SPECIAL ARTICLE: तमिल – लोक साहित्य का ‘आलोक’
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PRESENTED BY GAURAV AWASTHI
लोक साहित्य किसी भी भाषा, प्रांत या जाति का हो, उसमें माटी की सुगंध समाहित ही होती है। साहित्य को निखारने में लोकगीत, लोकभाषा, लोकोक्तियां, लोककथाएं और लोक शब्दावली का विशेष योगदान होता है। एक तरह से साहित्य की परंपरा का श्रीगणेश ही लोक साहित्य से होता है। लोक साहित्य का अर्थ ही है- लोक में रचा-बसा और गुंथा हुआ। लोक साहित्य वही है, जिसमें आंचलिक संस्कृति, रहन-सहन, आचार व्यवहार, जीवन-यापन प्रतिबिंबित हो। कल्पनिकता के तत्व रंचमात्र न हों। त्योहार, ऋतु परिवर्तन, सामाजिक यथार्थ, खेत-खलिहान हर जगह लोकगीत ही गूंजते हैं। दैनंदिन जीवन एवं मन में उमड़ने-घुमड़ने वाले भाव ही लोक साहित्य की लिखित-अलिखित संपदा होते हैं।
द्रविड़ परिवार की मुख्य भाषा तमिल का लोक साहित्य बहुरंगी है। तमिल साहित्य का ज्ञात इतिहास दो हजार साल पुराना है। लोक साहित्य इससे भी अधिक पहले का है। माना जाता है कि तमिल के लोकगीत तमिलनाडु के पहाड़ों और नदियों के जितने ही पुराने हैं। वह जीवन रस से इस कदर लबालब भरे हुए हैं कि आज तक पुराने नहीं पड़े। इनमें तमिल प्रजा की आंतरिक आकांक्षाओं, मनोवेदनाओं, हर्ष-शोक, राग-द्वेष, सुख-दुख और वासनाओं का प्रतिबिंब नजर आता है।
एट्टुथोगै, पतिनेन -कीलकनक्कु आदि काव्य संग्रहों से सिद्ध होता है कि वे किसी मौखिक परंपरा के अविस्मरणीय गीतों के वर्गीकृत एवं लिपिबद्ध संकलन हैं। संगम काल के पूर्व ऐसे तमाम लोकगीत वाचिक परंपरा में ही तमिल प्रदेश में काल-दर-काल गाए जाते रहे। तमिल लोकगीतों का संग्रह यूरोपीय विद्वानों द्वारा शुरू किया गया| परंपरावादी विद्वानों ने इसे हेय दृष्टि से देखा लेकिन अब उनकी स्वीकृति साहित्य के महत्वपूर्ण अंग के रूप में हो चुकी है। लोकगीतों और लोक कथाओं का समावेश विद्यालयों के पाठ्यक्रम में भी किया जाने लगा है। इतना ही नहीं लोक साहित्य पर विश्वविद्यालयों में अनुसंधान भी शुरू हो चुका है।
तमिल में लोकगीत ‘नाट्टुपुरप्पाडल’ नाम से प्रचलित है। इलांगो अडिगल के चिलप्पादिकारम नामक संकलन में समुद्र तटीय, शिकारियों, ग्वालिनों और पहाड़ी प्रदेशों की किरात बालाओं के गीतों का क्रमबद्ध संचयन पाया जाता है। तमिल के प्रमुख कवि इलगी ने अपने महाकाव्य के 30 सर्गों में 4 सर्ग केवल लोकगीतों में ही रचे। उन्होंने अपने इन गीतों में कावेरी मछुआरों, शिकारी वर्ग का जीवन, गाय चराने वाले बालक- बालिकाओं की भावनाओं को ही मुख्यतः अभिव्यक्त किया है। उन्होंने दक्षिण भारत की भक्ति मुरुक, कार्तिकेय की भक्ति, खेत खलिहान, राजा की कीर्ति आदि के संदर्भों को भी अपने गीतों में स्थान दिया। इसीसे उनका महाकाव्य आज भी जीवंत बना हुआ है।
