Lok Dastak

Hindi Samachar, हिंदी समाचार, Latest News in Hindi, Breaking News in Hindi.Lok Dastak

RANA SANGA CASE : ऐतिहासिक छल के मुंडे़र पर प्रपंची

1 min read
Spread the love

 

PRESENTED BY ARVIND JÀYTILAK

समाजवादी पार्टी के राज्यसभा सांसद रामजीलाल सुमन द्वारा मेवाड़ के महान देशभक्त शासक राणा सांगा (महाराणा संग्राम सिंह) को गद्दार कहे जाने से देश भर में उबाल और बवाल मचा है। भारतीय जनमानस उद्वेलित है और उनसे माफी की मांग कर रहा है। जानना आवश्यक है कि गत रोज पहले सपा सांसद रामजीलाल सुमन ने राज्यसभा में कहा कि इब्राहिम लोदी को हराने के लिए राणा सांगा ने बाबर को भारत बुलाया था। उन्होंने यह भी कहा कि ‘जब मुसलमानों को बाबर का वंशज कहा जाता है, तो फिर हिंदुओं को गद्दार राणा सांगा का वंशज क्यों नहीं कहा जाना चाहिए।’ बाबर के महिमामंडन और राणा सांगा के अपमान से देश हतप्रभ है। लोग अचंभित हैं कि समाजवादी पार्टी के नेता वोटयुक्ति और तुष्टीकरण के लिए क्या इस हद तक गिर जाएंगे कि उन्हें अपने राष्ट्रनायकों के सम्मान का भी बोध नहीं रहेगा?

क्या वे इतिहास को यों ही तोड़-मरोड़कर देश की अस्मिता से खिलवाड़ करेंगे? रही बात ऐतिहासिक तथ्यों की तो इसका कहीं भी उल्लेख नहीं है कि राणा सांगा ने इब्राहिम लोदी को हराने के लिए बाबर को भारत बुलाया था। जहां तक बाबरनामा का सवाल है तो उसमें भी राणा सांगा को महान शासक कहा गया है। दुनिया के इतिहासकारों का एक बड़ा समूह इस ऐहितासिक झूठ के खिलाफ है कि राणा सांगा ने बाबर को भारत आने के लिए आमंत्रित किया था। सच तो यह है कि वह इसे भारत की गरिमामयी इतिहास और संस्कृति के साथ छल और साजिश मानता है। इन इतिहासकारों का तर्क है कि इब्राहिम लोदी को तीन बार हरा चुके राणा सांगा को बाबर के मदद की तनिक भी जरुरत ही नहीं थी।

इतिहासकारों की मानें तो 1527 में हुए बयाना के युद्ध में राणा सांगा ने बाबर को कड़ी शिकस्त दी थी और वह हार के बाद आगरा भाग गया। भला ऐसे में राणा सांगा बाबर को भारत आने के लिए आमंत्रित क्यों करेंगे? गौर करें तो रामजीलाल सुमन पहले ऐसे सियासी सुरमा नहीं हैं जो देश की सभ्यता-संस्कृति और इतिहास से खिलवाड़ करते देखे-सुने गए। उन जैसे बहुतेरे हैं जो तुष्टीकरण और वोटयुक्ति के लिए अपनी संस्कृति, सभ्यता, आदर्श और मूल्यों से घृणा से भी हिचकते नहीं हैं। सच कहें तो इस कुकर्म के लिए अंग्रेज और मार्क्सवादी इतिहासकार सर्वाधिक जिम्मेदार हैं जिन्होंने भारतीय इतिहास की मूल चेतना और सच को दफनाने की हरसंभव कोशिश की।

