सुश्राविका मनसुखी देवी दुग्गड़ जी के संथारे पर मेरे भाव
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सुश्राविका मनसुखी देवी दुग्गड़ जी के कोरबा ( छत्तीसगढ़ ) में संथारे पर वन्दन । न और स का अंतर ही तो हमारे मिथ्यात्व और सम्यक्त्व के आढ़े आता है।नकारात्मक दृष्टिकोण हमेशा संदेह पैदा करता है और सम्यक्त्व का बाधक बनता है ।हम सब जानते है कि एक दिन तो जन्म के बाद मृत्यु निश्चित है तो उससे डरने की बजाय श्रावक के अंतिम मनोरथ को पूरा करने के लिए हर पल विवेकपूर्ण तरीके को अपनाते हुए अप्रमत्त रहने के साथ अंतिम संलेखना संथारा पूर्वक अपने पंडित मरण की तैयारी करें और मृत्यु महोत्सव हो हमारे लिए ये सकारात्मक सोच के साथ हलुकर्मी होते हुए हिंसा का अल्पीकरण करते हुए अपना जीवनयापन करें।
साधना के द्वारा इस शरीर से सार निकालेऔर पौष्टिक और कम आहार करते हुए और सुअवसर पर पूर्ण जागरूकता पूर्वक अपनी प्रवृतियों को समेटते हुए निवृतिमय जीवन जीते हुए अन्तिम समय में संथारा को अपना मृत्यु महोत्सव मनाएं। तेरापंथ धर्मसंघ के प्रथम आचार्य श्री भिक्षु ने तीन दिन के चमत्कारिक संथारे के साथ प्रयाण किया था । ऐसा कहा जाता है कि अन्तिम समय में उन्हें अतीन्द्रिय ज्ञान ( अवधिज्ञान ) उपलब्ध हो गया था । उन्होंने सुखासन में बैठे – बैठे ही समाधि मरण का वरण कर अपने चरम लक्ष्य को प्राप्त किया । जीवन की संध्या में प्रत्येक श्रावक अन्तिम संलेखना की कामना करे । संलेखना का अर्थ हैं समाधिमरण की तैयारी । इसमें मृत्यु भी सहज सुन्दर , साधना बन जाती हैं । अनशन ( संथारे ) के बिना अनमने मन से मरना भी कोई मरना हैं । सुख का स्रोत बनने वाली मौत वह हैं , जो कलापूर्ण और धर्मसम्मत हो । जो जन्म लेता है , उसकी मृत्यु निश्चित हैं । किन्तु मृत्यु कब होगी ? इसका पता किसी को नहीं होता । ऐसी स्थिति में व्यक्ति संलेखना की तैयारी कब शुरू करे ? यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न हैं ।
मनुष्य रोग से डरता हैं । आतंक से डरता है । बुढ़ापे से डरता हैं ।मृत्यु से डरता हैं । इसके विपरीत मारणान्तिक संलेखना मृत्यु के भय से मुक्त होने की साधना हैं । जागरुक श्रावक मानसिक संकल्प के रूप में संलेखना की अभिलाषा करता हैं ।सरदारशहर निवासी कोरबा छत्तीसगढ़ प्रवासी स्व. मांगीलाल जी की धर्मपत्नी , स्व. कन्हैयालाल जी एवं बजरंगलाल जी की माताश्री, प्रदीप, विकास,सुनील की दादी, रितेश, पीयुष,आयुष, आदर्श, दक्ष की परदादी श्रीमती मनसुखी देवी दुग्गड़ जी ने 15 जनवरी को अपने पूर्व के आभास के अनुसार अपनी माता के पद चिन्हों पर चलते हुए अगले दिन 16 जनवरी को चौविहार तेला का प्रत्याख्यान किया । 19 जनवरी को तेले का पारणा किया व खिचड़ी और खायी उसके बाद स्वयं ने ही उच्च भावों से उसी दिन ( 19 जनवरी ) दोपहर को 1 बजे 99 वर्ष की उम्र में संथारा प्रत्याख्यान स्वीकार कर घर वालो को बोला की अब मैं इस जीवन में कभी भी नहीं खाऊँगी । आपके पौत्र प्रदीप जी से मेरी पुरानी पहले साक्षात मुलाकात व आज की बात से मुझे ज्ञात हुआ कि आपने बिना किसी वेदना , दुःख आदि के पूर्ण जागरूकता से शुद्ध मन से संथारा प्रत्याख्यान किया हैं ।
आप अपने सारे काम स्वयं ही करती है । आपके कितने वर्षों से जमीकंद के त्याग हैं । 35 वर्ष ( लगभग ) से आप रात्रि चौविहार कर रही है । 10 वर्ष से हर चातुर्मास काल में आप हर 15 वे दिन उपवास व रात्रि पौषध करती हैं । दिन में 10-12 सामायिक आप रोज करती हैं । आत्मा अमर हैं । काया नश्वर हैं । हम इस हकीकत को समझें । अतः हम् इस नश्वर शरीर के द्वारा अपनी अमर आत्मा के लिए अपनी उम्र का इंतजार किये बगैर नित्य त्याग, तपस्या, साधना , स्वाध्याय आदि द्वारा सद्कर्म करते हुए इसे तपाते,महकाते रहें । जिससे जब भी हमारे आयुष्य का बंध हो जाये तो हम इस दुर्लभतम जीवन का पूरा सार मनसुखी देवी दुग्गड़ जी की तरह निकालते हुए , प्रसन्नतापूर्वक इस जहाँ से विदाई लेते हुए, अपनी आत्मा को उज्जवल करते हुए, अपने परम् धाम की और अग्रसर हो। आपने अनशन कर अपने जीवन पर वह दुग्गड़ कुल पर स्वर्णिम कलश चढ़ाया है । परिवार का साथ में सुखद संयोग आपके अनशन में चार चांद लगा रहा है ।आपके संथारे ने धर्म संघ की प्रभावना को शत गुणीत किया है । आपके भाव वर्धमान रहे ।आप उच्च भावों में संथारे को अतिशीघ्र सम्पन्न कर पाओ ।आपके प्रति बहुत – बहुत मेरी अनुमोदना और उच्च भावों में आपके वर्धमान रहने का मंगल भाव ।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़, राजस्थान)