तमिल साहित्य के दूसरे महाकाव्य ‘शिलप्पादिकारम’ में भी लोकगीतों से लेकर ग्राम गीत पाए जाते हैं। छंदबद्ध कविता में प्रस्फुटित यह महाकाव्य धर्म प्रसार के लिए नहीं लिखा गया पर इस महाकाव्य को तमिल का सर्वप्रथम धर्म ग्रंथ अवश्य माना गया।
खेती किसानी के वक्त किसान भी अनेक प्रकार के लोकगीत गाते हैं। मसलन, लंबे बांस में बंधी हुई मोट और बैलजोड़ी की सहायता से सिंचाई के कुएं से पानी उलीचते समय किसान ‘एट्र पत्तु’ नामक गीत गाते हैं। इसका अर्थ है कि बांस की पत्तियों पर सोई हुई ओस की बूंद को संबोधित करना। गांवों में कहावत है कि ‘एट्र पत्तु पुतुक्कु एथिर पत्तु इल्लै’। यानी माधुर्य में इस गीत की बराबरी कोई गीत नहीं कर सकता। महाकवि कम्बन भी गीत के माधुर्य पर मुग्ध हुए बिना नहीं रह पाए थे।
तमिलनाडु के किसानों ने अपने युगों के अनुभव के आधार पर बहुत सी कहावतें भी गढ़ीं। जैसे -‘एचवन एल्लु विथई’ ‘ वदिनावन विरगु विथई’ ‘ कोलुतवन कोल्लु विथई’ ‘सोत्रक्कु इल्लतवन सोलम विथई’ । इन कहावतों में निर्धन किसानों को तिलहन बोने की राय दी गई है क्योंकि इस फसल को अधिक वर्षा या पूंजी की आवश्यकता नहीं होती। एक और कहावत है – ‘ एडिप्पट्टम तेडी विथई’। इसमें किसानों को बीज बोने के पहले मौसम का ध्यान रखने की सलाह दी गई है। शैव संप्रदाय के नायन्मार एवं वैष्णव संप्रदाय के आल्वार भक्तों ने गृहस्थ जीवन के साथ भक्ति का प्रचार किया। उनका साहित्य भक्ति, ज्ञान एवं दर्शन की त्रिवेणी है। प्रोफेसर ललिता रवीन्द्रनाथ की हिंदी में अनुवादित एवं नव प्रकाशित पुस्तक तिरुप्पावै एक महत्वपूर्ण कृति है। यह कृति हिंदी भाषियों को वैष्णव परंपरा के 12 आल्वारों के भक्ति साहित्य से परिचित कराती है।
भक्ति साहित्य भी एक तरह से लोक साहित्य ही है। वह लोक को जोड़ता चलता है। इसीलिए गोस्वामी तुलसीदास हों या महाकवि कम्बन, आज तक उनका भक्ति साहित्य लोक में ग्राह्य है। सर्व स्वीकृत है, क्योंकि इन ग्रंथों की भाषा स्थानीयता से ओतप्रोत है।
सबरीमलै जाने वाले भक्त रास्ते में ‘अयप्पा’ और महालिंगस्वामी मंदिर जाने वाले भक्त ‘वली नादैच्चिडु’ से प्रारंभ होने वाला गीत गाते हैं| यह थके मांदे यात्रियों में जोश जगाने वाला गीत है। इसी तरह ‘सालइयले रेण्डु मारम’ से आरंभ होने वाला लोकगीत भी राहगीरों का प्रिय तराना है। लोकगीतों में लोरियां भी काफी प्रचलित है। पेरेयाल्वार ने श्रीकृष्ण को संबोधित करते हुए दस लोरियां गाईं हैं। प्रत्येक का अंत ‘ तलेलो’ से होता है। सामाजिक और महाकाव्यात्मक गाथा गीत भी तमिल लोक साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं।
