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DR LOHIYA JAYANTI : उर्वशीयम की चेतना पर न्यौछावर डा0 लोहिया

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PRESENTED BY ARVIND JAYTILAK 

डाॅक्टर राममनोहर लोहिया उर्वशीयम यानी पूर्वोत्तर की नागरिक स्वतंत्रता और सांस्कृतिक चेतना को लेकर बेहद संवेदनशील थे। राष्ट्र की सुरक्षा के लिए पूर्वोंत्तर की रक्षा, यहां के लोगों के अधिकारों का सम्मान और संस्कृति के मूलतत्वों को  संजाए रखने को अपरिहार्य मानते थे। उनके नागरिका अधिकारों के समग्र चिंतन की परिधि में यहां के लोगों की कालजयी संस्कृति, अनुपम प्राकृतिक छंटा भी समाहित थी जिसे देखकर डा0 लोहिया ने इसे उर्वशीयम नाम दिया। सच कहें तो पूर्वोत्तर में रहने वाले नागरिकों के अधिकारों, सभ्यतागत आचार-विचारों और जीवन की जीवंतता से जुड़े गुणसूत्रों को बचाने के लिए जितना डाॅक्टर राममनोहर लोहिया ने संघर्ष किया उतना दूसरी मिसाल भारत में नहीं मिलती है।

1962 में भारत-चीन युद्ध के बाद डाॅक्टर राममनोहर लोहिया तीन दिनों की यात्रा पर उर्वशीयम (अरुणाचल प्रदेश) पहुंचकर लोगों को नागरिक अधिकारों और सांस्कृतिक चेतना के लिए प्रेरित किया। उन्होंने नागरिक अधिकारों के संघर्ष में उन सभी भावों को आवश्यक माना जो राष्ट्र निर्माण की चेतना के लिए आवश्यक होते हैं। विचार करें  तो डाॅ0 लोहिया ने पूर्वात्तर को यों ही उर्वशीयम नाम नहीं दिया। पूर्वोत्तर के सभी राज्य असम, मणिपुर, मेघालय अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, सिक्किम और त्रिपुरा अपनी विशिष्ट संस्कृति, परंपरा व जीवंतता के लिए सुविख्यात हैं।

इनकी लोकपरंपरा, लोकरंग और जीवन माधुर्य भारतीयता के माथे पर रत्नजड़ित मुकुट है। स्वर्णिम आभायुक्त ये सभी राज्य भारतीयता की सहज अभिव्यक्ति और सांस्कृतिक बोध की विविधता की ऐतिहासिक धरोहरों को संजाऐ हुए हैं। डा0 लोहिया इस मनमोहक छंटा से बेहद प्रभावित थे। ये राज्य इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं कि जनजाति प्रधान हैं और इनकी विशिष्ट सांस्कृतिक परंपरा भारत राष्ट्र की विविधता के विभिन्न आयामों का प्रतिनिधित्व करता है। इन राज्यों में खासी, गारो, सूमी, कुकी, देवरी, भूटिया, बोडो, अंगामी और अपतानी जजजातियां विशेष रुप से उल्लेखनीय हैं जो अपने सांस्कृतिक मूल्यों का आज भी निर्वहन करते हैं।

इन जनजातियों की भाषा, कला, परंपरा, और त्यौहार मानवीय मूल्यों समृद्ध, उदात्त और प्रकृति के सापेक्ष और एकरसता से परिपूर्ण हैं। डा0 लोहिया इस एकरसता से पूर्ण उर्वशीयम को भारतीयता चेतना का मधुर स्वर मानते थे। इस समवेत क्षेत्र में 200 से अधिक भाषाएं एवं उपभाषाएं बोली जाती हैं और चार सैकड़ा से अधिक जनजातीय समुदाय इस पूर्वोत्तर के उपवन को गुलजार करते हैं। भारत के कुल क्षेत्रफल का तकरीबन 8 प्रतिशत वाला यह क्षेत्र इतना वैविध्यपूर्ण और छटाओं से भरपूर है कि अगर इसे भारत की सामाजिक-सांस्कृतिक प्रयोगशाला कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। विविध किस्म की वनस्पति से आच्छादित यह क्षेत्र नैसर्गिक सुंदरता को धारण किए हुए जनजातीय समाज की सांस्कृतिक सुंदरता, सहजता और पवित्रता को प्रतिध्वनित करता है।

