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भारत राष्ट्र के महान शिल्पकार …….सरदार बल्लभ भाई पटेल

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PRESENTED BY 

ARVIND JAYTILAK 

भारतीय राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए सरदार बल्लभ भाई पटेल ने देशवासियों में जो प्रेम, स्वाभिमान व सेवा की भावना पैदा की, वह उनकी राष्ट्रभक्ति व समाजभक्ति की अटूट मिसाल है। मातृभूमि के प्रति अगाध भक्ति और सत्य के प्रति अपरिमित निष्ठा ने उन्हें आजादी के संघर्ष का नायक बना दिया। खेड़ा संघर्ष में उनका कुशल राजनीतिक नेतृत्व खुलकर सामने आया जब सूखे की मार से परेशान किसान ब्रिटिश सरकार से भारी कर में छूट की मांग कर रहे थे।

जब निरंकुश सत्ता ने उनकी मांग को ठुकरा दी और उन्होंने किसानों का नेतृत्व हाथ में लिया। दमन का जवाब देने के लिए उन्होंने किसानों को  कर न देने के लिए प्रेरित किया। उनके संघर्ष के आगे आखिकार ब्रितानी हुकूमत को झुकना पड़ा और किसानों को करों में राहत देनी पड़ी। 1928 का बारदोली सत्याग्रह ने बल्लभभाई पटेल को सरदार पटेल बना दिया और तत्कालीन प्रांतीय सरकार द्वारा लगान में 30 फीसदी वृद्धि किए जाने से नाराज किसानों ने उनके नेतृत्व में विरोध का मोर्चा खोल दिया।

सरदार के सत्याग्रह को कुचलने के लिए सरकार ने दमन का सहारा लिया लेकिन न तो वे झुके और न ही उनके सत्याग्रही साथी। अंततः सरकार को अपना फैसला पलटते हुए 30 फीसदी लगान को घटाकर 6.3 फीसद करना पड़ा। बारदोली सत्याग्रह आंदोलन के सफल होने के बाद वहां की महिलाओं ने बल्लभभाई को सरदार की उपाधि से नवाज दिया। पटेल के साहस से प्रभावित होकर गांधी जी ने कहा कि इस तरह का हर संघर्ष हमें स्वराज के करीब पहुंचा रहा है।

गौरतलब है कि 1920 के दशक में गांधी के सत्याग्रह के जरिए ही सरदार पटेल कांग्रेस में शामिल हुए। इससे पहले वे अपनी शर्तों पर 1922, 1924 और 1927 में अहमदाबाद के नगर निगम के अध्यक्ष चुने गए। नगर निगम का अध्यक्ष रहते हुए उन्होंने ढेरों सुधार के कार्य किए। वे दो बार कांग्रेस के सभापति भी रहे। कांग्रेस के अंदर उन्हें जवाहर लाल नेहरु का प्रतिद्वंदी माना जाता था। यद्यपि अधिकांश कांग्रेस समितियां पटेल के पक्ष में थी लेकिन गांधी की इच्छा का सम्मान करते हुए उन्होंने स्वयं को प्रधानमंत्री पद की रेस से अलग कर लिया।

हालांकि आजादी के बाद इन दोनों राजनेताओं के बीच कई मसलों पर मतभेद भी सामने आए और कई अवसरों पर दोनों ने अपने पद त्याग करने की धमकी भी दी। लेकिन उन्होंने राष्ट्रीय हितों से खिलवाड़ नहीं किया। सरदार पटेल की सबसे बड़ी उपलब्धि देशी रियासतों का भारतीय संघ में विलय कराना था। उपप्रधानमंत्री, गृह, सूचना और रियासती विभागों के मंत्री रहते हुए उन्होंने जिस निर्भिकता और चतुराई से 562 छोटी-बड़ी रियासतों का भारतीय संघ में विलिनीकरण कराया वह विश्व इतिहास की अदभुत घटना है।

विश्व इतिहास में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं हुआ जिसने इतनी बड़ी संख्या में राज्यों का एकीकरण करने का साहस दिखाया हो। अगस्त 1947 में जब अंग्रेजों ने भारत छोड़ा तो देश राजनीतिक दृष्टि से ब्रिटिश और भारतीय प्रांतों में बंटा हुआ था। ब्रिटिश भारत में नौ प्रांत गवर्नरों के थे और पांच चीफ कमिश्नरों के। इनके अतिरिक्त कुछ आदिम जाति प्रदेश, कुछ सीमांत प्रदेश और अंडमान निकोबाद द्वीप समूह भी ब्रिटिश भारत में सम्मिलित थे। भारतीय प्रांतों की संख्या पांच सौ से अधिक थी। इनमें हैदराबाद, कश्मीर, मैसूर, ट्रावनकोर और बड़ौदा शामिल थे।

आमतौर पर सभी प्रांतों में निरंकुश शासन था। इनमें बहुत से प्रांत तो इस नाम के भी अधिकारी नहीं थे क्योंकि उनके पास न तो पर्याप्त भू-क्षेत्र था और न ही उनके देखभाल के लिए जरुरी साधन। लेकिन 15 अगस्त, 1947 को जैसे ही इंग्लैण्ड की सर्वोच्च सत्ता समाप्त हुई सभी प्रांत प्रभुतासंपन्न हो गए। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री के अनुसार यह प्रांत पूर्ण रुप से स्वतंत्र थे और भारत या पाकिस्तान किसी भी अधिराज्य में सम्मिलित हो सकते थे। यह प्रांत स्वतंत्र नहीं रह सकते थे।