अगर भारतीय चेतना को समझकर चैतन्य के प्रकाश में इतिहास लिखा गया होता तो आज राणा सांगा को गद्दार, रानी पद्मावती को अलाउद्दीन खिलजी की प्रेमिका, शहीद भगत सिंह को क्रांतिकारी आतंकवादी, शिवाजी को पहाड़ी चूहिया और चंद्रगुप्त मौर्य की सेना को डाकुओं का गिरोह नहीं कहा जाता। अंग्रेज व मार्क्सवादी इतिहासकारों ने जानबुझकर इस भ्रामक धारणा को बल दिया कि भारत में इतिहास लेखन की समृद्ध परंपरा नहीं रही और इसकी शुरुआत उन्होंने की। लेकिन यह सरासर झुठ है। वेद, पुराण, उपनिषद और तमाम धर्मशास्त्र धार्मिक गं्रथ होते हुए भी इतिहास विषयक है। इनमें राजाओं की वंशावलियों के अलावा तत्कालीन समाज की रीति-नीति और व्यापार-कारोबार का भरपूर उल्ल्लेख है।

सच तो यह है कि अंग्रेज और मार्क्सवादी इतिहासकारों ने इतिहास के सच को सामने लाने के बजाए अनगिनत मनगढंत निष्कर्ष पैदा किए। उसकी कुछ बानगी इस तरह है-रामायण, महाभारत तथा अन्य प्राचीन भारतीय गं्रथ मिथ हैं। प्राचीन भारतीय पौराणिक साहित्य में वर्णित राजवंशावलियां तथा राजाओं की शासन अवधियां अतिरंजित होने से अप्रमाणिक एवं अविश्वसनीय हैं। प्राचीन भारतीय विद्वानों में ऐतिहासिक लेखन क्षमता का अभाव रहा। भारत के प्राचीन विद्वानों के पास कालगणना की कोई निश्चित तथा ठोस विधा कभी नहीं रही। भारत का शासन समग्र रुप में एक केंद्रीय सत्ता के अधीन अंग्रेजी शासन से आने से पूर्व कभी नहीं रहा।

आर्यों ने भारत में बाहर से आकर यहां के पूर्व निवासियों केा युद्धों में हराकर अपना राज्य स्थापित किया और हारे हुए लोगों को अपना दास बनाया। भारत के इतिहास की सही तिथियां भारत से नहीं विदेशों से मिली। भारत में विशुद्ध इतिहास अध्ययन के लिए सामग्रियां बहुत कम मात्रा में सुलभ रही। भारत के इतिहास की प्राचीनतम सीमा 2500-3000 ईसा पूर्व तक रही। भारत के मूल निवासी द्रविड़ हैं। यूरोपवासी आर्यवंशी हैं। सरस्वती नदी का अस्तित्व नहीं है। इस तरह के और भी अन्य-अनेक मनगढ़ंत विचारों को आकार देकर उन्होंने भारत के साहित्य को नकारने की कोशिश की। दरअसल इस खेल के पीछे दो मुख्य उद्देश्य था। एक, अपनी सत्ता के खिलाफ विद्रोह को दबाना और दूसरा इस साजिश के जरिए भारतीयों में हीनता की भावना पैदा करना। इसके अलावा उन्होंने अपनी औपनिवेशिक तानाशाही को जायज ठहराने के लिए भी भारतीय इतिहास के साथ घालमेल किया।

विलियम कैरे, अलेक्जेंडर डफ, जॉन मुअर, और चार्ल्स ग्रांट जैसे इतिहासकारों ने भारत के इतिहास को अंधकारग्रस्त और हिंदू धर्म को पाखंड और झूठ का पर्याय कहा। भारत में अंग्रेजी शिक्षा के जनक और ईसाई धर्म को बढ़ावा देने वाले मैकाले ने तो यहां तक कहा कि भारत और अरब के संपूर्ण साहित्य का मुकाबला करने के लिए एक अच्छे यूरोपीय पुस्तकालय की एक आलमारी ही काफी है। 1834 में भारत के शिक्षा प्रमुख बने लार्ड मैकाले ने भारतीयों को शिक्षा देने के लिए बनायी अपनी नीति के संदर्भ में अपने पिता को एक पत्र लिखा जिसमें कहा कि मेरी बनायी शिक्षा पद्धति से भारत में यदि शिक्षा क्रम चलता रहा तो आगामी 30 वर्षों में एक भी आस्थावान हिंदू नहीं बचेगा। या तो वे ईसाई बन जाएंगे या नाम मात्र के हिंदू रह जाएंगे।