यह भूमि जितना सहज व सुंदर हैं उतना ही धर्म व आध्यात्म से परिपूर्ण मानवतावादी भी। इस क्षेत्र के आध्यात्मिक वातावरण में आज भी श्रीमंत शंकरदेव की आध्यात्मिक पूंजी, राधाकिशोरपुर की देवी त्रिपुर सुंदरी की पवित्रता, परशुरामकुंड की निर्मलता, मां कामाख्या के प्रति समर्पण का अद्वितीय भाव और श्रीकृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध और बाणासुर की पुत्री उषा का निश्छल प्रेमभाव लोगों के हृदय को झंकारित करता है। यहां के जनजातीय समुदाय के लोगों का मौलिक धर्म प्रकृतिपूजा है। प्रकृति का हर अवयव इनके लिए पूजनीय और आराध्य है। आधुनिकता की चरम पराकाष्ठा के बावजूद भी जनजातीय समाज आज भी नदी, सूर्य, चंद्रमा, पर्वत, पठार, पृथ्वी, झील और वन की उदारता व सहजता से पूजा करता है। इनका ईश्वर प्रकृति के कण-कण में व्याप्त है।

जनजातीय समुदाय आज भी पारंपरिक विधि व निषेध का दृढ़ता व सहजता से पालन करते हैं। उसका मूल कारण अपनी सांस्कृतिक के प्रति अदम्य निष्ठा और विश्वास है। डा0 लोहिया का स्पष्ट मानना था कि उर्वशीयम की आत्मा उसके सांस्कृतिक उपागमों में बसती है और उसकी जीवंतता हजारों साल बाद भी बनी रहेगी। यहीं कारण है कि अन्य राज्यों की तरह आज भी पूर्वोत्तर में आधुनिकता का विकृत रुप अपना असर नहीं छोड़ पाया है। यहां अब भी लोक संगीत ही जीवन को रसों से सराबोर करती है। यहां के लोक उत्सवों में क्षेत्रीय संस्कृति की जीवंतता परंपरागत रुप से स्वीकार्य है।

डा0 लोहिया का मानना था कि उर्वशीयम की भाषा-संस्कृति और लोक उत्सवों का विचार प्रवाह भारत की आध्यात्मिक चेतना को नवजीवन प्रदान करती है। डा0 लोहिया मातृशक्ति के प्रबल पैरोकार थे। वे अकसर अपने साहित्य में सीता और द्रौपदी का उल्लेख करते हैं। डाॅक्टर लोहिया को जनजातीय समाज की सामाजिक बुनावट में माता की आदरणपूर्ण स्वीकार्यता बेहद पसंद भी। उनकी ममत्व के प्रति अगाध प्रेम व निष्ठा डा0 लोहिया को बेहद प्रभावित करती थी। विचार करें तो जनजातीय समाज में स्त्रियों के प्रति समान और संवेदना भारत की वैचारिक संवेदनाओं को एक नया आयाम देता है। उदाहरण के लिए मेघालय का समाज मातृसत्तात्मक है।

डा0 लोहिया अकसर इस स्थानीय परंपरा और लोकसंस्कृति को संरक्षित करने की बात कहा करते थे। पूर्वोत्तर भारत की जनजातीय कला व शिल्प अद्वितीय और अलौकिक प्रतिमानों से भरपूर है। कालीन बनाना, मुखौटे गढ़ना, पेंट किए गए लकड़ी के पात्र बनाना, बांस और बेंत की अद्भुत कलाकारी, मजबूत कांसे की कटोरियां, कानों की बालियां, हार, बाजूबंद, संगीत वाद्य और लकड़ी की नक्काशी का काम इनकी दिनचर्या का हिस्सा है। यह कार्य इनका आर्थिक उपार्जन के साथ-साथ पूर्वोत्तर की अर्थव्यवस्था को मजबूती देता है।