दोनों अधिराज्यों में से किसी एक में विलयन आवश्यक था और इसका फैसला भौगोलिक और राजनीतिक आधार पर ही हो सकता था। भारत में 600 से अधिक रियासतें विद्यमान थी। एक समृद्ध और सशक्त राष्ट्र निर्माण के लिए इन सबका भारत में विलय आवश्यक था। 5 जुलाई 1947 को एक रियासत विभाग की स्थापना की गयी जिसका प्रभार सरदार पटेल को सौंपा गया। पटेल ने पीवी मेनन के साथ मिलकर देशी राज्यों को भारतीय संघ में मिलाने का प्रयास तेज कर दिया।

रियासती मंत्रालय द्वारा एक प्रवेश पत्र तैयार किया गया और भारतीय राजाओं से अपील की गयी कि भारत के इतिहास में हम एक महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़े हैं। मिलजुलकर देश को ऊंचा उठा सकते हैं। अलग-अलग रहने से नई मुसीबतों का सामना करना होगा। देशी राजाओं के रियासतों को भारतीय संघ में प्रवेश पाने के लिए इस प्रवेश पत्र पर हस्ताक्षर करने थे। भारतीय नरेशों के सामने दो विकल्प रखे गए। पहला विकल्प था वे अपनी रियासतों का भारतीय संघ में विलय कर लें। उनके अंदरुनी मामले में केंद्र सरकार कोई हस्तक्षेप नहीं करेगी।

किंतु प्रतिरक्षा, विदेश संबंध और संचार साधनों पर केंद्र सरकार का पूर्ण नियंत्रण रहेगा। दूसरा विकल्प था कि यदि भारतीय राजा ऐसा नहीं करेंगे तो उनकी रियासतों को बल पूर्वक भारतीय संघ में विलय कर लिया जाएगा। पटेल के समझाने के बाद अधिकांश देशी राजाओं ने भारतीय संघ में विलय के प्रस्ताव को स्वीकार लिया। लेकिन जम्मू-कश्मीर, जुनागढ़ और हैदराबाद के राजाओं ने ऐसा करने से मना कर दिया।

जूनागढ़ एक छोटी रियासत थी और वहां पर नवाब का शासन था। लेकिन यहां की अधिकांश जनता हिंदू और वह जूनागढ़ का भारत में विलय चाहती थी। जबकि नवाब जूनागढ़ को पाकिस्तान में मिलाना चाहता था। लेकिन सरदार पटेल मौके की नजाकत भांप जूनागढ़ की जनता की सहायता के लिए सेना भेज दी। इससे डरकर नवाब पाकिस्तान भाग गया। बाद में जनमत संग्रह के आधार पर जूनागढ़ का भारत में मिला लिया गया।

जूनागढ़ की तरह हैदराबाद की जनता भी हैदराबाद रियासत को भारत में देखना चाहती थी। इसके विपरित हैदराबाद का निजाम हैदराबाद को एक स्वतंत्र राज्य बनाए रखना चाहता था। परिणामतः हैदराबाद की जनता ने विद्रोह कर दिया। विद्रोह को कुचलने के लिए निजाम ने जनता पर कहर ढाना शुरु कर दिया। लिहाजा सरदार पटेल ने 13 सितंबर 1948 को वहां सैनिक कार्रवाई के लिए भारतीय सेना भेज दी। 17 सितंबर 1948 को सरदार पटेल की सुझबुझ से हैदराबाद रियासत का विधिवत भारत में विलय कर लिया गया।

फरीदकोट के राजा ने भी विलय करने में कुछ आनाकानी की लेकिन जब पटेल ने फरीदकोट के नक्शे पर लाल पेंसिल घुमाते हुए सिर्फ इतना पूछा कि ‘ क्या मर्जी है’ तो राजा कांप उठा। जहां तक कश्मीर रियासत का सवाल है तो इसे पंडित नेहरु ने सुलझाने का भरोसा दिया था। अगर यह मौका पटेल को मिला होता तो आज कश्मीर कोई समस्या नहीं रहता। सांस्कृतिक स्वाभिमान के प्रति आग्रही पटेल ने प्रधानमंत्री नेहरु के विरोध के बाद भी सोमनाथ के भग्न मंदिर के जीर्णोंद्धार का फैसला लिया और पूरा किया।

पटेल दूरदर्शी राजनेता थे। उनकी दूरदर्शिता का समुचित लाभ उठाया गया होता तो आज भारत को कई तरह की समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ता। 1950 में पटेल ने पंडित नेहरु को एक पत्र लिखकर चीन की तिब्बत नीति को लेकर आशंका व्यक्त की। कहा कि तिब्बत पर चीन का कब्जा कई नई समस्याओं को जन्म देगा। आज यह सच साबित हो रहा है। गोवा की स्वतंत्रता को लेकर उनकी स्पष्ट नीति थी। कैबिनेट बैठक में उन्होंने कहा था कि ‘क्या हम गोवा जाएंगे, सिर्फ दो घंटे की बात है’ नेहरु इससे बेहद नाराज हुए थे।

अगर पटेल की चली होती तो गोवा की स्वतंत्रता के लिए 1961 तक इंतजार नहीं करना पड़ता। बतौर गृहमंत्री पटेल ने भारतीय नागरिक सेवाओं का भारतीयकरण किया। नौकरशाही को राजभक्ति से देशभक्ति की ओर मोड़ा। विद्वानों ने उन्हें बिस्मार्क की संज्ञा दी है। लेकिन सच यह है कि बिस्मार्क की सफलताएं पटेल के सामने महत्वहीन हैं। पटेल आधुनिक भारत के शिल्पकार और महान दूरद्रष्टा थे। उन्होंने जिस राजनीतिक कुशलता और प्रशासनिक सुझबुझ से भारत महान राष्ट्र की संप्रभु गरिमा को स्थापित किया उससे भारतीय राजनीतिकों को सबक लेना चाहिए। 

 

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