समझा जा सकता है कि इतिहास लेखन की आड़ में अंग्रेजी इतिहासकारों के मन में क्या चल रहा था। गौर करें तो इन डेढ़ सौ सालों में इतिहास लेखन की मुख्यतः चार विचारधाराओं का प्रादुर्भाव हुआ-साम्राज्यवादी, राष्ट्रवादी, मार्क्सवादी और सबलटर्न। साम्राज्यादी इतिहासकारों की जमात भारत में आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संरचना के रुप में कभी भी उपनिवेशवाद के स्वरुप को स्वीकार नहीं की। उनका इतिहास लेखन और भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का विश्लेषण मूलतः भारतीय जनता और उपनिवेशवाद के आपसी हितों के आधारभूत अंतरविरोधों के अस्वीकार्यता पर टिका है। इतिहासकारों का यह खेमा कतई मानने को तैयार नहीं कि भारत राष्ट्र बनने की प्रक्रिया में था। उनके मुताबिक जिसे भारत कहा जाता है, वह वास्तव में विभिन्न धर्मों, समुदायों और जातियों के अलग-अलग हितों का समुच्चय था।

दूसरी ओर राष्ट्रवादी इतिहास लेखन की जमात में शामिल इतिहासकारों ने राष्ट्रीय आंदोलन में जनता की भागीदारी को प्रभावकारी माना। दूसरी ओर मार्क्सवादी इतिहास लेखन की धारा भारतीय राष्ट्रवाद के वर्गीय चरित्र का विश्लेषण और उसकी व्याख्या उपनिवेश काल के आर्थिक विकासक्रमों के आधार पर करने की कोशिश कर भारतीय इतिहास के गौरवपूर्ण कालखंड को मलीन करने की कोशिश की। इन इतिहासकारों ने राष्ट्रवाद की प्रबल भावना को नजरअंदाज करते हुए एक साजिश के तहत भारतीय समाज को ही वर्गीय खांचे में फिट कर दिया। रजनी पामदत्त और सोवियत इतिहासकार वीआइ पारलोव जैसे आरंभिक मार्क्सवादियों के इस वर्गीय दृष्टिकोण को एसएन मुखर्जी, सुमित सरकार और विपिन चंद्रा की बाद की मार्क्सवादी रचनाओं में संशोधित किया गया।

मार्क्सवाद उन आर्थिक, राजनीतिक और आर्थिक सिद्धांतों का समुच्चय है जिन्हें उन्नीसवीं-बीसवीं शताब्दी में कार्ल मार्क्स, फ्रेडरिक एगेंल्स और ब्लादिमीर लेनिन ने समाजवाद के वैज्ञानिक आधार की पुष्टि के लिए प्रस्तुत किया लेकिन आज पूरी तरह विफल है। भारत के लिए आघातकारी रहा कि आजादी के उपरांत इतिहास लेखन की जिम्मेदारी मार्क्सवादी इतिहासकारों को सौंपी गयी और वे ब्रिटिश इतिहासकारों के कपटपूर्ण आभामंडल की परिधि से बाहर नहीं निकल सके। उन्होंने अंग्रेजों की तरह ही भारतीय इतिहास की एकांगी व्याख्या कर भारतीय संस्कृति को नीचा दिखाने की कोशिश की।

अंग्रेजों की तरह उनकी भी दिलचस्पी भारत के राष्ट्रीय गौरव को खत्म करने की रही। आज आधुनिक भारत का पूरा इतिहास लेखन ही मार्क्सवादी इतिहास लेखन है। उचित होगा कि इतिहास का पुनरलेखन हो। इसलिए कि इतिहास की भारतीय दृष्टि घटना परक नहीं, पुरुषार्थ परक है और वैदिक काल से लेकर अद्यतन इतिहास का क्रम दुनिया में मात्र भारतीय समाज का ही मिलता है।

 

 

 

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Copyright ©2022 All rights reserved | For Website Designing and Development call Us:-8920664806
Translate »