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SPECIAL DAY : मलेरिया से निपटने की चुनौती_______

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PRESENTED BY ARVIND JAYTILAK 

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) की मानें तो पूरी दुनिया में मलेरिया के कुल मामलों में से 80 प्रतिशत मामले भारत और 15 प्रतिशत उप सहारा अफ्रीकी देशों से होते हैं। चिकित्सा पत्रिका लासेंट द्वारा भी कहा जा चुका है कि भारत में हर साल दो लाख से अधिक लोगों की मौत मलेरिया से होती है। इस पत्रिका की मानें तो यह आंकड़ा विश्व स्वास्थ्य संगठन के पास क्लीनिक और अस्पतालों में होने वाली मौतों की संख्या के आंकड़े के आधार पर है। जबकि बड़ी संख्या में मलेरिया से लोगों की मौतें घरों में होती है। उल्लेखनीय है कि भारत में मलेरिया उन्मूलन के प्रयास वर्ष 2015 में शुरु किए गए तथा वर्ष 2016 में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के नेशनल फ्रेमवर्क फाॅर मलेरिया एलिमिनेशन की शुरुआत के बाद इन प्रयासों में और अधिक तेजी आयी।

मलेरिया उन्मूलन के लिए राष्ट्रीय रणनीतिक योजना (2017-2022) जुलाई 2017 में शुरु की गयी जिसके अपेक्षित परिणाम मिलने शुरु हो गए है। मलेरिया से निपटने के लिए 2019 में देश के चार राज्यों में पश्चिम बंगाल, झारखंड, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में हाई बर्डन टू हाई इम्पैक्ट पहल की शुरुआत हुई है। इसी तरह इंडियन काउंसिल आॅफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) ने मलेरिया उन्मूलन अनुसंधान गठबंधन-भारत (एमईआरए-इंडिया) की स्थापना की है जो मलेरिया नियंत्रण पर कार्य करने वाले भागीदारों का एक समूह है।  गौरतलब है कि 1953 में भारत सरकार ने राष्ट्रीय मलेरिया नियंत्रण कार्यक्रम (एनएमसीपी) शुरु किया जो घरों के भीतर डीडीटी का छिड़काव करने पर केंद्रित था।

इसके अच्छे प्रभाव देखकर राष्ट्रीय मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम (एनएमईपी) 1958 में प्रारंभ किया गया। लेकिन 1967 के बाद मच्छरों द्वारा कीटनाशकों के तथा मलेरिया रोधी दवाओं के प्रति प्रतिकार क्षमता उत्पन कर लेने के कारण देश में मलेरिया ने पुनः पैर फैलाना शुरु कर दिया। उसका परिणाम यह हुआ कि देश में मलेरिया तथा उसके प्रभाव से उत्पन अन्य बीमारियां बढ़ने लगी। इसे ध्यान में रखते हुए 1997 में भारत सरकार ने अपना लक्ष्य रोग के उन्मूलन से हटाकर उसके नियंत्रण पर केंदित किया और कीटनाशकों के सार्वत्रिक छिड़काव को रोककर चुनिंदा भीतरी जगहों पर छिड़काव शुरु किया। 2003 में राष्ट्रीय ज्ञात कारण बीमारी नियंत्रण कार्यक्रम यानी एनवीबीडीसीपी के तहत मलेरिया नियंत्रण को अन्य ज्ञात-कारण बीमारियों के साथ मिला लिया गया।

