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चर्चाओं में एक बार फिर किट्टी पार्टीज्  !

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PRESENTED BY BABITA JAIN ‘KOMAL’ (WRITER)

एक बार फिर जयपुर के पाँच सितारा होटल में हुई किट्टी पार्टी चर्चा में है।

कई तरह की चर्चाएँ हैं-

1. इनकी क्या आवश्यकता है?

2. इनका आयोजन पैसे की बर्बादी है।

3. इनमें भाग लेने वाली महिलाएँ असंस्कारित होती है। आदि

अब दो सवाल है, क्या ये चर्चाएँ वाजिब है? और दूसरा किट्टी पार्टी आखिर क्या है?

यह जानने के पहले आइये यह जानते हैं कि हर एक सजीव सामाजिक प्राणी है। अर्थात जिस किसी में भी प्राण है वह अकेला नहीं रह सकता। वे चाहे पेड़-पौधे हो, जीव-जन्तु हो या मानव हो।

हर किसी के अपने समूह हैं जिनमें रहकर वह सुरक्षित और पूर्ण महसूस करता है। आज जिस विकास और विज्ञान के हम साक्षी है उस तक हम सामाजिक लेन-देन के कारण ही पहुँच पाए हैं।

यहाँ अब सवाल आयेगा कि समूह में रहने का किट्टी पार्टी से क्या संबंध है? चलिए यह भी जान लेते हैं। पहले के जमाने में मनोरंजन के साधन के रूप में गाँव की चौपाल या समारोह आदि में नाच-गान ही होता था। हाँ, लेकिन विज्ञान इतना सक्रिय नहीं था इसलिए अधिकतर काम सहयोग से किये जाते थे।

पहले गाँव में शादी होती थी तो पूरा गाँव हाथ बँटाता था। मसाले घर में पीसे जाते थे, सैंकड़ों लोगों का खाना भी गाँव की महिलाएँ आपस में मिलकर ही बनाती थी। पापड़, मंगोड़ी, खिचिया आदि मानव श्रम से जुड़े सभी कार्य घर पर महिलाएँ एक-दूसरे का सहयोग करके किया करती थी।

इन सहयोग के क्षणों में वे काम के साथ मनोरंजन भी तलाश लेती थी। आज भी हम यदि पीछे मुड़कर देखेंगे तो हमें इन कार्यों से जुड़े लोक-गीत मिल जायेंगे जो सब मिलकर गाया करती थी औऱ काम समाप्त होने के बाद जी भरकर नाचा करती थी। इन कार्यों की आड़ में सामाजिक प्राणी की अभूतपूर्व आवश्यकता अर्थात समूह में रहना पूरी हो जाती थी।

इससे दो काम पूरे होते थे। शारीरिक श्रम और आपसी मिलन। वक्त ने करवट ली और हम विज्ञान के दौर में श्रमहीन हो गए। पहले समूह मिलकर जो काम किया करते थे वे मशीनें करने लगीं। नतीजा एक-दूसरे से मिलना कम हो गया।

ऐसा होने से फिर से दो बातें हुई। श्रम कम करने से शरीर अस्वस्थ रहने लगे क्योंकि शरीर भी एक मशीन ही है और इससे इसके हिस्से का काम नहीं लिया जायेगा तो इसके कलपूर्जे या तो काम करना बंद कर देंगे या शिथिल हो जायेंगे।

बस, रास्ता जिम और एक्सरसाइज के रूप में मिल गया। नीरोगी जीवन के लिए आपको शारीरिक श्रम करके पसीना तो बहाना ही पड़ेगा भले वो दैनिक कार्य करके बहा लो या फिर सुबह-सुबह जिम में एक घंटा बिताकर बहा लो।

मगर अभी भी घरेलू महिलाओं को सामाजिकता का समाधान नहीं मिला था। एक तो मशीनें आ जाने से घर का काम कम हो गया था तो उन्हें ऐसे ही समय अधिक मिलने लगा था और टीवी ने आकर दुनिया को छोटे से डिब्बे तक सीमित कर दिया था। यह पूरी आभाषी दुनिया थी जहाँ आपको आपके जैसे लोग नज़र तो आते थे मगर आप उनसे बातें नहीं कर सकते थे।

बस यहीं से अवसाद की शुरुआत हुई। खास तरह के हार्मोन्स जो आपको खुश रखते हैं वे बनना ही बंद हो गए। पसीना बहाने से भी मन को खुश रखने वाला हार्मोन बनता है। शायद यह कमी जिम, योगा आदि ने पूरी कर दी मगर लोगों से मिलकर, बातें करके जो हार्मोन बनता है वह बनना बंद हो गया क्योंकि घरेलु महिलाओं को घर के सदस्यों के अलावा किसी का चेहरा ही दिखना बंद हो गया।

पुरुषों एवं कामकाजी महिलाओं के लिए यह मुश्किल नहीं है क्योंकि उन्हें तो दिन भर में अपने कार्य के दौरान कई चेहरे नज़र आ ही जाते हैं। मुसीबत यदि किसी पर आई तो वह महिलाओं पर। वह भी उन महिलाओं पर जो घरेलू है। बस, यहीं से किट्टी पार्टी का आविष्कार हुआ।

हम भले इसे पैसे वालों का चौंचला कह दे मगर हमें यह स्वीकार करना ही पड़ेगा कि लोगों से मिलना शरीर को स्वस्थ रखने के लिए अत्यंत आवश्यक है।

चूंकि मध्यमवर्गीय महिलाओं को मशीनों के दौर में भी घर का काम निपटाने के बाद कम ही समय मिल पाता है इसलिए यह चलन उच्च वर्ग से आरम्भ हुआ जो धीरे-धीरे स्वास्थ्य की गिरती दर देखते हुए मध्मयवर्ग में भी आया।

कहने का तात्पर्य इतना ही है कि तरीके से यदि किट्टी पार्टीज् का आय़ोजन किया जाए तो यह तन और मन से स्वस्थ रहने के लिए महत्त्वपूर्ण आवश्यकता है, विलासिता नहीं है।

शर्त बस इतनी ही है कि इसे आडम्बरों और दिखावे में इस तरह नहीं बाँधा जाए कि ये किट्टी पार्टीज् ही अवसाद का कारण बन जाए। कुछ दिन पहले अखबार में किसी महिला की आत्महत्या की ख़बर पढ़ी थी। चौंकाने वाली बात यह थी कि कारण किट्टी पार्टी में थीम के अनुसार खर्च न किए जा सकने की बाध्यता था।

कुछ परिपाटियाँ अच्छे मकसद के लिए आरम्भ होती है मगर दिखावे के इस दौर में हम उन्हें इतना विकृत कर देते हैं कि उनका मूल उद्देश्य भटक जाता है और इन परिपाटियों पर सवालिया निशान खड़ा हो जाता है।

आशा है कि इस विश्लेषण के पढ़ने के बाद इनकी आवश्यकताओं को समझेंगे और इन्हें जड़ से हटाने पर चर्चा करने के बजाय इनमें आए दिखावे और थीम के प्रचलन के नाम पर होने वाले फिजूल खर्च को जड़ से मिटाने पर सार्थक चर्चा करने का प्रयास करेंगे।

 

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