांति जमा लेती अपना डेरा ।आचार्य महाप्रज्ञ जी ने सुझाया -कि हरदम रहें सजग।ज्यों ही निषेधक भाव बढ़ाये कदम तो तुरंत करने लग जाये श्वास प्रेक्षा। ये विचार मेरे नहीं है ऐसी करें अनुप्रेक्षा।उस विचार को वहीं दे दे विराम। शुभ चिंतन की ओर मुड़ जाएं अविराम ।