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SPECIAL ARTICLE ___ राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग के तीन दशक का योगदान उल्लेखनीय

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PRESENTED BY 

PRO. KANHAIYA TRIPATHI 

राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग की स्थापना 1993 में हुई. आयोग की स्थापना के बाद 30 वर्ष बीत गए हैं. 30 वर्षों का इतिहास बहुत ही स्वर्णिम और ऐतिहासिक रहा है. इसके पहले चेयरपर्सन न्यायमूर्ति  रंगनाथ मिश्र हुए और अब इसका नेतृत्व कर रहे हैं न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा. अपने इतने वर्षों के कार्य निष्पादन में आयोग की प्रतिष्ठा बढ़ी है. अब आयोग संयुक्त राष्ट्र मानव अधकारों के सार्वभौम घोषणापत्र के 75वें वर्ष में भारत में अनेक सुधर करके मानव अधिकारों को आमजन तक पहुंचा देना चाहता है. मानव अधिकारों के बारे में यद्यपि अभी भी भारत में पूरी आबादी के भीतर जागरूकता नहीं है जिससे भारत के सभी क्षेत्रों में मानव अधिकारों को अभी तक समझ नहीं पाए हैं, यह एक सचाई है. भारत में आयोग की मंशा यह है कि हम सभी तक पहुँच बनायेंगे और इसके लिए यह कोशिश उसकी है कि अपनी प्रतिबद्धता कभी भी प्रश्नांकित न हो.

भारत की भौगोलिक और सांस्कृतिक विविधता बहुत सी चुनौतियों के साथ संवाहित है. हमारे देश में गरीबी, भुखमरी, स्वास्थ्य संबंधी खतरे और कोविड महामारी से भी सरकारें समय-समय पर निपटती रही हैं. इसलिए देश ने अनेक उतार-चढ़ाव देखे और आम आदमी इसमें अपने मानव अधिकारों को समुचित पा न सका लेकिन इन सभी समस्याओं ने जब-जब जन्म लिया हमारे देश का राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग अपने नागरिकों की गरिमा और सुरक्षा के लिए आगे बढ़कर कार्य किया. भारतीय नागरिकों की दैनिक जीवनचर्या और जीवन आनंद को समन्वित करने का प्रयास किया ताकि सभी पूर्णतया भारतीय संविधान के मूल्यों के साथ जी सकें.

30 वर्षों का समय बहुत ज्यादा नहीं होता है लेकिन कठिनाई का एक क्षण भी बहुत भारी हो जाता है, कठिनाई के समय में आम नागरिक यह चाहता है कि उसकी कोई सुन ले. उसको कोई संरक्षण प्रदान कर दे. आम नागरिक बहुत बड़ी इच्छाएं नहीं रखता अपितु वह बस अपना जीवन बचाना चाहता है और यह चाहता है कि उसको सम्मान प्राप्त हो. भारत में कृषि और जलवायु के संकट के कारण खेत-खलिहान का किसान हो, नौकरी पेशे वाला हो, कामकाजी वर्ग हो या पर्याप्त आत्मनिर्भर लोग, सभी इसी सम्मान को चाहते हैं. इसलिए भारत का हर नागरिक एक-दो टाइम भूखे रह लेगा लेकिन उसकी प्रतिष्ठा उसको अधिक प्रिय है. राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग से उसकी यह अपेक्षा होती है कि वह उसकी इस प्रतिष्ठा को कभी भी कम न होने दे. भारत में गरिमा ही मानवाधिकार है. भारत में स्वतंत्रता ही मानवाधिकार है. भारत में आत्मनिर्भरता ही मानवाधिकार है. अच्छी बात यह है कि भारत सरकार ने समय-समय पर इसके लिए अपनी अनेक योजनाओं को बनाया और भारत के नागरिकों तक उन योजनाओं की पहुँच बनायीं.