विचार करें तो डा0 लोहिया इस कुटीर उद्योग को फलीभूत करने की वकालत करते थे। दोनों का स्पष्ट मानना था कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करके ही राष्ट्र की अर्थव्यवस्था को ताकत दी जा सकती है। डा0 लोहिया समाज व अर्थ को आत्मा व शरीर मानते थे। यहां एक चिंतनीय पक्ष यह है कि आधुुनिकता के बढ़ते तेज प्रवाह से अब जनजातीय समुदाय का सामाजिक जीवन अछूता नहीं रहा। इसका सकारात्मक और नकारात्मक असर दोनों देखने को मिल रहा है। सकारात्मक असर यह कि जनजातीय समाज मुख्य धारा के साथ जुड़ रहा है वहीं नकारात्मक असर यह कि वह अपनी संस्कृति के मूल तत्वों से दूर हो रहा है। नतीजा यह कि उनमें परसंस्कृति ग्रहण तेज हुआ है जिसके कारण वह दोराहे पर है। न तो वह अपनी संस्कृति बचा पा रहा है और न हीे आधुनिकता से लैस होकर राष्ट्र की मुख्य धारा में मजबूत सहभागिता की दिशा में पूरी शिद्दत से शामिल हो रहा है।

डा0 लोहिया इसे लेकर बराबर चिंता जताते थे। अपने कई संबोधनों में उर्वशीयम की भाषा एवं संस्कृति को प्रभावित करने वाले कारकों का स्पष्ट उल्लेख करते थे। देखें तो आज जनजातियों में भी जातिगत विभाजन के समान ऊंच-नीच का एक स्पष्ट संस्तरण विकसित हो चुका है, जो उनके बीच अनेक सामाजिक-सांस्कृतिक संघर्षो और तनावों को जन्म दे रहा है। इससे जनजातियों की परंपरागत सामाजिक-सांस्कृतिक एकता और सामुदायिकता खतरे में पड़ती जा रही है। अनेक जनजातियां संस्कृतिकरण के दुष्परिणाम को न समझते हुए उन्हीं समूहों की भाषा बोलने लगी हैं जिनकी संस्कृति को स्वीकार किया।

डा0 लोहिया सामाजिक-सांस्कृतिक टकराव के खिलाफ थे। उनका मानना था कि इससे समाज में द्वेष और हिंसा की भावना पनपती है। वे भाषा को अपना विचार व्यक्त करने का एक माध्यम मानते थे। लेकिन लोकभाषा को सहेजने के प्रबल पक्षधर भी थे। उनका मानना था कि लोकभाषा से ही संस्कृति के मूलभाव संरक्षित होते हैं। यह सच्चाई भी है कि प्रत्येक समूह की भाषा में उसके प्रतीकों को व्यक्त करने की क्षमता होती है और यदि भाषा में परिवर्तन हो जाय तो समूहों के मूल्यों और उपयोगी व्यवहारों में भी परिवर्तन होने लगता है। जनजातीय समुदाय के साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा है।

जनजातीय समूहों में उनकी परंपरागत भाषा से संबधित सांस्कृतिक मूल्यों और आदर्श नियमों का क्षरण होने से आज जनजातीय समुदाय संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। डा0 लोहिया जंगल-जमीन पर उर्वशीयम के लोगों का सार्वभौमिक अधिकार मानते थे। वे कतई नहीं चाहते थे कि उन्हें उजाड़कर उनकी भूमि का दूसरे कार्यों के लिए उपयोग हो। आज डाॅक्टर लोहिया जीवित होते तो उर्वशीयम के नागरिक अधिकारों की रक्षा के साथ-साथ उनकी सांस्कृतिक विविधता के लिए संसद से लेकर सड़क तक आंदोलन करते।  

नोट- उपरोक्त लेख में लेखक अपने निजी विचार हैं ।

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