क्योंकि ऐसी सभी बीमारियों की रोकथाम के लिए एक ही रणनीति होती है जैसे रासायनिक नियंत्रण, वातावरण प्रबंधन, जैविक नियंत्रण और निजी सुरक्षा उपाय। उल्लेखनीय है कि 2005 में भारत में शुरु किए गए राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन का उद्देश्य भी मलेरिया सही सभी ज्ञात बीमारियों पर नियंत्रण लगाना है। अच्छी बात यह है कि मलेरिया पर प्रभावी नियंत्रण बनाने के लिए विश्व बैंक भारत सरकार की लगातार मदद कर रहा है। ध्यान देना होगा कि विश्व बैंक के सहयोग से 1997 तथा 2005 के मध्य आईडीए साख द्वारा अंशतः वित्तीय सहायता प्राप्त एक मलेरिया नियंत्रण परियोजना चुनिंदा राज्यों एवं जिलों में लागू की गयी थी। यह परियोजना सरकार द्वारा मच्छरों पर नियंत्रण के प्रयासों से हटकर उनके निवारण, जल्द निदान और उपचार के प्रयासों के समर्थन में कार्यरत थी।

जहां भीतरी छिड़काव अधिक लक्ष्य केंदित एवं पर्यावरण संरक्षक विकल्पों वाला होना था वहीं लार्वा भक्षक मछलियों तथा जैव लार्वानाशकों के इस्तेमाल को प्रोत्साहन दिया गया। यही नहीं कीटनाशक-उपचारित मच्छरदानियों के इस्तेमाल को भी बढ़ावा दिया गया। यानी कहा जा सकता है कि परियोजना ने पहले के आदेश-आधारित उपायों से हटकर समुदाय समावेशित तथा स्वामित्व आधारित उपायों को अपनाया। उसका परिणाम यह हुआ कि परियोजना की समाप्ति पर जहां अधिकांश परियोजनाओं में बीमारी की घटनाओं में कमी पायी गयी। एनवीबीडीसीपी के आंकड़ों पर गौर करें तो इस दरम्यान यानी 1997 में मलेरिया की घटनाएं 26.6 लाख से घटकर 2003 में 18.6 लाख रह गयी। साथ ही यह भी अनुभव किया गया कि कार्यक्रम के संचालन में आमुलचूल परिवर्तन की जरुरत है। इसे ध्यान में रखते हुए 2009 में भारत सरकार की नई राष्ट्रीय मलेरिया नियंत्रण नीति के तहत मलेरिया निवारण में टिकाऊ कीटनाशक-उपचारित मच्छरदानियों के इस्तेमाल को प्रोत्साहन दिया गया और त्वरित निदान उपकरण एवं आर्टेमेसिनिन-आधारित समिश्र उपचार में प्रशिक्षित समुदाय स्वयंसेवियों के जरिए घटना प्रबंधन का विस्तार किया गया।

गौर करें तो मलेरिया मानव को हजारों वर्षों से प्रभावित करता रहा है। संभवतः यह सदैव मनुष्य जाति पर परजीवी रहा है। उल्लेखनीय है कि मलेरिया पर पहले पहल गंभीर वैज्ञानिक अध्ययन 1880 में हुआ था जब एक फ्रांसीसी सैन्य चिकित्सक चाल्र्स लुई अल्फोंस लैवेरन ने अल्जीरिया में काम करते हुए पहली बार लाल रक्त कोशिका के अंदर परजीवी को देखा था। तब उसने ही यह प्रस्तावित किया कि मलेरिया रोग का कारण यह प्रोटोजोवा परजीवी है। यहां ध्यान देना होगा कि मलेरिया प्रमुख रुप से वातावरण एवं जलवायु पर निर्भर करता है। क्योंकि मलेरिया के रोगवाहक तापमान एवं आर्द्रता के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होते हैं। हाल के दिनों में जलवायु परिर्तन के मद्देनजर मलेरिया में भी बदलाव देखे गए हैं। गौर करें तो आज की तारीख में मलेरिया प्रतिवर्ष 40 से 90 करोड़ बुखार के मामलों का कारण बनता है, वहीं इससे 10 से 30 लाख मौतें हर वर्ष होती है। यानी कह सकते हैं कि मलेरिया से प्रति 30 सेकेंड में एक मौत होती है।

