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MEMORIES : आँखों से आंखों का वह आखिरी संवाद..

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PRESENTED BY GAURAV AWASTHI

स्मृतिशेष पंडित सरयू प्रसाद द्विवेदी स्मृति

 

उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले के एक प्राइवेट अस्पताल के HDU वार्ड में लगीं मशीनें कमजोर होते शरीर, उखड़ती सांसों की गवाही दे रही थी। BP और Oxygen लेबल क्षण-क्षण fluctuate कर रहा था। Pulse नॉर्मल से दो गुना अधिक लेकिन सदैव गतिशील रहने वाले सत्य के अजेय योद्धा पंडित सरयू प्रसाद द्विवेदी (बाबूजी) अंतिम पहर में भी मौत के चक्रव्यूह को भेद कर बाहर निकलने की कोशिश में थे।

आंखें मुंदने और अंतिम सांस लेने के 24 घंटे पहले की बात थी। आंखों से उनका संवाद जारी था। भर आंखों से वह देखते जा रहे थे। उनके इस देखने में भी जैसे आदर्श जीवन की रीति-नीति, आचार-विचार, सिद्धांत और सत्य के संदेश प्रवाहित थे। वह आंखों से कहते जा रहे थे और हमारी आंसुओं में डबडबाई आंखें उस संदेश को पढ़ने की समझ बढ़ाने की कोशिश में।

इस बीच उन्होंने कुछ बोलने क्या पानी मांगने जैसी कोई आवाज निकालनी चाही पर हम असहाय!!! सिस्टर की सख्त ताकीद थी कि oral कुछ भी नहीं दिया जा सकता। ऑक्सीजन मास्क हटा नहीं कि सांसो का संकट बढ़ा। दो जोड़ी आंखों के कहने-सुनने का य़ह क्रम करीब डेढ़-दो घंटे तब तक चला जब तक कोई दूसरा तीमारदारी में आ नहीं गया। सत्यवादी बाबूजी से यही आखिरी मुलाकात थी।

दूसरे दिन वह उस यात्रा के लिए महाप्रस्थान कर गए, जहां से कोई लौटकर नहीं आता। बाबूजी ने अभी 7 दिसंबर को ही जीवन के 84 वर्ष पूर्ण करके 85वे में प्रवेश किया था। 1008 महीने और 30670 दिनों का जीवन जीकर अनंत यात्रा पर निकले बाबुजी द्वारा आंखों से दिया गया य़ह आशीर्वाद अब हमारे जीवन की अमूल्य थाती है।

लंबा कद, सुगठित-गौरांग शरीर, सन जैसे सफेद बाल, बढ़ी दाढ़ी, मध्य शिखा, त्रिपुण्ड युक्त दिव्य ललाट उनके संत प्रकृति का प्राकट्य था। अंदर कोमल-बाहर कठोर, प्रखर वक्ता-स्पष्ट सोच वाले गांधीवादी बाबूजी का विराट व्यक्तित्व इस युग में ब्राह्मणत्व का परिचय था। परचम था। ज्ञान लबालब। घमंड शून्य। धर्म की पालना भी। कर्म का उद्योग भी। पद-पैसे की लिप्सा नहीं। सम्मान-अभिमान से दूर उनका जीवन संघर्ष की आंच में ढला था। पका था।

रायबरेली-उन्नाव की सीमा पर बसे बैसवारे के छोटे से गांव शांति खेड़ा (चहोतर) से निकलकर पहले प्रयागराज, खंडवा और फिर पिता की इच्छा के अनुरूप रायबरेली में 40 साल पहले अपना स्थाई आशियाना बनाने के लिए संघर्ष किया लेकिन सत्य का साथ नहीं छोड़ा। नियम-संयम नहीं तोड़ा। सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। स्पष्टता जीवन की का ईष्ट अंत तक बनी रही। चेहरा देखकर बातें करने से उन्हें गुरेज था। सच को सच कहने का साहस उनकी विशेषता थी।

इतने विशेषणों से भी उनके जीवन पर विराम नहीं लगता। वह हर किसी के जीवन को सवारने, सुधारने और आगे बढ़ाने के लिए हर वक्त संकल्पित थे। जीवन की हर समस्या का हल या आगे बढ़ने का सूत्र वह किसी मंत्र, चौपाई और दोहे के उदाहरण से क्षण भर में पकड़ा देते थे। उनके संपर्क में आने वाला इस आशीर्वाद से कभी वंचित नहीं रहा। अपने ज्ञान का उन्होंने सदैव सार्थक उपयोग समाज, परिवार, व्यक्ति के हित में जरूर किया। यह उनके स्वभाव का अहम हिस्सा था और संस्कार भी। यही छाप आप उनके सुपुत्र में भी देख-सुन और महसूस कर सकते हैं।

हमें भी यह सौभाग्य 1996 में रायबरेली आने के तत्काल बाद उनके सुपुत्र विनय के ठीक-ठाक संपर्क में आने के बाद मिलने लगा। हमारे सुव्यवस्थित जीवन के असली सूत्रधार बाबूजी ही थे। स्वभाववश जब कहीं अटके-भटके तब बाबूजी ने ही कभी उंगली पकड़कर, कभी डांट-फटकारकर, कभी रामचरितमानस, गीता, शास्त्र, उपनिषद में समाहित सूत्रों के आधार पर हमारे जीवन को सही राह पर चलाया। जीवन के अच्छे-सच्चे का सारा श्रेय बाबूजी को ही। कमी-ख़राबी हमारी अपनी।

हमारा और हमारे परिवार का जो कुछ भी है, वह सब उन्हीं का दिया हुआ है। वह हमारे धर्म पिता थे। लोकल गार्जियन थे। इस सबसे अलग वह सब कुछ थे। पराये शहर में दूसरा घर मिल जाना सरल है पर दूसरे माता-पिता का मिलना लाख सौभाग्य। यह हमारा सौभाग्य था कि हमें घर से दूर एक दूसरे पिता के रूप में बाबूजी मिले। अम्मा मिलीं। अम्मा का मातृवत प्रेम और कड़क बाबूजी की वज़ह से रायबरेली में हमें मम्मी और पिताजी की कमी कभी महसूस ही नहीं हुई। अब जो कमी शेष जीवन में सालेगी, वह उचित मार्गदर्शन और ठोक- पीट कर सही रास्ते पर लाने वाले की रहेगी।

कौन बताएगा? कौन समझायेगा? जीवन जीने की उन गूढ़ बातों को!!! गलतियों में कौन सुधार कराकर सही राह पर लाएगा????
ऐसे बाबूजी को कैसे अपने जीवन से विदा किया जा सकता है? धर्मपुत्र होने के नाते आपसे जो पाया, जो सीखा (सब तो असंभव), उसे सहेजकर भावी पीढ़ी तक पहुंचाने की जिम्मेदारी अब हमारी। इस जिम्मेदारी का निर्वहन ही आपके न होकर भी होने का अहसास कराता रहेगा।
ईश्वर के श्रीचरणों में स्थान पाने के आप सौ फीसदी सुपात्र हैं तो ऐसी प्रार्थना याचना बेमतलब ही। बाबूजी आप सदा स्मृतियों में थे, हैं और रहेंगे..आपकी चिर स्मृति को स्थिर प्रणाम I

( नोट-लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )

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