रैगिंग से जूझते बच्चे, गर्भवती महिलाओं के लिए विशेष अवकाश के प्रश्न, थर्ड जेंडर से जुड़े मसले, जलवायु समस्याएं और कोविड जैसी महामारी पर राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग ने पर्याप्त कार्य किया है, परामर्श दिया है. हाल ही में संपन्न एशिया प्रशांत संम्मेलन दिल्ली में हुआ तो उसमें सूचना और संचार प्रौद्योगिकी, कृत्रिम बुद्धिमत्ता, व्यवसाय, स्वास्थ्य देखभाल, जलवायु परिवर्तन, प्राकृतिक और मानव निर्मित आपदाओं और सीमाओं के पार होने वाले अपराधों के विषय में आयोग की पर्याप्त चर्चा वैश्विक स्तर पर उसकी चिंताओं को दर्शाती है. चेयरपर्सन न्यायमूर्ति अरुण मिश्र और डॉ. ज्ञानेश्वर मुले व डॉ. राजीव जैन माननीय आयोग के सदस्य, एनएचआरआईएस के एशिया प्रशांत फोरम के अध्यक्ष डू-ह्वान सोंग और ग्लोबल एलायंस ऑफ ह्यूमन राइट्स इंट्यूशन्स की सचिव  अमीना बौयाच  की उपस्थिति में खुलकर मानवाधिकारवादियों ने अपनी बात रखी और जो दिल्ली घोषणा-पत्र जारी हुआ उससे मानवाधिकार आयोग कितना आमजन से जुड़ा है, कितने विषयों को लेकर चिंतित है, कितने मुद्दों को चुनौती के रूप में देख रहा है, यह सब स्पष्ट होता है. वस्तुतः दुनिया के अनेक राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग नॉन-परफार्मर भी घोषित किए गए हैं. भारत का राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग सतत अपनी प्रतिष्ठा को वैश्विक स्तर पर ग्रेड ए के साथ कार्य कर रहा है.

अपनी 30 वर्षों की सतत यात्रा के दौरान राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग ने 22 लाख से अधिक मामलों का निपटाया है. मानव अधिकार उल्लंघन के पीड़ितों को 230 करोड़ रुपये से अधिक की राहत दिलाई है. विभिन्न घटना स्‍थलों की जांच, खुली जन सुनवाई और शिविर बैठकें आयोजित की हैं. असंख्य बिलों और कानूनों, सम्मेलनों और अनुसंधान परियोजनाओं को गति प्रदान की है. 28 एडवाइजरी, सैकड़ों प्रकाशन, हजारों मीडिया रिपोर्टें और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भागीदारियाँ, मानव अधिकारों के संवर्धन और संरक्षण की दिशा में महनीय कार्य किया है.

आयोग द्वारा जारी 28 एडवाइजरी केवल जारी नहीं हुई हैं, अपितु सच्चे मायने में इसके परिणाम भी देश को देखने को मिलते हैं. इसमें भोजन का अधिकार, स्वास्थ्य और मानसिक स्वास्थ्य का अधिकार, अनौपचारिक श्रमिकों के अधिकार, मृतकों की गरिमा को कायम रखना, ट्रक ड्राइवरों के अधिकार, पर्यावरण प्रदूषण और क्षरण, ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के कल्याण को सुनिश्चित करने के लिए एडवाइजरी, कैदियों द्वारा जानबूझकर खुद को कष्ट पहुंचाने और आत्महत्या के प्रयासों को रोकन या कम करने के लिए एडवाइजरी और आँखों संबंधी आघात को रोकने और कम करने के लिए एडवाइजरी, आयोग की ओर से ऐसे प्रयास है जिससे मानव गरिमा को पर्याप्त सहयोग मिला है और मिलेगा. आयोग ने 89,000 से अधिक मामलों का निपटाया पिछले कुछेक साल के समय में और पिछले एक साल में आयोग ने स्वत: संज्ञान लेते हुए 123 मामले को गंभीरता से उठाया यह उपलब्धियां और सहयोग की कहानिया हमें बताती हैं कि आयोग की अपनी प्रतिबद्धता नागरिकों के लिए कितनी अहम् हैं और वह कितनी संजीदगी के साथ काम देश में कर रहा है.