इनमें से ज्यादतर पांच वर्ष से कम आयु वाले बच्चे होते हैं। गर्भवती महिलाएं भी इस रोग की वजह से संवेदनशील होती हैं। यह बिडंबना ही कहा जाएगा कि संक्रमण रोकने के प्रयास तथा इलाज करने के प्रयासों के बावजुद भी 1992 के बाद इसके मामलों में अभी तक अपेक्षित सफलता हाथ नहीं लगी है। विशेषज्ञों का मानना है कि अगर मलेरिया की वर्तमान प्रसार दर इसी तरह बनी रही तो अगले 20 वर्षों में मृत्यु दर दोगुनी हो सकती है। विशेषज्ञों की मानें तो मलेरिया से जुड़े आंकड़े ज्ञात आंकड़ों से कई गुना अधिक होते हैं। इसलिए कि इसके अधिकांश रोगी ग्रामीण इलाकों में रहते हैं। मलेरिया के वैश्विक फैलाव पर नजर दौड़ाएं तो यह रोग भूमध्य रेखा के दोनों तरफ विस्तृत क्षेत्र में फैला हुआ है। इन क्षेत्रों में अमेरिका, एशिया तथा ज्यादतर अफ्रीका आता है।

लेकिन गौर करें तो इनमें से सबसे ज्यादा मौतें भारत और उप सहारा अफ्रीका में होती है। मलेरिया के विस्तार पर गौर करें तो सूखे क्षेत्रों में इसके प्रसार का वर्षा की मात्रा से गहरा संबंध होता है। डेंगू बुखार के बनिस्बत यह शहरों की अपेक्षा गांवों में ज्यादा फैलता है। उदाहरण के लिए वियतनाम, लाओस और कंबोडिया के नगर मलेरिया मुक्त हैं, जबकि इन देशों के गांव मलेरिया से बुरी तरह प्रभावित हैं। यहां ध्यान देना होगा कि मलेरिया सामाजिक-आर्थिक जीवन पर बुरी तरह प्रभाव डाल रहा है। यह गरीबी और आथिक विकास में अवरोध का कारण बनता जा रहा है। यह पाया गया है कि जिन क्षेत्रों में मलेरिया का ज्यादा प्रभाव है, वहां यह नकारात्मक आर्थिक प्रभाव डाल रहा है। यदि प्रति व्यक्ति जीडीपी की तुलना यदि 1995 के आधार पर करें तो मलेरिया मुक्त क्षेत्रों और मलेरिया प्रभावित क्षेत्रों में इसमें पांच गुना अंतर नजर आता है।

शोध में यह पाया गया कि जिन देशों में मलेरिया फैलता है उनके जीडीपी में 1965 से 1990 के मध्य केवल प्रतिवर्ष 0.4 प्रतिशत की वृद्धि हुई और मलेरिया से मुक्त देशों में यह वृद्धि 2.4 प्रतिशत पायी गयी। मलेरिया के कारण कितना आर्थिक नुकसान हो रहा है वह इसी से समझा जा सकता है कि केवल अफ्रीका में ही प्रतिवर्ष 15 अरब अमेरिकन डाॅलर का नुकसान हो रहा है। भारत की बात करें तो यहां भी मलेरिया से निपटनें में हर वर्ष हजारों करोड़ रुपया खर्च हो रहा है। इसका मुख्य कारण यह है कि देश की तकरीबन 85 प्रतिशत आबादी मलेरिया के जोखिम वाले क्षेत्रों में निवास कर रही है। आंकड़ों पर गौर करें तो एक अनुमान के मुताबिक मलेरिया की 65 प्रतिशत रोगी उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, पश्चिम बंगाल तथा पूर्वात्तर क्षेत्रों में ही पाए जाते हैं।

अत्यधिक रोग भार वाली आबादी नृजातीय जनजातियां हैं जो इन क्षेत्रों के दुर्गम वनीय क्षेत्रों में निवास करती है। यहां के लोग गरीब तो हैं ही साथ सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं का भी अकाल है।

 

 

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