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विषय आमंत्रित रचना – संथारा

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आत्मा और शरीर ये दोनों भिन्न हैं। अगर हम मानव यह समझ ले तो मृत्यु का दुख और भय ही नही रहेगा। संथारा पूर्वक मृत्यु को प्राप्त करने का मतलब है कि अन्य सभी इच्छाओं का दमन करते हुए सिर्फ मोक्ष प्राप्ति की कामना करना। उपवास यदि निर्जरा का साधन बनता है तो भोजन भी निर्जरा का साधन बन सकता है।

बशर्ते भोजन का उद्देश्य स्पष्ट हो। जीने के लिए भोजन किया जाए ‌।भोजन के लिए ना जिया जाए। निर्जरा के 12 प्रकार बताए गए हैं। उनमें पहला भेद है- अनशन। अनशन के दो प्रकार प्रज्ञप्त है/ इत्वरिक और यावत्कथिक।वर्तमान काल के परिप्रेक्ष्य में उपवास से लेकर 6 महीने तक की जो तपस्या की जाती है वह इत्वरिक अनशन कहलाता है।

जीवन पर्यंत के लिए जो अनाहार की साधना स्वीकार की जाती है वह यावत्कथिक कहलाता है।अनशन की साधना सबके लिए स्वीकार्य नहीं हो सकती है ।कुछ विरले मानव होते हैं जो मृत्यु का महोत्सव मनाते हैं। संसार असार को सही से समझ कर आगे के भव की चिंता करते हैं और नश्वर काया का मोह त्याग कर सहर्ष देह त्याग का प्रण लेते हैं। कष्टों से घबरा कर व हताश होकर ऐसा नहीं करते हैं बल्कि आत्मकल्याण के लिए शुद्ध भावों से सचेत अवस्था में करते है ।मृत्यु तो शरीर की होती है आत्मा की नहीं आत्मा तो अजर -अमर है |

आत्मा हमारें कर्मो के हिसाब से एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर को धारण कर लेती है । शरीर की मृत्यु तो एक पड़ाव है, जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्र को त्यागकर नये वस्त्रों को ग्रहण कर लेता है । न और स का अंतर ही तो हमारे मिथ्यात्व और सम्यक्त्व के आढ़े आता है।नकारात्मक दृष्टिकोण हमेशा हमारे भीतर संदेह पैदा करता है और सम्यक्त्व का बाधक बनता रहता है ।हम सब जानते है कि एक दिन तो जन्म के बाद मृत्यु निश्चित है तो उससे डरने की बजाय श्रावक के अंतिम मनोरथ को पूरा करने के लिए हर पल विवेकपूर्ण तरीके को अपनाते हुए अप्रमत्त रहने के साथ अंतिम संलेखना संथारा पूर्वक अपने पंडित मरण की तैयारी तैयार करें और मृत्यु महोत्सव हो हमारे लिए ये सकारात्मक सोच के साथ हलुकर्मी होते हुए हिंसा का अल्पीकरण करते हुए अपना जीवनयापन करें।

साधना के द्वारा इस शरीर से सार निकालते रहे और पौष्टिक और कम आहार करते हुए जागरूकता पूर्वक अपनी प्रवृतियों को समेटते हुए निवृतिमय जीवन जीकर अपना मृत्यु महोत्सव मनाएं। हम अपने जीवन के कल्याण के साथ मृत्यु का भी कल्याण करें और दोबारा जन्म न लेना पड़े दो से ज्यादा आत्मा को यही हमेशा हम सही से करने का प्रयास करें। संथारा करने वालों के लिये तभी तो कहते है संथारे की सही से डोर पकड़कर किया निज जीवन का उद्धार ।समता की पतवार पकड़कर करदी जीवन की नैया पार ।

प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़, राजस्थान)

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