हाल के दिनों में मणिपुर की जातीय हिंसा के मामलों में जब देश में तमाम सवाल उठाये जा रहे थे आयोग ने पीड़ितों के पुनर्वास के लिए मुआवजे का भुगतान करने, मृतकों के परिजनों को क्षतिपूरक रोजगार देने, सद्भाव को बढ़ावा देने, समुदायों को हिंसा का सहारा लेने से रोकने और शांति बनाए रखने का निर्देश दिया. आयोग केवल यह नहीं चाहता कि पहल केवल सरकारी तंत्र से हो बल्कि नागरिक समाज को भी जोड़ने की उसने भरपूर कोशिश की. कार्यस्थल पर महिलाओं के उत्पीड़न संबंधी मामले हों, हजारों बेघर व्यक्तियों को सरकारी योजना के तहत मुफ्त आवास प्रदान करने की बात हो, सांप्रदायिक दंगों और आंतरिक संघर्षों के पीड़ितों को मुआवजा दिलाने का मुद्दा हो, प्राकृतिक आपदाओं, भूमि अधिग्रहण और अन्य कारणों से विस्थापित व्यक्तियों के पुनर्वास के मसले हों या कर्ज में डूबे किसानों द्वारा आत्महत्या के मामले आयोग ने अपनी जिम्मेदारी समझी और यह कोशिश की पीड़ित या प्रभावित जन कैसे लाभान्वित होंगे अपनी गरिमा के साथ, इसको युद्ध स्तर पर लगकर सहयोग देने और संबल देने का काम किया. आयोग के सफलतापूर्वक हस्तक्षेप से अनेकों भारतीय हमारे देश में अपनी जिंदगी, अपनी जीवन आशा को पुनः प्राप्त किये हैं और उनके जीवन में रोशनी आई है.

भारत में अब तक के ऐतिहासिक सहयोग और सद्भावपूर्ण कार्ययोजनाओं से निःसंदेह राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग का सम्मान आमजन के मन में बहुत ज्यादा बढ़ा है. अब जबकि हम 75वीं वर्षगाँठ अपने संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकारों के सार्वभौम घोषणा-पत्र की हम मना रहे हैं, आयोग अपने स्थापना वर्ष के 30 वर्ष की सेवा देकर आगे बढ़ रहा है तो हमारे सामने भारतीय आज़ादी के अमृत महोत्सव से आगे बढ़कर 2047 के लिए अधिक सोचने की बारी है. दुनिया में तो दरिद्रता, जलवायु समस्या, आतंकवाद और विघटनकारी और विचलित कर देने वाली घटनाएँ सिर उठा रही हैं, ऐसे में भारत को बहुत ही गरिमामय तरीके से अपने लक्ष्यों को तय करना है और सबसे आगे निकलने की कोशिश करना है.

आयोग अपनी प्रतिबद्धताओं में नवाचार करे. आयोग आदिवासी समाज और अंतिम जन तक अपनी पहुँच बनाए, यह आज योग की जिम्मेदारी बन गयी है. निःसंदेह भारत के राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग के चेयरपर्सन न्यायमूर्ति मिश्र और माननीय सदस्य व महासचिव व पूरा आयोग परिवार क्रमशः सक्रिय होकर अपने विभिन्न मंचों से उस लक्ष्य को हासिल करने कि कोशिश कर रहा है जो महात्मा गाँधी जी सपना था लेकिन इसमें और यदि सक्रियता और गतिशीलता आई तो हमारे भारत की प्रगति कि गति बढ़ जाएगी. भारत वैश्विक स्तर पर अपने कल्याणकारी राज्य होने का दावा सिर्फ नहीं करेगा बल्कि पूरी दुनिया इसकी प्रशंसा करेगी. इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि भारत में आयोग आने वाले समय में चेंजमेकर की भूमिका में आए और भारत की छवि को समृद्धि प्रदान करे.

 

लेखक भारत गणराज्य के महामहिम राष्ट्रपति जी के विशेष कार्य अधिकारी रह चुके हैं। आप केंद्रीय विश्वविद्यालय पंजाब में चेयर प्रोफेसर, अहिंसा आयोग व अहिंसक सभ्यता के पैरोकार हैं।

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