तमिल संगम साहित्य में भी पर्वों एवं गृहस्थ धर्म के उल्लेख प्राप्त होते हैं। जैसे, पंगुनिउत्तिरम, कार्तिक पूजा, तैनीराडल। इस साहित्य में भी ग्रामीण जीवन से संबंधित विवरण, उपासना पद्धति और आस्था आदि के दर्शन होते हैं। ग्रामीण अध्यनार, चात्तन्ख, कडम्बन करुण्व्यान, गंगैयम्मन, चतुक्कभूतम आदि अनेक ग्राम्य देवता की पूजा के उल्लेख भी लोक साहित्य से सन्नद्ध माने जाने चाहिए। तमिल नीति ग्रंथ -कुरल, नालडियार, पल्मोलि, नान्मणि, कडिकै, एलाद में जीवन के विविध पक्षों की चर्चा भी हमें लोक साहित्य की तरफ ले जाती है। ‘आचारक्को’ भी जीवन के आचार विचार पर चर्चा करके लोक साहित्य को समृद्ध करता है। शैव संत अरुणगिरि नायर का तिरुपुगल, अण्णमलै रेड्डियार का कावडिचिंदु एवं सिद्धयोगियों के गीत भी लोकगीत शैली में रचे गए।
संगम कालीन काव्य कृति ‘अकम’ में तमिलों की पारिवारिक जीवन शैली का सुंदर चित्रण मिलता है। अकम कविताएं जीवन के हर क्षेत्र में पूर्णता, श्रेष्ठ जीवन की कामना एवं तमिल संस्कृति को महत्व प्रदान करती हैं। लोक कलाकारों ने भी ऐसे गीतों में कला का समावेश करके तमिल संस्कृति एवं लोक परंपरा को देश-विदेश में भी पहचान दिलाई। भरतनाट्यम, करकाट्टम, कावडियाट्टम, चित्रम्बाट्टम, मियलआट्टम (मोर नाच) लोक गीतों पर ही आधारित हैं। सीएन अण्णादुरै, डा एम करुणानिधि ने अपने नाटकों के माध्यम से भी लोक साहित्य परंपरा को समृद्ध करते हुए समाज सुधार का मार्ग प्रशस्त किया।
1950 के दशक से जयकांतन का साहित्य भी लोक के इर्द-गिर्द ही घूमता है। उनकी रचनाओं में रिक्शा चालक, वेश्या, कूड़ा बनने वाले बच्चों जैसे निम्न वर्ग के लोग पात्र के रूप में पाए जाते हैं। बीआर राजम अय्यर एवं ए माधवैया के साहित्य में भी आम आदमी के जीवन का चित्रण मिलता है। काली माटी के अंचल वाले इडैचेवल गांव में जन्मे कृषक जीवन से संबद्ध साहित्यकार कि. राजनारायणन नायकर का साहित्यिक जीवन 1958 से प्रारंभ होता है। उनकी कहानियों में भी मानवतावादी स्वरूप मुखरित है। उनके लेख और लघु कथाएं कालजई है।
उनकी कृति करिसल काट्टु कडुदाशि (काली माटी के अंचल से) पत्र साहित्य और रेखा चित्र साहित्य के मिश्रण से नई विधा उत्पन्न करती है। कहानी कुत्ते, हैवानियत, गुंडे और देवता, आठवां झोंका आदि लोक से ही निकली हुई हैं। हालांकि पाश्चात्य प्रभाव से परिपूर्ण रेखाचित्र साहित्य व. रामास्वामी अय्यंगार ने वर्ष 1920 में ही लिखना शुरू कर दिया था। कहा जा सकता है कि तमिल भाषा का लोक साहित्य पहले से ही अति समृद्ध है और आधुनिक युग के साहित्यकारों ने भी लोक साहित्य की रचना कर पुरातन परंपरा को अक्षुण्णता प्रदान की और कर रहे हैं।